समाजशास्‍त्र / Sociology

स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त | Spencer’s theory of social evolution in Hindi

स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास

स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास

स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त 

स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास (social evolution) का सिद्धान्त/नियम- स्पेन्सर का विश्वास है कि भौतिक एवं प्राणिशास्त्रीय उदविकास का सिद्धान्त सामाजिक उदविकास पर भी लागू होता है। उद्विकास एक सतत प्रक्रिया है। किसी सीधी/सरल वस्तु का कतिपय निश्चित स्तरों में से गुजर कर जटिल अवस्था में पहुँचना ही उदविकास कहलाता है। प्राणिशास्त्र में ‘उद्विकास के नियम’ का प्रतिपादन ‘चार्ल्स डॉर्विन’ ने किया। उन्होंने अपनी एक कृति ‘प्राणिशास्त्रीय उदविकास का सिद्धान्त’ में यह स्पष्ट किया कि कम भिन्नता वाले जीवों से विभिन्न प्रकार की भिन्नता रखने वाले जीवों का विकास हुआ विभिन्नीकरण की यही प्रक्रिया वस्तुतः प्राणिशास्त्रीय उद्विकास की मूल जड़ है। डॉर्विन का कथन है कि उदविकास की प्रक्रिया के दौरान जीव को विभिन्न स्तरों में से होकर गुजरना पड़ता है। अपने उदविकास के प्रारम्भिक चरण में जीव सरल होता है तथा उसके स्वरूप के दर्शन निश्चित रूप में नहीं होते। किन्तु जैसे-जैसे उद्विकासीय प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है, जीव का जीवन जटिल होता जाता है। उसके जीवन में भिन्नता स्पष्ट होती जाती है, अतः उसका स्वरूप भी स्पष्ट होता जाता है।

उदविकास की इस प्रक्रिया को हम ‘बीज’ के उदाहरण से समझ सकते हैं। बीज में  वस्तुतः सम्पूर्ण वृक्ष सूक्ष्म रूप में पाया जाता है, किन्तु चूँकि बीज में भिन्नता नहीं दिखाई पड़ती, अतः यह नहीं बताया जा सकता कि अमुक बीज से वृक्ष का विकास किस प्रकार होगा? स्पष्ट है है कि उसका स्वरूप अनिश्चित है। बीज धीरे-धीरे वृक्ष के रूप में विकसित होता जाता है। यह विकास उसकी आन्तरिक वृद्धि के कारण ही सम्पन्न होता है। स्वयं बीज में ही वे अन्तर्निहित रहती हैं, जिससे उसका क्रमिक विकास होता जाता है।

बीज में धीरे-धीरे उसके विभिन्न गुण/शक्तियाँ अंग-तना, शाखाएं, पत्तियाँ, पुष्पादि स्पष्ट होकर उसके स्वरूप को निश्चित करने लगते हैं अर्थात बीज पौधे में बदल जाता है और पोधा क्रमशः वृक्ष का रूप ग्रहण कर लेता है। बीज से वृक्ष बनने तक विभिन्नीकरण की यह सम्पूर्ण प्रक्रिया निम्मानुसार सम्पन्न होती है। बीज को भूमि में आरोपित करने से पौधा उत्पन्न होता है, अब उसका प्रत्येक अंग स्पष्ट रूप से अलग-अलग क्रियाशील हो उठता है। जड़ का कार्य भूमि से भोजन खींचना है, तना पौधे को खड़ा रखने का कार्य करता है, पत्तियाँ प्राण वायु खींचकर वृक्ष को भोजन देकर उसे हरा-भरा बनाए रखती हैं, जबकि फूल का कार्य फल उत्पन्न करना है। बीज के उद्विकास की प्रक्रिया में जड़ का तने से, तने शाखाओं से, टहनी का पत्तियों से, पत्तियों का फूल से और फूल का फल से एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध निरन्तर स्थापित रहता है। एक अंग का कार्य और उसमें होने वाले प्रत्येक परिवर्तन का प्रभाव वृक्ष के अन्य अंगों पर अनिवार्यतः पड़ता है, जबकि जड़ को काट देने से सम्पूर्ण वृक्ष प्रभावित होता है।

