समाजशास्‍त्र / Sociology

हरबर्ट स्पेन्सर का सावयवि सिद्धान्त एवं सावयवि सिद्धान्त के  विशेषताएँ

स्पेन्सर के सावयवि सिद्धान्त

स्पेन्सर के सावयवि सिद्धान्त

हरबर्ट स्पेन्सर का सावयव  सिद्धान्त एवं सावयव सिद्धान्त के  विशेषता

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक चिंतन पर प्राणिशास्त्रीय खोजों व तथ्यों का प्रभाव पड़ने लगा था। इनके सिद्धान्तों के माध्यम से समाज की प्राणिशास्त्रीय विधि से विवेचना और विश्लेषण किया जाने लगा। समाज की बनावट, उसकी कार्य-प्रणाली की तुलना शरीर की संरचना और कार्यों से की जाने लगी। शरीर की बनावट तथा इसकी कार्य पद्धति अथवा प्रक्रिया की तुलना करने वाले चिन्तक हरबर्ट स्पेन्सर थे। स्पेन्सर के विचारों में समाज का सावयवी सिद्धान्त अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने समाज को जीवित शरीर की तरह माना है। यही उनका ‘समाज का सावयवी’ सिद्धान्त कहलाता है। स्पेन्सर ने जीवित शरीर के साथ समाज की तुलना की है। प्लेटो और अरस्तू ने भी इसी प्रकार की समानता को माना है किन्तु हरबर्ट स्पेन्सर ने इसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्राप्त किया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत स्पेन्सर ने प्रकार की समानताएँ दिखाने का प्रयास किया है। वे इस प्रकार है।

(1) सरल से जटिल की ओर विकास— समाज, जड़-पदार्थ से भिन्न है। विकास की आरम्भिक अवस्था में दोनों का आकार और स्वरूप छोटा होता है किन्तु जैसे-जैसे उनका आकार बढ़ता जाता है, उनकी संरचना में जटिलता आती जाती है। उदाहरण के लिए जन्म के अमय जीव का शरीर छोटा होता है किन्तु शनैः शनैः उसका विकास होता है। ठीक इसी प्रकार समाज भी आरम्भ में अविकसित था। उसका जीवन शिकार पर आधारित था। उसके औजार भी आके नहीं थे। पर जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया वह सरलता से जटिलता की ओर अग्रसर होता गया। इस जटिलता ने, समाज में, श्रम-विभाजन को उत्पन्न किया।

(2) पारस्परिक निर्भरता- शरीर की बनावट ऐसी है कि प्रत्येक अंग पृथक होते हुए भी वे परस्पर एक दूसरे पर आश्रुित हैं। शरीर से पृथक इन अंगों का कोई अस्तित्व नहीं है। उदाहरण के लिए शरीर से हाथ, आँख, पैर अथवा कोई भी अंग अलग कर दिया जाए तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता है। इसी प्रकार यदि किसी संस्था को समाज से पृथक कर दिया जाय तो उसका भी कोई अस्तित्व नहीं रह जायेगा।

(3) नियन्त्रण का केन्द्र- मस्तिष्क स्नायु-प्रणाली के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को नियंत्रित करता है। शरीर के सभी अंग मस्तिष्क के आदेशों का पालन करते हैं। समाज मस्तिष्क की भाँति कार्य करता है। समाज के सभी छोटे-बड़े अंग, संस्थायें, समूह, वर्ग आदि जो इसके आदेशानुसार कार्य करते हैं।

(4) सम्पूर्णता का महत्व – समाज और शरीर की बनावट कुछ इस प्रकार की है कि यदि इसका कोई अंग नष्ट हो जाय तो उसका कदापि यह अर्थ नहीं होता कि पूर्ण शरीर ही निरर्थक हो गया जैसे एक हाथ कटने से शरीर नष्ट नहीं हो जाता है ऐसे ही समाज की कोई इकाई समाप्त हो जाने से समाज समाप्त नहीं हो जाता है।

(5) निरन्तरता- शरीर रचना एक जटिल प्रक्रिया के तहत निरन्तर कार्यान्वित रहती है। शरीर के करोड़ों की संख्या में सेल हैं। ये टूटते और बनते रहते हैं। यह क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है। लोगों की मृत्यु भी होती है और उनका स्थान लेने के लिए शिशु का जन्म भी होता है।

