मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विशेषताएँ
मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक प्रणाली की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
(1) तत्वशास्त्र (Metaphysics) के विपरीत, मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद प्रकृति को ऐसी वस्तुओं और घटना-प्रवाहों का एक आकस्मिक संग्रह कदापि नहीं मानता है जो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग- अलग, असम्बन्धित तथा स्वतन्त्र हो। वह (द्वन्द्ववाद) जो प्रकृति को एक सुसम्बद्ध तथा पूर्ण समग्रता के रूप में मानता है जिसमें कि विभिन्न वस्तुएँ तथा घटनाएँ सावयवी रूप में एक-दूसरे से संयुक्त, एक-दूसरे पर निर्भर तथा एक-दूसरे के द्वारा निर्धारित हैं। इस प्रकार द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अनुसार, प्रकृति की किसी भी वस्तु या घटना को दूसरी वस्तुओं या घटनाओं से पृथक, असम्बन्धित तथा स्वतन्त्र रूप में समझा नहीं जा सकता। प्रत्येक घटना अनेक घटनाओं से घिरी हुई होती है और उन सबका प्रभाव प्रत्येक पर और प्रत्येक का प्रभाव सब पर होता है। इसके बिना कोई भी घटना अर्थहीन ही है और इसे स्वीकार किए बिना घटनाओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना असम्भव है।
(2) तत्वशास्त्र के विपरीत, मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद यह मानता है कि प्रकृति एक स्थिर अगतिशील, अपरिवर्तनशील और चिरन्तन स्थिति नहीं है। प्रकृति तो निरन्तर गतिशील, परिवर्तनशील, नवीन, परिवर्द्धित तथा परिमार्जित स्थिति है, जिसमें कुछ चीजों का सदैव उदभव और विकास होता है, तो कुछ चीजों की अवनति और विनाश।
इस प्रकार द्वन्द्वात्मक प्रणाली इस तत्व पर बल देती है कि घटनाओं की विवेचना न केवल उनके अन्तःसम्बन्ध तथा अन्तःनिर्धरता को ध्यान में रखते हुए करनी चाहिए, बल्कि उनकी गति, उनके परिवर्तन, उनके विकास, उनके उदभव विनाश को भी ध्यान में रखना होगा। द्वन्द्वात्मक प्रणाली का सम्पर्क न केवल उन घटनाओं या वस्तुओं से है जोकि थोड़ा-बहुत स्थायी हैं, बल्कि उन सबसे भी है जो अस्थायी हैं। वास्तव में संसार में कोई भी चीज या घटना स्थिर या स्थायी नहीं है। एंगेल्स ने लिखा है, ‘समस्त प्रकृति छोटे से लेकर बड़े तक, बाल-कण से लेकर सूर्य तक, वाहकणु से लेकर व्यक्ति तक आने और चले जाने की एक निरन्तर स्थिति में, निरन्तर प्रवाह में, अनवरत गति तथा परिवर्तन की स्थिति में है।’
(3) तत्वशास्त्र के विपरीत, मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद यह विश्वास नहीं करता है कि विकास की प्रक्रिया एक सरल प्रक्रिया है जिसमें कि परिणामत्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन नहीं होते हैं। मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद के अनुसार छोटे-से-छोटे परिणामस्वरूप परिवर्तन से बड़े-से-बड़े गुणात्मक परिवर्तन भी सम्भव हो सकते हैं। परन्तु ये विकास या परिवर्तन धीरे-धीरे या सरल तरीके से नहीं होते; बल्कि शीघ्रता से और एकाएक होते हैं-मानो एक स्थिति से दूसरी स्थिति को छलाँग मारते हैं, साथ ही ये इत्तफाक से घटित नहीं होते, वरन परिणामस्वरूप परिवर्तनों के संचित होने के स्वभाविक परिणामस्वरूप होते हैं।
