शिक्षा (EDUCATION)
शिक्षा मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपना आर्थिक विकास करता है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु के समान रहता है। वह अपने आदर्शों, आकांक्षाओं, आशाओं, विश्वास, परम्परा तथा सांस्कृतिक विरासत को विकसित नहीं कर सकता। शिक्षा के द्वारा ही संसार की आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति होती है। प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री ड्यूवी के अनुसार, “जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए भोजन का महत्व है उसी प्रकार सामाजिक विकास के लिए शिक्षा का ।” इसी सम्बन्ध में प्रमुख दार्शनिक लॉक के अनुसार, “पौधों का विकास कृषि के द्वारा और मनुष्य का विकास शिक्षा के द्वारा होता है। एडम्स के अनुसार, “शिक्षा एक ऐसी सुनियोजित तथा चेतन प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्तित्व ज्ञान के द्वारा दूसरे व्यक्तित्व को उसके विकास हेतु प्रभावित करता है।”
शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Education)
शिक्षा शब्द संस्कृत के ‘शिक्ष’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘सीखना’ अथवा ‘सिखाना’ होता है। शिक्षा को अंग्रेजी में ‘एजूकेशन (Education) कहते हैं। ‘एजूकेशन’ (Education) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘एजुकेटम’ (Educatum) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘शिक्षित करना। एजुकेटम भी दो शब्दों से मिलकर बना है. ई (E) और ड्यूको (Duco)। ई का अर्थ ‘भीतर से और ड्यूको का अर्थ ‘बाहर निकालना’ (To Lead Out) अथवा ‘आगे बढ़ाना’। इस प्रकार एजूकेशन अथवा शिक्षा का अर्थ है- ‘अन्तः शक्तियों का बाहर की ओर विकास करना।’ लैटिन भाषा के दो शब्द ‘एजूसीयर तथा ‘एजूकेयर’ भी शिक्षा के इसी अर्थ की ओर संकेत करते हैं। ‘एजूसीयर’ का अर्थ ‘विकसित करना’ अथवा ‘निकालना’ है तथा दूसरे एजूकेयर’ का अर्थ है ‘आगे बढ़ाना, बाहर निकालना या विकसित करना। अतः शिक्षा का अर्थ आन्तरिक शक्तियों अथवा गुणों का विकास करना है।
शिक्षा की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
सुकरात के अनुसार, “शिक्षा का तात्पर्य संसार के उन सर्वमान्य विचारों को प्रकट करने से है, जो प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में निहित है। “
According to Socrates, “Education means bringing out of the ideas of universal validity which are latent in the mind of every man.”
विवेकानन्द के अनुसार, मानव की सम्पूर्णता का प्रकटीकरण ही शिक्षा है।”
According to Vivekanand, “Education is the manifestation of perfection already present in man.”
टैगोर के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ बालक को उस योग्य बनाना है कि वह शाश्वत् सत्य की खोज कर सके, उसे अपना बना सके और उसकी अभिव्यक्ति कर सके।”
According to Tagore, “Education means enabling the mind to find out the ultimate truth… making truth its own and giving expression to it.”
प्लेटो के अनुसार, शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस से है, जो अच्छी आदतों द्वारा बच्चों में अच्छी नैतिकता का विकास करे।”
According to Plato, “Education develops in the body and in the soul of the pupil all the beauty, and all the perfection of which he is capable.”
अरस्तु के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति की शक्ति का और विशेष रूप से मानसिक शक्ति का विकास करती है, जिससे वह परम सत्य, शिव और सुन्दर के चिन्तन का आनन्द उठा सके।”
According to Aristotle, “Education develops man’s faculty, especially his mind, so that he may be able to enjoy the contemplation of supreme truth, goodness and beauty.”
