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शिक्षा के प्रकार या रूप | शिक्षा का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध

शिक्षा के प्रकार या रूप
शिक्षा के प्रकार या रूप

शिक्षा के प्रकार या रूप (Types of Education)

शिक्षा के प्रकार या रूप- शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है और व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सीखता रहता है। इस सम्बन्ध में अमेरिका में सेकेण्ड्री एजुकेशन कमीशन रिपोर्ट में कहा गया है – “शिक्षा का उद्देश्य हर व्यक्ति में ज्ञान, रुचि, आदर्श एवं शक्तियों का विकास करना है जिससे वह उचित स्थान बना सके और उसका प्रयोग वह स्वयं और समाज के आदर्श उद्देश्यों के लिए कर सके।

जेम्स के अनुसार, “शिक्षा उन कार्यों तथा आदर्शो का संगठन है जो किसी व्यक्ति को उसके भौतिक तथा सामाजिक वातावरण में स्थान दिलाते हैं।” रेमन्ट के अनुसार, “शिक्षा को विकास की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है। इससे मानव विभिन्न तरीकों से अपने भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में अनुकूलन करता है।”

इन सभी विचारों से एक बात स्पष्ट होती है कि शिक्षा के दो रूप हैं- एक स्वरूप अनादि है यह सदैव समाज में एक प्रक्रिया में निहित रहेगा और दूसरा स्वरूप औपचारिक है। इन्हीं स्वरूपों को शिक्षाशास्त्री विभिन्न नामों से व्यक्त करते हैं, परन्तु शिक्षा का मूल एक ही है। विद्वानों ने शिक्षा के चार स्वरूपों का वर्णन किया है-

(1) नियमित एवं अनियमित शिक्षा,

(2) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष शिक्षा,

(3) वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा एवं

(4) सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा।

(1) नियमित तथा अनियमित शिक्षा अथवा औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा (Formal and Informal Education)

शिक्षा के इस स्वरूप (नियमित (Formal) शिक्षा) में विद्यालय की शिक्षा पर ही विचार किया जाता है। इसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं, नियमित शिक्षा के अन्तर्गत पूर्व योजनानुसार कार्य होता है। बालक को निश्चित स्थान, एवं समय पर निश्चित विषय की शिक्षा दी जाती है। यह शिक्षा, शिक्षा न होकर निर्देश है।

अनियमित (Informal) शिक्षा का आरम्भ गर्भ-काल से ही होता है। उदर स्थित बालक के पूर्ण विकास से लेकर समाज में उचित स्थान प्राप्त करने तक यह क्रम चलता रहता है। पूर्व योजनानुसार इस अनियमित शिक्षा का पता नहीं चलता। व्यक्ति हर समय, किसी न किसी से कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। नियमित और अनियमित शिक्षा के अन्तर को स्पष्ट करते हुए के अनुसार, “शिक्षा निर्देश से अधिक श्रेष्ठ एवं उत्तम है।”

(2) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष शिक्षा (Direct and Indirect Education)

प्रत्यक्ष शिक्षा से तात्पर्य उन निर्देशों (Instructions) से है जो बालक की कक्षा में अध्यापक द्वारा दिए जाते हैं। अध्यापक अपने ज्ञान को छात्रों को देता है और उसके व्यावहारिक पहलुओं पर भी अपने विचार प्रकट करता है। अप्रत्यक्ष शिक्षा में अध्यापक का योगदान प्रत्यक्ष नहीं होता है। वह केवल वातावरण का निर्माण करता है और छात्र उस वातावरण के प्रति प्रतिक्रियाएँ करते हैं। छात्र अपने समूह, परिवार, समुदाय तथा खेल के समूह से अनेक प्रकार के गुण-अवगुण सीखते हैं। इसलिए राबर्ट्सन का विचार है “निर्देश कक्षा में ही समाप्त हो जाता है और शिक्षा जीवन के साथ समाप्त होती है। अतः शिक्षा का रूप प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष, दोनों रूपों में व्यक्ति को प्रभावित करता है।

(3) वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा (Individual and Collective Education)