इस प्रकार द्वन्द्वात्मक प्रणाली यह बतलाती है कि विकास की प्रक्रिया को एक चक्रवत गति के रूप में न समझना चाहिए, अर्थात विकास की प्रक्रिया केवल उसी की पुनरावृत्ति नहीं है जो कुछ पहले घटित हो चुका है। द्वन्द्ववाद के अनुसार विकास की गति निरन्तर आगे बढ़ती हुई ऊपर चढ़ती रेखा की भांति है। वास्तव में यह तो एक पुरानी गुणात्मक स्थिति का एक नई गुणात्मक स्थिति में बदलना सरल का जटिल होना और एक निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर आगे बढ़ना है।
(4) तत्वशास्त्र के विपरीत, द्वन्द्ववाद के अनुसार समस्त वस्तुओं तथा प्रकृति की घटनाओं में आन्तरिक विरोध स्वाभाविक होते हैं, क्योंकि इन सबका विलोमात्मक और अनुलोमात्मक पक्ष या ‘वाद’ और ‘प्रतिवाद’, भूत और भविष्य, विनाशोन्मुखता और प्रगतिशील अर्थात विनाश और विकास दोनों ही पक्ष होते हैं। इन दोनों विरोधियों के बीच संघर्ष, अर्थात पुराने और नए के बीच, मरता हुआ और नवजात के बीच, मिटता हुआ और विकसित होने वाले के बीच संघर्ष विकास की प्रक्रिया की आन्तरिक अन्तर्वस्तु है। संक्षेप में, द्वन्द्ववाद के अनुसार विकास आन्तरिक विरोध या संघर्ष द्वारा ही संचालित होता रहता है। वास्तविक अर्थ में, द्वन्द्ववाद, जैसाकि लेनिन ने कहा है, वस्तुओं में निहित आन्तरिक विरोध का अध्ययन है।
इस प्रकार द्वन्द्ववाद के अनुसार, प्रत्येक विकास में ‘वाद’, ‘प्रतिवाद’ और ‘संवाद’ ये तीनों अवस्थाएँ होती हैं। प्रत्येक अवस्था अपने पूर्व की अवस्था का विलोम या निषेध होती है। प्रत्येक अवस्था के अन्त में थोड़ा-सा ऊपर उठ जाते हैं और जहाँ से चले थे फिर वहीं नहीं पहुँच जाते अपितु उच्च स्तर पर उठते जाते हैं। ‘समस्त प्रकृति में इसी क्रम से परिवर्तन चल रहा है। बोया हुआ अनाज का दाना सड़ जाता है (प्रथम निषेध), उससे अंकुर निकलता है और बढ़कर पौधा बन जाता है, जिसमें वाली लगती है (प्रथम निषेध का निषेध), फिर पौधा सूख जाता है (द्वितीय निषेध का निषेध), और फलस्वरूप पकी बाली से कई दाने मिलते हैं। निरिन्द्रिय सृष्टि में देखो। धूप, शीत, वायु के चट्टानें चूर्ण होती हैं (प्रथम निषेध या वाद), वर्षा के जल द्वारा बहकर यह चूर्ण समुद्र में चला जाता है (प्रतिवाद); बहुत काल में समुद्र में पर्वत उत्पन्न हो जाते हैं (संवाद) विकास आन्तरिक विरोध द्वारा इस कारण संचालित होता है, क्योंकि गतिशीलता स्वयं विरोधमय है। यदि यह पूछा जाए कि तुम क्या आज वही बच्चे हो जो छह महीने की आयु में थे, तो तुम क्या उत्तर दोगे? हाँ कहो तो भी गलत और ‘ना’ कहो तो भी गलत। कहना यही पड़ेगा कि ‘हाँ, मैं वहीं हूँ और नहीं भी हूँ।’ यह परस्पर विरोधी उत्तर क्यों देना पड़ रहा है? कारण यह कि तुम बढ़ते जा रहे हो, स्थिर स्थिति में नहीं रहे। अरस्तू के तर्कशास्त्र के अविरोध का नियम स्थिर स्थिति पर ही लागू होता है, गतिशील वस्तुओं पर नहीं। गति सर्वथा विरोधमय होती है।
Important Links
- कार्ल मार्क्स: ऐतिहासिक भौतिकवाद
- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (कार्ल मार्क्स)| Dialectical materialism in Hindi
- सहभागिक अवलोकन का अर्थ, परिभाषा, लाभ तथा कमियाँ | Interactive overview
- अवलोकन/निरीक्षण की परिभाषा, विशेषताएँ तथा इसकी उपयोगिता
- साक्षात्कार का अर्थ, विशेषताएँ, उद्देश्य तथा इसके लाभ | Meaning of Interview in Hindi
- उपकल्पनाओं के स्रोत तथा इसके महत्व | Sources of Subconceptions
- मैलीनॉस्की के प्रकार्यवाद | Malinowski’s functionalism in Hindi
- परम्परा का अर्थ, परिभाषा, तथा महत्व sociology-