जॉन ड्यूवी के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति की उन योग्यताओं के विकास का नाम है, जो उसे उसके वातावरण पर नियन्त्रण रखना सिखाती है और उसकी सम्भावनाओं को पूर्ण करती है।”
According to John Dewey, “Education is the development of all those capacities in the individual which will enable him to control his environment and fulfil his possibilities.”
अरविन्द घोष के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मानव में पूर्ण रूप से शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक बल की सर्वांगीण उन्नति है।” According to
Sri Aurobindo Ghosh, “Education is the building of the power of human’s mind and spirit. It is the evoking of knowledge, character and culture.”
पेस्टालॉजी के अनुसार, “शिक्षा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का प्राकृतिक, निरन्तर तथा प्रगतिशील विकास है।”
According to Pestalozzi, “Education is the natural, harmonious and progressive development of a man’s innate powers.”
रूसो के अनुसार, “शिक्षा अन्दर से होने वाला विकास है, बाहर से एक साथ होने वाली वृद्धि नहीं, यह प्राकृतिक मूल प्रवृत्तियों के क्रियाशील होने से विकसित होती है, बाह्य शक्तियों की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप नहीं ।”
According to Rousseau, “Education is a development from within, not an accretion from without it, comes through the working of natural instincts and not through response to external forces.”
विभिन्न विद्वानों तथा शिक्षाशास्त्रियों के द्वारा ‘शिक्षा’ शब्द की दी गई परिभाषाओं के अवलोकन से स्पष्ट है कि शिक्षा एक सोद्देश्यपूर्ण, सतत्, गतिशील एवं सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास किया जाता है तथा जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने बाह्य जीवन में अच्छे ढंग से समायोजन स्थापित करने में समर्थ होता है।
स्पष्ट है कि शिक्षा, व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए ही अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है । सारांश रूप में शिक्षा को निम्न शब्दों के द्वारा परिभाषित किया जा सकता है-
“शिक्षा मानव व्यवहार का परिशोधन है।”
“Education is the amortisation of human behaviour.”
शिक्षा का संकुचित अर्थ (Narrow Meaning of Education)
संकुचित अर्थ के अनुसार शिक्षा का अभिप्राय बालक को विद्यालय में प्रदान की जाने वाली शिक्षा से है। अन्य शब्दों में, जब बालक को पूर्व निश्चित योजना द्वारा वयस्क वर्ग निश्चित पद्धतियों से, निश्चित प्रकार का ज्ञान प्रदान करता है तो उसे शिक्षा कहते हैं। यहाँ पर शिक्षा, विशेष विद्यालय, विशेष शिक्षण, विशेष काल, विशेष पद्धति तथा विशेष पाठ्यक्रम तक निश्चित हो जाता है। विद्यालय में शिक्षक बालक को वहीं शिक्षा देता है जो समाज और बालक के उन्नयन के लिए आवश्यक है। रेमॉण्ट (Raymont) के अनुसार, “संकुचित अर्थ में शिक्षा का प्रयोग बोलचाल की भाषा और कानून में किया जाता है। इस अर्थ में शिक्षा व्यक्ति के आत्म-विकास और उसके वातावरण के सामान्य प्रभावों को अपने में कोई स्थान नहीं देती है इसके विपरीत यह केवल उन विशेष प्रभावों को अपने में स्थान देती है जो समाज के अधिक आयु के व्यक्ति जान-बूझकर एवं नियोजित रूप में अपने से छोटों पर डालते हैं, भले ही यह प्रभाव परिवार, धर्म या राज्य द्वारा डाले जाएं।”
प्रोफेसर ड्रेवर के अनुसार, “शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसमें तथा जिसके द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र तथा व्यवहार को एक विशेष साँचे में ढाला जाता है।”
According to Prof. Draver, “Education is a process in which and by which, the knowledge, character, and behaviour of the young are shaped and moulded.”