वैयक्तिक शिक्षा से तात्पर्य एक बालक की शिक्षा से है। प्राचीन काल में राज-दरबारों में राजा लोग अपने पुत्रों की शिक्षा वैयक्तिक रूप से कराते थे। भी ‘ट्यूशन’ परम्परा इसी का प्रतीक है। शिक्षक एक बालक को शिक्षा देते समय इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखता है कि उसकी रुचियों, आदर्शों, प्रकृति एवं योग्यता का पूरा-पूरा विकास हो। सामूहिक शिक्षा से तात्पर्य कक्षा-प्रणाली से है। इसके अन्तर्गत एक आयु समूह, योग्यता, एवं रुचि वाले बालकों को समान रूप से समान विषयों एवं व्यवहारों में शिक्षण दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि इस प्रकार की वैयक्तिक एवं सामूहिक शिक्षा औपचारिक (formal) शिक्षा का दूसरा रूप है। सम्भवतः इसलिए जे. एस. मेकेन्जी ने संकुचित शिक्षा को मानव शक्तियों के विकास हेतु चेतनायुक्त प्रयास बताया है। शिक्षा से ऐसी आशा की जाती है कि वह समाज के लिए बालक को उपयोगी बनाए। इसलिए शिक्षा चाहे वैयक्तिक हो अथवा सामूहिक शिक्षा का उद्देश्य बालक को सामाजिक वातावरण में समायोजन के योग्य बनाना है।

(4) सामान्य एवं विशिष्ट शिक्षा (General and Specific Education)

सामान्य शिक्षा को उदार शिक्षा भी कहा जाता है। इस शिक्षा का उद्देश्य बालकों में सामान्य वृत्तियों, अभिवृत्तियों एवं रुचियों का विकास करना है। इस प्रकार की शिक्षा में बालकों की मनोवृत्तियों को विकसित किया जाता है। इस शिक्षा का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह तो केवल बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान गुणों का सर्वश्रेष्ठ विकास करने की ओर उन्मुख है।

जहाँ तक विशिष्ट शिक्षा का प्रश्न है, इसमें बालक को किसी स्थिति में विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था होती है। बालक को डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक एवं अन्य प्रकार के व्यवसायों का प्रशिक्षण इसी के अन्तर्गत आता है। सामान्य एवं विशिष्ट दोनों प्रकार की शिक्षा, नियमित शिक्षा का ही परिवर्तित रूप है। शिक्षा के इन रूपों पर विचार करने के उपरान्त हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं-

(1) शिक्षा, मानव विकास का माध्यम है-प्लेटो के अनुसार, “शिक्षा छात्र के शरीर और आत्मा में उन सब सौन्दर्य और पूर्णता का विकास करती है जिसका वह पात्र है। शिक्षा व्यक्ति का विकास करती है उसकी आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों का निर्माण करती है।

(2) शिक्षा व्यवहारों को प्रशिक्षण देती है-शिक्षा के दोनों रूप मानव व्यवहारों को प्रशिक्षण देकर समाज के अनुकूल बना देते हैं। वास्तविकता यह है कि जीवन के सभी अंगों-शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का विकास शिक्षा के द्वारा होता है।

(3) शिक्षा, जीवन का मार्ग निर्देशित करती है-शिक्षा के द्वारा ही बालक एवं अध्यापक वातावरण में अपने जीवन के भावी रूप का निश्चय कर लेते हैं। शिक्षा उन्हें आवश्यक निर्देशन देकर राह पर लाती है।

(4) शिक्षा बालक की अभिवृद्धि करती है-बालक में उसकी शारीरिक एवं मानसिक अभिवृद्धि शिक्षा के द्वारा ही होती है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने चरित्र के प्रशिक्षण, व्यवहार तथा व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि एवं साहित्यिक, कलात्मक और सांस्कृतिक रुचियों के विकास के द्वारा ही यह अभिवृद्धि अपेक्षित बताई है।

अतः शिक्षा का स्वरुप चाहे जैसा हो, शिक्षा का उद्देश्य बालक के सम्पूर्ण विकास से है। यह सम्पूर्णता जीवन को व्यवस्थित करती है और ऐसी सम्पूर्णता केवल शिक्षा द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

शिक्षा का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध (Education and its Relation with other Disciplines)

शिक्षा का सम्बन्ध अन्य विषयों के साथ बड़ा ही घनिष्ठ होता है। इस सम्बन्ध को विभिन्न विषयों के साथ निम्नलिखित रूप से दिखाया गया है-

(1) शिक्षा एवं मनोविज्ञान का सम्बन्ध (Relation between Education and Psychology)

शिक्षा एवं मनोविज्ञान का सम्बन्ध सीखने एवं सीखने की विधियों से है। शिक्षा तथा मनोविज्ञान ज्ञान की दो स्पष्ट शाखाएँ हैं परन्तु इन दोनों के मध्य परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। आधुनिक शिक्षा का आधार मनोविज्ञान है। बालक की उसकी रुचियों, रुझानों, सम्भावनाओं एवं व्यक्तित्व का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके शिक्षा दी जाती है। आज शिक्षा एवं मनोविज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।