डॉर्विन के उद्विकास के इस सिद्धान्त की निम्नलिखित पाँच बातें उल्लेखनीय है-

  1. प्रत्येक जीवित प्राणी सरलतम आरम्भिक अवस्था से जटिलतम अवस्था की ओर अग्रसर रहता है।
  2. जैसे-जैसे विभिन्नीकरण की प्रक्रिया द्वारा प्राणी का स्वरूप निश्चित होता जाता है, उन अंगों के कार्य भी निश्चित होते जाते हैं।
  3. विभिन्नता होने के बाद भी सभी अवयव परस्पर सम्बन्धित होते हैं। उनमें अन्तः सम्बन्ध और अन्तःनिर्भरता बनी रहती है।
  4. निरन्तरता उद्विकास का एक प्रमुख आधार है।
  5. प्रत्येक पदार्थ/जीव एक निश्चित स्तर में से गुजरता हुआ, अपनी पूर्णावस्था को प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए, गर्भ में पलने वाला जीव मांस का एक लोन्दा मात्र होता है। धीरे-धीरे उसके सभी अवयव अलग-अलग बनते हैं। जन्मोपरान्त व्यक्ति शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था को प्राप्त करता हुआ अन्त में मर जाता है।

उद्विकास के इस डॉर्विनवादी सिद्धान्त को कुछ समाजशास्त्रियों द्वारा समाज पर भी लागू करने का प्रयास किया गया। इस सम्बन्ध में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि मानवीय समाजों में भी उद्विकासीय प्रक्रिया सम्पन्न होती है। समाजशास्त्र में इस धारणा के समर्थकों का मत है कि सामाजिक उदविकास भी प्रक्रिया में सामाजिक और सांस्कृतिक तत्व विकसित हुए हैं। विकास के कतिपय निश्चित स्तर होते हैं तथा इन स्तरों का एक क्रम भी होता है। मानवीय समाजों की समस्त संस्थाओं और समितियों के इन सभी स्तरों को एक ही क्रमानुसार निकलना पड़ता है। सामाजिक उदविकास की प्रक्रिया में कुछ विशेषताएं देखी जाती हैं।

सामाजिक उदविकास की प्रक्रिया की विशेषताएँ

  1. प्रत्येक सामाजिक संस्था और समिति का सूक्ष्म अवलोकन करके उसमें आन्तरिक विवृद्धि अर्थात उदविकास की प्रक्रिया के दर्शन किए जाते सकते हैं।
  2. उद्विकास की प्रक्रिया सदैव ही निरन्तर और शनैःशनैः सम्पन्न होती है। निरन्तरता उद्विकास का मूलभूत गुण होने के अतिरिक्त धीरे-धीरे होना उसका स्वभाव भी है।
  3. सामाजिक उद्विकास सरलता से जटिलता की ओर होता है। प्रारम्भिक स्तर पर मानव समाज सरल था, लेकिन जैसे-जैसे वह विकसित होता गया, उसमें क्रमशः जटिलता आती गयी
  4.  सामाजिक उद्विकास वास्तव में, सामाजिक परिवर्तन का ही एक स्वरूप है।
  5. उद्विकास की प्रक्रिया प्रत्येक समाज में कतिपय निश्चित स्तरों में से होकर गुजरती है। ऐसे निश्चित स्तर प्रत्येक समाज में एक ही क्रमानुसार आते हैं।
  6. उद्विकास किसी की इच्छा-अनिच्छा पर आधारित नहीं होता।
  7. उद्विकास का कोई लक्ष्य नहीं होता, इसलिए उसकी दिशा के बारे में किसी प्रकार का अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता।

उदविकास की इस प्रक्रिया को हम समाज की प्रत्येक संस्था, समिति और सांस्कृतिक इकाई में देख सकते हैं। कला, धर्म, परिवार तथा विवाह, समाज, आर्थिक जीवन, संस्कृति व सभ्यता सभी में उदविकास के स्पष्ट दर्शन किए जा सकते हैं।