वास्तव में संकुचित शिक्षा से बालक को ‘पुस्तकीय ज्ञान’ (Bookish Knowledge) तो प्राप्त हो जाता है किन्तु उस तोते के समान रटी जाने वाली शिक्षा को प्रायः शिक्षा न कहकर उसे ‘अध्यापन’ या ‘निर्देशन’ (Instruction) कहा जाता है।
शिक्षा का व्यापक अर्थ (Wider Meaning of Education)
मानव जीवन में शिक्षा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। बिना शिक्षा के मनुष्य का जीवन व्यर्थ है। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य का विकास सम्भव है। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में रह सकता है। मनुष्य के सर्वागीण विकास के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है (Education is a life long process)। इसमें शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई नियमबद्धता नहीं होती और न ही ये पूर्वनियोजित एवं औपचारिक होती है। इसे कहीं भी किसी भी समय किसी के भी द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। इस दृष्टि से शिक्षा ही जीवन है, जीवन ही शिक्षा है (Life is education, education is life) | शिक्षा मनुष्य के चहुँमुखी विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। शिक्षा का व्यापक अर्थ यह है कि मनुष्य द्वारा अर्जित वह ज्ञान जो इसे अपने भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूलन में सहायता करे या उसमें समायोजित होने में मनुष्य की रक्षा करे।
अतः हम कह सकते हैं कि ‘शिक्षा’ का अर्थ एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिससे मनुष्य की अन्तःशक्तियों का विकास हो सके।
महात्मा गाँधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वोत्तम एवं सर्वांगीण विकास से है।”
According to Mahatma Gandhi, “By education I mean an allround drawing out of the best in child and men – body, mind and spirit.”
अरस्तु के अनुसार, ‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण, शिक्षा है। “
According to Aristotle, “Education is the creation of a sound mind in a sound body.”
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “मनुष्य में समाहित देवीय पूर्णता की अभिव्यक्ति, शिक्षा है।”
According to Swami Vivekanand, “Education is the manifestation of divine perfection already in man.”
शिक्षा का वैज्ञानिक (विश्लेषणात्मक) अर्थ [Scientific (Analytical) Meaning of Education]
शिक्षा के विभिन्न अर्थों को समझने के बाद शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ को भी समझ लेना आवश्यक प्रतीत होता है। शिक्षा के वैज्ञानिक अर्थ के अनुसार, शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें “वैज्ञानिक पद्धति” (Scientific Method) के आधार पर या उसका अनुसरण करके व्यक्ति के सर्वागीण विकास का प्रयास किया जाता है। अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों ने “शिक्षा प्रक्रिया का विश्लेषण (Analysis of Education Process) करके उसके वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया है जिससे शिक्षा प्रक्रिया की उन सभी विशेषताओं व आधारभूत तथ्यों का पता चलता है जो शिक्षा के शाब्दिक, व्यापक तथा वास्तविक अर्थ में से किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
शिक्षा के सम्प्रत्यय (Concept of Education)
शिक्षा के प्रमुख सम्प्रत्यय निम्नलिखित हैं-
भारतीय सम्प्रत्यय (Indian Concept)
उपनिषद् के अनुसार, “शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है।”
According to Upnishads, “Education is that whose end product is salvation.”
शंकराचार्य के अनुसार, शिक्षा स्वंय की अनुभूति है।”
According to Shankracharya, “Education is the realisation of the self.”
आधुनिक सेम्प्रत्यय (Modern Concept)
अरविन्द घोष के अनुसार, “शिक्षा अन्तर्निहित ज्योति की उपलब्धि के लिए विकासशील आत्मा की प्रेरणादायिनी शक्ति है।”
According to Aurobindo Ghosh, “Education is helping the growing soul to draw out that is in itself.”
टैगोर के अनुसार, “शिक्षा का अर्थ बालक को इस योग्य बनाना है कि वह शाश्वत् सत्य की खोज कर सके, उसे अपना बना सके और उसकी अभिव्यक्ति कर सके।”
According to R.N. Tagore, “Education means to enable the child to find out the ultimate truth…making truth its own and giving expression to it.”
शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)
शिक्षा की प्रकृति को निम्न बिन्दुओं में देखा जा सकता हैं-
(1) शिक्षा एक सोद्देश्य व सचेतन प्रक्रिया है (Education is a Purposive and Conscious Process)- शिक्षा एक निरुद्देश्य व अचेतन प्रक्रिया न होकर एक निरुद्देश्य व सचेतन प्रक्रिया होती है, क्योंकि शिक्षा का कुछ न कुछ उद्देश्य होता है और उसकी प्राप्ति के लिए सोच-विचार कर व जानबूझकर प्रयास किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, शिक्षा निश्चित उद्देश्य पाठ्यक्रम शिक्षण विधि द्वारा सोच समझकर प्रदान और प्राप्त की जाती है जिसमें व्यक्ति’ (Individual) तथा ‘समाज (Society) दोनों के हित को ध्यान में रखा जाता है। इस प्रकार दी जाने वाली शिक्षा सप्रयोजन और सचेतन होती है।
(2) शिक्षा अन्तःशक्तियों का सर्वांगीण विकास है (Education is the Allround Development of Inner Powers) – शिक्षा बालक में अन्तर्निहित शक्तियों का विकास मात्र नहीं है बल्कि यह उनका सर्वागीण व पूर्ण विकास है। आधुनिक युग में जब से शिक्षा में मनोविज्ञान को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। तब से बालक में ‘अन्तर्निहित शक्तियों (Inherent Powers) पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता है। अब शिक्षक बालक के ऊपर बाह्य ज्ञान को लादने का प्रयास न कर उसमें अन्तर्निहित शक्तियों का सर्वागीण और प्रगतिशील विकास कर उसका जीवन सफल बनाने का प्रयास करता है। एडीसन के अनुसार, “शिक्षा वह क्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य में निहित शक्तियों एवं गुणों का दिग्दर्शन होता है जिसे शिक्षा के बिना अन्दर से बाहर निकलना नितान्त असम्भव है।”
(3) शिक्षा विकास की प्रक्रिया है (Education the Process is of Development)- प्रत्येक बालक व व्यक्ति कुछ जन्मजात शक्तियों व सम्भावनाओं को लेकर जन्म लेता है। सामाजिक वातावरण में बालक की उन शक्तियों का विकास होता है। समाज में रहते हुए उसे अनेक नए-नए अनुभव प्राप्त होते हैं। उन अनुभवों से वह अपने व्यवहार में परिवर्तन करके अपना विकास करता है। जिस बालक को जितने अधिक अनुभव प्राप्त होते जाते हैं उसके विकास में भी उतनी ही अधिक वृद्धि होती जाती है। परिवर्तन की इस क्रिया को ही शिक्षा कहा जाता है। अतः शिक्षा को विकास की प्रक्रिया कहा जाता है।
(4) शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालयों में प्रदान किए जाने वाले ज्ञान से नहीं है (Meaning of Education is not Limited to School Knowledge) – अधिकांश लोग शिक्षा का संकुचित अर्थ लगाते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि शिक्षा विद्यालय तक ही सीमित नहीं होती बल्कि बालक पर जो-जो तत्व प्रभाव डालते हैं वे सब शिक्षा के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्य के लिए संसार के समस्त प्राणी शिक्षण का कार्य करते हैं। भारत में महर्षि कणाद को ही लीजिए, वे चींटी तथा अन्य छोटे जीव-जन्तुओं को उनके विशेष गुणों के कारण अपना गुरु मानते थे। शिक्षा का व्यापक अर्थ इसी मन्तव्य को प्रकट करता है।
(5) शिक्षा एक प्रगतिशील परिवर्तन है (Education is a Progressive Change) – वस्तुतः शिक्षा द्वारा व्यक्ति अपनी क्षमताओं आदि का प्रयोग करते हुए कुछ न कुछ सीखता रहता है। सीखने के परिणामस्वरूप उसके व्यवहार एवं अनुभव में प्रगतिशील परिवर्तन’ (Progressive Change) होते रहते हैं। एक ‘सामाजिक प्राणी (Social Animal) होने के कारण व्यक्ति को अपने मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार में परिवर्तन करना आवश्यक भी है। ताकि वह समाज में एक सरल एक शिक्षित व्यक्ति के नाम से जाना जा सके।
कनिंघम के अनुसार, “समाज एवं व्यक्ति दोनों के लिए शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो परिवर्तनों को लाती है।”
According to Cunnigham, “From both points of views that of society and of the individual education is the bringing about of changes.”
