शिक्षा के साधन के रूप में समाज (Society as a Medium of Education)
शिक्षा के साधन के रूप में समाज- सामान्यतः व्यक्तियों के समूह को हम ‘समाज’ कहते हैं। इस प्रकार समाज के व्यक्तियों के बीच बने सामाजिक सम्बन्धों को हम ‘समाज’ कहते हैं। प्रत्येक समाज यह चाहता है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक उपयोगी सदस्य व समाज का एक अच्छा नागरिक बने इसके लिए वह शिक्षा की प्रक्रिया को इस प्रकार सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपने मूल्यों, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं एवं आदर्शों से भली-भाँति परिचित हो सके और उसकी प्राप्ति हेतु अपने आप को योग्य बना सके तभी वह समाज का एक अच्छा नागरिक बन सकेगा। इस प्रकार समाज ही शिक्षा के उद्देश्य को निश्चित करता है कि किस प्रकार अमुक व्यक्ति शिक्षा में उद्देश्यों की पूर्ति करते हुए समाज का एक उपयोगी एवं कुशल नागरिक बन सके।
समाज की परिभाषाएँ (Definitions of Society)
सभी समाजशास्त्रियों ने निम्न ढंग से समाज की परिभाषा को प्रस्तुत किया है-
टालकॉट पारसन्स के अनुसार, समाज को उन मानवीय सम्बन्धों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन तथा साध्य के सम्बन्ध द्वारा क्रिया करने में उत्पन्न होती हैं, वे चाहे वास्तविक हों अथवा प्रतीकात्मक। “
According to Talcott Parsons, “Society may be defined as total complex of human relationship in so far as they grow out of action in terms of means and ends, relationship, intrinsic or symbolic.”
मैकाइवर और पेज के अनुसार, “समाज रीतियों तथा कार्यप्रणालियों के अधिकार तथा पारस्परिक सहयोग की अनेक समूहों और विभागों की, मानव व्यवहार के नियत्रंणों और स्वतन्त्रताओं की एक व्यवस्था है। इस परिवर्तनशील व्यवस्था को हम समाज कहते हैं।”
शिक्षा व समाज में सम्बन्ध (Relation between Education and Society)
वर्तमान में ही नहीं अपितु प्राचीनकाल से ही हमें यह देखने को मिलता है कि समाज के स्वरूप के आधार पर शिक्षा के स्वरूप को भी रखा जाता है, वर्तमान समय में समाज अपने सिद्धान्तों के अनुसार ही शिक्षा की व्यवस्था करता है।
ओटावे के अनुसार, “किसी भी समाज में दी जाने वाली शिक्षा समय-समय पर उसी प्रकार बदलती है, जिस प्रकार समाज बदलता है।”
इसे निम्न उदाहरणों द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं-
(1) भौतिकवादी समाज (Materialistic Society) – शिक्षा की ऐसी व्यवस्था जिससे समाज व्यावसायिक सम्पन्नता प्राप्त करे इसमें भौतिक सुख-सुविधाओं को ज्यादा महत्व दिया जाता है।
(2) आदर्शवादी समाज (Idealistic Society) – इसमें आध्यात्मिकता को अधिक महत्व दिया जाता है, अतः ऐसे समाज की शिक्षा में चारित्रिक गठन एवं नैतिक विकास पर बल दिया जाता है।
(3) प्रयोजनवादी समाज (Pragmatic Society)- प्रयोजनवादियों के अनुसार इस परिवर्तित समाज में शिक्षा का स्वरूप भी बदलते रहना चाहिए। अतः “इस प्रकार समाज व शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है, अतः दोनों एक दूसरे पर पूर्णतया निर्भर हैं, अतः समाज पर शिक्षा के प्रभाव व शिक्षा पर समाज के प्रभाव को समझते हुए हम इसके सम्बन्ध को और अधिक अच्छे से समझ सकेगें।”
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