स्पेन्सर का मत है कि जैसे भौतिक उदविकास हुआ, उसी तरह से सामाजिक उद्विकास भी हुआ। मानव समाज का यह उदविकास सरल से जटिल की ओर हुआ है। सामाजिक उदविकास में जीवन-संघर्ष एवं अनुकूलन का नियम भी लागू होता है, जो संस्कृतियाँ एवं समुदाय इस संघर्ष में स्वयं को परिस्थितियों के साथ अनुकूलित कर लेते हैं, वही जीवित रहते हैं, जबकि शेष नष्ट हो जाते हैं। स्पेन्सर के मतानुसार, सामाजिक उदविकास के मुख्य आधार-स्तम्भ निम्नानुसार हैं।

सामाजिक उदविकास के आधार स्तम्भ

(1) सरल से जटिल का सिद्धान्त-

स्पेन्सर के सिद्धान्त में इस तथ्य पर काफी जोर दिया गया है कि समाज के उद्विकास की गति सरल से जटिल सजातीय से विजातीय और निश्चित रूप से अनिश्चित की ओर होती है। सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सरलता से जटिलता की ओर विकसित होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। समाज के उद्विकास के साथ-साथ श्रम-विभाजन विकसित होता जाता है। उधाहरणार्थ, आरम्भिक स्तर पर सामाजिक जीवन सीधा-सादा/सरल था। समाज की विभिन्न इकाइयाँ परस्पर अत्यन्त घुली-मिली हुयी थीं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समान होता था, प्रत्येक को काम स्वयं ही करना पड़ता था तथा इस प्रकार समाज का रूप अनिश्चित ही था। कालान्तर में समाज जैसे-जैसे विकसित होता गया, वैसे-वैसे श्रम-विभाजन और विशेषीकरण का नियम प्रचलित होता चला गया। आज प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निश्चित हो गया है तथा प्रत्येक व्यक्ति से वही काम लिया जाता है, जो कि उसके लिए निश्चित किया गया है। स्पेन्सर ने अपने इस तर्क की पुष्टि हेतु विभिन्न आदिवासी समाजों के उदाहरण भी दिए हैं।

(2) जीवन संघर्ष का सिद्धान्त-

स्पेन्सर के अनुसार, समाज विभिन्न शक्तियों का सन्तुलन है। एक समाज का दूसरे समाज, एक सामाजिक सूह का दूसरे सामाजिक समूह तथा एक सामाजिक वर्ग का दूसरे सामाजिक वर्ग के मध्य सन्तुलन देखा जा सकता है। यह सन्तुलन प्रत्येक मानव समाज अपने पर्यावरण के सन्दर्भ में भी रखता है और इसी के लिए अस्तित्व का संघर्ष भी पाया जाता है। जिस प्रकार जीवधारियों में संघर्ष के फलतः जीवन का विकास होता है, उसी तरह से समाज का विकास भी संघर्ष का कारण होता है, जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड पदार्थ और गति से सन्तुलित रहता है, उसी प्रकार से समाज में सन्तुलन का आधार समानता है। हर एक समाज एक-दूसरे का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ता है। समाज द्वारा आगे बढ़ने के लिए संघर्ष की स्थिति (बुद्ध) की सम्भावना उत्पन्न होती है। समाज में युद्ध का उद्देश्य/लक्ष्य अपने विरोधी को नष्ट कर देना है। ऐसा ही संघर्ष प्राणिशास्त्रीय उदविकास में निर्बलों का निरसन और बलशालियों को जीवित रखने हेतु होता है। युद्ध के कारण समाज की उन्नति प्रगति होती है। नये-नये अविष्कारों, खोजों और संगठनों का जन्म होता है। संघर्ष युद्ध के दूसरे के समक्ष सहायतार्थ आते-जाते हैं और परस्पर निर्भर होने लगते हैं। स्पेन्सर ने अपने इस भयवश लोग एक– सिद्धान्त में डार्विन के विचारों को मान्यता प्रदान की है।

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