(6) शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है (Education is Bi-polar Process)- हमें यह समझ लेना चाहिए कि केवल शिक्षक ही सक्रिय (Active) होकर बालक के मस्तिष्क में ज्ञान भरने का प्रयास नहीं करता है बल्कि वास्तविकता यह है कि इस प्रक्रिया में शिक्षक (Educator) और विद्यार्थी (Educant) दोनों को परस्पर सक्रिय सहयोग करना पड़ता है। इस बात की पुष्टि करते हुए एडम्स के अनुसार, “शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया (Bi-polar process) है जिसमें कि एक व्यक्ति दूसरे के विकास में परिवर्तन के लिए कार्य करता है।”
(7) शिक्षा एक त्रिध्रुवी प्रक्रिया है (Education is a Tri-Polar Process) – ड्यूवी आदि शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि शिक्षा एक त्रिध्रुवी प्रक्रिया है। शिक्षा के तीन अंग हैं शिक्षक, बालक और पाठ्यक्रम शिक्षक और बालक के साथ-साथ पाठ्यक्रम भी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है। पाठ्यक्रम का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान से न होकर उन सब विचारों, भावों, मान्यताओं और अनुभवों से है, जिनसे बालक का सर्वांगीण विकास और समाज का हित होता है। पाठ्यक्रम ही वह महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जो शिक्षक और बालक दोनों बिन्दुओं को मिलाता है इसलिए शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया कहा गया है।
(8) शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है (Education is a Life Long Process) – शिक्षा प्रक्रिया अनवरत रूप से जीवन पर्यन्त चलती रहती है। व्यक्ति सदैव कुछ न कुछ अनुभव प्राप्त करता रहता है और इन्हीं अनुभवों से वह कुछ न कुछ सीखता रहता है। स्पष्ट है कि शिक्षा कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जो एक निश्चित अवधि अथवा विद्यालय जीवन में ही समाप्त हो जाए। यह तो बिना समाप्त हुए चलती रहती है। इसलिए शिक्षा को एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया (Continuous Process) कहा जाता है।
(9) शिक्षा समायोजन की प्रक्रिया है (Education is Process of a Adjustment) – व्यक्ति का संतुलित विकास तभी सम्भव है जब वह अपने वातावरण के साथ समायोजन स्थापित कर ले। अपने स्वयं के तथा अपने वातावरण के साथ जब तक व्यक्ति का समायोजन नहीं होगा, व्यक्ति की मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहेगी, उसमें चिन्ता तथा तनाव रहेगा। फलतः वह मानसिक उद्वेगों से पीड़ित रहेगा। और किसी भी प्रकार के अनुभव प्राप्त नहीं कर पाएगा। शिक्षा के द्वारा बालक में पर्यावरण के साथ समायोजन करने की शक्ति विकसित की जाती है जिससे वह मानसिक संघर्षों से बचता हुआ अपना सन्तुलित विकास कर सके।
(10) शिक्षा अनुभवों का सतत पुनर्गठन है (Education is a Continuous Re Grouping of Experiences)- मनुष्य तथा बालक अपने दैनिक जीवन में विविध प्रकार के अनुभव प्राप्त करते हैं। कुछ व्यक्ति अपने अनुभवों से लाभ उठाकर अपने व्यवहारों का परिमार्जन कर लेते हैं तथा नई-नई क्षमताओं से कौशलों का विकास कर लेते हैं। यही शिक्षा कहलाती है, जबकि कुछ लोग अपने अनुभवों से लाभ नहीं उठा पाते हैं। व्यक्ति जब अपने अनुभवों का पुनर्संगठन करता है, जिससे प्रत्येक अनुभव उसे अधिगम लाभ दे सके और उसकी शिक्षा-प्रणाली में ऐसा स्थान ग्रहण कर सके जहाँ से वह उस अनुभव का सर्वोत्तम लाभ ले सके। इसलिए कहा जाता है कि शिक्षा अनुभवों का पुनर्संगठन है।