(6) विभिन्न इकाइयों का योग- शरीर एक पूर्ण जीवित ढाँचे का नाम है जिसकी संरचना में असंख्य छोटे-बड़े अंगों का योगदान है। सभी अपना-अपना कार्य करते हैं। इसी प्रकार समाज भी व्यक्तियों के योग से मिलकर बनता है। सभी व्यक्ति अपने कार्यों को करते हैं। ये सभी उदाहरण इसके प्रतीक हैं कि हरबर्ट स्पेन्सर व्यक्ति और समाज की संरचना में समानता दिखाने का प्रयास करता है। ये समानताएँ मनुष्य और समाज के विकास को भी दर्शाती हैं जो
सरलता से जटिलता की ओर निरन्तर अग्रसर होती हैं।

हरबर्ट स्पेन्सर के सावयव सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ-

स्पेन्सर के विचारों में, ‘समाज का सावयवी सिद्धान्त अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने समाज को जीवित शरीर की तरह माना है। यही उनका ‘समाज का सावयवी’ सिद्धान्त कहलाता है।’ स्पेन्सर ने जीवित शरीर के साथ समाज की तुलना की है। प्लेटो और अरस्तू ने भी इसी प्रकार की समानता को माना है किन्तु हरबर्ट स्पेन्सर ने इसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्राप्त किया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत स्पेन्सर ने 6 प्रकार की समानतायें दिखाने का प्रयास किया। वे इस प्रकार है।

(1) सरल से जटिल की ओर विकास- समाज, जड़-पदार्थ से भिन्न है। विकास की आरम्भिक अवस्था में दोनों का आकार और स्वरूप छोटा होता है किन्तु जैसे-जैसे उनका आकार बढ़ता जाता है, उनकी संरचना में जटिलता आती जाती है। उदाहरण के लिए जन्म के समय जीव का शरीर छोटा होता है किन्तु शनैः-शनैः उसका विकास होता है। ठीक इसी प्रकार समाज भी आरम्भ में अविकसित था। उसका जीवन शिकार पर आधारित था। उसके औजार भी अच्छे नहीं थे। पर जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया वह सरलता से जटिलता की ओर अग्रसर होता गया। इस जटिलता ने, समाज में श्रम-विभाजन को उत्पन्न किया।

(2) पारस्परिक निर्भरता- शरीर की बनावट ऐसी है कि प्रत्येक अंग पृथक होते हुए भी वे परस्पर एक दूसरे पर आश्रित है। शरीर से पृथक इन अंगों का कोई अस्तित्व नहीं है। न उदाहरण के लिए शरीर से हाथ, आँख पैर अथवा कोई अंग अलग कर दिया जाय तो उसका
कोई महत्व नहीं रह जाता है। इसी प्रकार यदि किसी संस्था को समाज से पृथक कर दिया जाय तो उसका भी कोई अस्तित्व नहीं रह जायेगा।

(3) नियन्त्रण का केन्द्र- मस्तिष्क स्नायु-प्रणाली के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को नियंत्रित करता है। शरीर के सभी अंग मस्तिष्क के आदेशों का पालन करते हैं, समाज मस्तिष्क की भाँति कार्य करता है। समाज के सभी छोटे-बड़े अंग, संस्थायें, समूह, वर्ग आदि इसके आदेशानुसार कार्य करते हैं।

(4) सम्पूर्णता का महत्व- समाज और शरीर की बनावट कुछ इस प्रकार की है कि यदि इसका कोई अंग नष्ट हो जाय तो उसका कदापि यह अर्थ नहीं होता कि पूर्ण शरीर ही निरर्थक हो गया जैसे एक हाथ कटने से शरीर नष्ट हो जाता है। ऐसे ही समाज की कोई इकाई समाप्त हो जाने से समाज समाप्त नहीं हो जाता है।

(5) निरन्तरता- शरीर रचना एक जटिल प्रक्रिया के तहत निरन्तर कार्यान्वित रहती है। शरीर के करोड़ों की संख्या में सेल हैं। ये टूटते और बनते रहते हैं। यह क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहता है। लोगों की मृत्यु भी होती है और उसका स्थान लेने के लिए शिशु का जन्म भी होता है।

(6) विभिन्न इकाइयों का योग- शरीर एक पूर्ण जीवित ढाँचे का नाम है जिसकी संरचना में असंख्य छोटे-बड़े अंगों का योगदान है। सभी अपना-अपना कार्य करते हैं। इसी प्रकार समाज भी व्यक्तियों के योग से मिलकर बनता है। सभी व्यक्ति अपने कार्यों को करते हैं। ये सभी उदाहरण इसके प्रतीक हैं कि हरबर्ट स्पेन्सर व्यक्ति और समाज की संरचना में समानता दिखाने का प्रयास करता है। ये समानतायें मनुष्य और समाज के विकास को भी दर्शाती हैं जो सरलता से जटिलता की ओर निरन्तर अग्रसर होती हैं।

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