शिक्षा का विषय-विस्तार या क्षेत्र (Scope or Field of Education)
शिक्षा का सम्बन्ध जीवन से है, इसलिए शिक्षा के विषय-विस्तार के अन्तर्गत् जीवन की क्रियाएँ और समस्याएँ आती हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को उसके पूर्वजों के द्वारा संग्रहित धरोहर, उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत और उनके संचित अनुभवों का ऐसा ज्ञान दिया जाता है जिससे उसको उसके जीवन की समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। ये अनुभव, विरासत तथा धरोहर इतने व्यापक हैं कि व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में भी उनको पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। अतः मानव की योग्यताओं, क्षमताओं और को ध्यान में रखकर उपयोगी विषयवस्तु का पृथक-पृथक विषयों के रूप में चयन कर लिया जाता है जिससे व्यक्ति सहजता, सरलता और स्वाभाविकता के साथ उन्हें सीख सके। इस प्रकार जीवन के विविध क्षेत्रों में प्राप्त अनुभवों को अलग-अलग विषयों के रूप में प्रस्तुत करके शिक्षा के विषय – विस्तार या क्षेत्र को निम्नलिखित भागों में बाँटा जाता है-
(1) शिक्षा दर्शन- शिक्षा शास्त्र के अन्तर्गत जीवन के प्रति जो विभिन्न दृष्टिकोण हैं, उनका और उनके आधार पर शिक्षा के स्वरूप शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा की पाठ्यचर्या आदि का अध्ययन किया जाता है।
(2) शैक्षिक समाजशास्त्र- समाज और शिक्षा का सम्बन्ध शैक्षिक समाजशास्त्र का विषय है। शैक्षिक समाजशास्त्र शिक्षा को सामाजिक पृष्ठभूमि और समाजशास्त्रीय आधार प्रदान करता है। इसमें समाज की आवश्यकताओं, सामाजिक अन्तःक्रिया, समाजीकरण की प्रक्रिया, शिक्षा के सामाजिक कार्यों और शिक्षा तथा सामाजिक परिवर्तन के पारस्परिक सम्बन्धों आदि पर विचार किया जाता है।
(3) शिक्षा मनोविज्ञान – इसके अन्तर्गत बच्चों की प्रकृति उनकी योग्यता, रुचियों और अभिरुचियों तथा स्मृति, विस्मृति चिन्तन और कल्पना आदि शक्तियों का अध्ययन किया जाता है और शिक्षा की प्रक्रिया में उनके उपयोग की सीमा निश्चित की जाती है। शिक्षा मनोविज्ञान में सीखने के स्वरूप, सीखने की दशाओं, सीखने को प्रभावित करने वाले कारकों और सीखने के सिद्धान्तों तथा नियमों का भी अध्ययन किया जाता है।
(4) शिक्षा का इतिहास- इसके अन्तर्गत हम शिक्षा के इतिहास का अध्ययन इतिहास की दृष्टि से करते हैं। जब तक हम आदिकाल से लेकर अब तक शिक्षा का जो स्वरूप रहा है, उसकी जो व्यवस्था रही है और उसके जो परिणाम रहे हैं, उन सबका अध्ययन नहीं करते तब तक हम अपने लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकते।
(5) तुलनात्मक शिक्षा – शिक्षाशास्त्र के क्षेत्र में भी विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है और उसके गुण-दोषों का विवेचन किया जाता है। इस जानकारी को प्राप्त करके हम अपने देश की शिक्षा-व्यवस्था का मूल्यांकन कर सकते हैं। दूसरे देशों की शिक्षा व्यवस्था के गुणों व अच्छाईयों को हम अपनी शिक्षा-व्यवस्था में अपना सकते हैं और एक उत्तम शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण करने में सफल हो सकते हैं।
(6) शैक्षिक समस्याएँ – इसके अन्तर्गत देश की वर्तमान शैक्षिक समस्याओं पर विचार किया जाता है और उनके समाधान के तरीके ढूंढे जाते हैं। प्रमुख समस्याएँ जैसे- अपव्यय और अवरोधन की समस्या, अनुशासन हीनता, जनसंख्या शिक्षा की समस्या, शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की समस्या आदि। इन समस्याओं के कारणों का विश्लेषण करके उनका समाधान खोजना अत्यन्त आवश्यक है, तभी देश में शिक्षा व्यवस्था सुचारू रूप से चल सकती है।
(7) शैक्षिक प्रशासन एवं संगठन- इसके अन्तर्गत शिक्षा का संचालन किसके हाथ में है, राज्य का इसमें किस प्रकार सहयोग है, प्रधानाध्यापकों एवं अध्यापकों के गुण एवं कर्तव्यों, बच्चों का प्रवेश, उनका वर्गीकरण आदि के अध्ययन से हम शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने में समर्थ होते हैं।
(8) शिक्षण कला एवं तकनीकी – शिक्षण प्रक्रिया में सीखना और सिखाना दोनों क्रियाएँ आती हैं। भिन्न-भिन्न स्तरों के बच्चों को भिन्न-भिन्न विषयों को पढ़ाने की कौन-कौन सी विधियों का निर्माण हुआ है, उनमें कौन-सी विधियाँ उपयोगी हैं और इन विधियों को अपनाते समय क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए। इन सबकी चर्चा शिक्षण कला एवं तकनीकी के अन्तर्गत की जाती है।
शिक्षा की आवश्यकता (Need of Education)
नवजात शिशु असहाय तथा असामाजिक होता है। वह न बोलना जानता है और न चलना-फिरना। उसका न कोई मित्र होता है और न शत्रु। यही नहीं, उसे समाज के रीति रिवाजों तथा परम्पराओं का ज्ञान भी नहीं होता और न ही उसमें किसी आदर्श तथा मूल्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा पाई जाती है परन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे उस पर शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रभाव पड़ता जाता है, वही दूसरी ओर उसमें सामाजिक भावना भी विकसित होती जाती है। परिणामस्वरुप वह शनैः शनैः प्रौढ़ व्यक्तियों के उत्तरदायित्वों को निभाने के योग्य बन जाता है।
शिक्षा मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा के द्वारा मानव का सर्वांगीण विकास किया जा सकता है। मानव जीवन को उन्नत एवं खुशहाल बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की उन्नति कर सकता है। शिक्षा की मनुष्य के जीवन में आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) व्यक्ति के मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए।
(2) शारीरिक विकास के लिए।
(3) मनुष्य के चारित्रिक तथा नैतिक विकास हेतु।
(4) व्यक्ति के संवेगों में सकारात्मक सुधार के लिए।
(5) मनुष्य के आध्यात्मिक विकास हेतु।
(6) मनुष्य को कुशल व्यावसायिक कौशल या आर्थिक कौशल (जीविकोपार्जन) की कला में सहायता प्रदान करने हेतु।
(7) राष्ट्रीय विकास में सहायक।
(8) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के में सहायक।
(9) मनुष्य में सामाजिकता के विकास हेतु।
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