स्किनर के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा का एक आवश्यक तत्व है। इसकी सहायता के बिना शिक्षा की गुत्थी सुलझाई नहीं जा सकती। शिक्षा तथा मनोविज्ञान दोनों का सम्बन्ध शिक्षा के साथ है। मनोविज्ञान की खोजों की शिक्षा के दूसरे पहलुओं पर गहरी छाप है।

शिक्षा तथा मनोविज्ञान, सिद्धान्तों एवं व्यवहार का समन्वय है। शिक्षा एवं मनोविज्ञान के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान मानव के समन्वित सन्तुलित विकास के लिए आवश्यक है। शिक्षा के समान कार्य, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं।

क्रो एवं क्रो के अनुसार, ‘मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान है।” शिक्षा एवं मनोविज्ञान को जोड़ने वाली कड़ी है “मानव व्यवहार”।

इस सम्बन्ध में दो विद्वानों के विचार दृष्टव्य है-

ब्राउन के अनुसार, “शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है।”

पिल्सबरी के अनुसार, “मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है।”

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षा एवं मनोविज्ञान दोनों का सम्बन्ध मानव व्यवहार से है। शिक्षा मानव व्यवहार में परिवर्तन करके उसे उत्तम बनाती है। मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। इस प्रकार मनोविज्ञान एवं शिक्षा में सम्बन्ध होना स्वाभाविक है।

(2) शिक्षा एवं दर्शन से सम्बन्ध (Relation between Education and Philosophy)

दर्शन तथा शिक्षा की अलग-अलग व्याख्या करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों का लक्ष्य व्यक्ति को सत्य का ज्ञान कराना तथा उसके जीवन को विकसित करना है ऐसी स्थिति में यह कहना उचित ही होगा कि दर्शन एवं शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध ही नहीं होता है अपितु दोनों एक-दूसरे पर आश्रित भी होते हैं। दर्शन तथा शिक्षा के मध्य सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए उन तथ्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं जिनके कारण शिक्षा दर्शन पर आश्रित रहती है एवं दर्शन को शिक्षा का सहारा लेना पड़ता है।

शिक्षा के दर्शन पर आश्रित होने के कारण (Factors of Depending Education on Philosophy)

शिक्षा के दर्शन पर आश्रित होने के कारण निम्नलिखित हैं-

(1) दर्शन जीवन के उस वास्तविक लक्ष्य को निर्धारित करता है जिसे शिक्षा को प्राप्त करना है। शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो चेतन एवं स्वेच्छित है। दर्शन जीवन के वास्तविक लक्ष्य को निर्धारित करता है। शिक्षा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उचित मार्गदर्शन भी करती है। बिना दर्शन की सहायता के शिक्षा की कोई योजना सत्य एवं उपयोगी नहीं हो सकती। अतः स्पेन्सर के अनुसार, “वास्तविक शिक्षा का संचालन वास्तविक दर्शन ही कर सकता है।”

(2) दर्शन शिक्षा के विभिन्न अंगों को प्रभावित करता है। कुछ विद्वानों का मत है कि दर्शन का सम्बन्ध केवल सूक्ष्म बातों से ही होता है एवं शिक्षा का सम्बन्ध व्यावहारिक तथा स्थूल दोनों से होता है।

जे.एस. रॉस के अनुसार, दर्शन तथा शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो एक ही वस्तु के विभिन्न दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं। वे एक-दूसरे पर अन्तर्निहित होते. हैं।

(3) महान दार्शनिक महान शिक्षा शास्त्री भी हुए हैं इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक समय के महान दार्शनिक ही महान शिक्षाशास्त्री भी हुए हैं। प्लेटो, सुकरात, लॉक, कमेनियस, रूसो, फ्रोबेल, डी.वी., गाँधी, टैगोर एवं अरविन्द घोष आदि महान दार्शनिकों के उदाहरण इस बात की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं। ये सब महान दार्शनिक महान शिक्षाशास्त्री भी हुए हैं।

(3) शिक्षा एवं समाजशास्त्र का सम्बन्ध (Relation between Sociology and Education)

समाज एवं सामाजिक समूहों का अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत् किया जाता है। इसमें सामाजिक समूहों के जीवित घटक व्यक्तियों के बीच चलने वाली अन्तःक्रिया एवं उसके परिणामों का अध्ययन निहित होता है। शिक्षा भी एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन सम्भव है। अतः यह समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत आती है। शिक्षा एवं समाजशास्त्र का सम्बन्ध मानव के व्यवहार से होता है। अतः ये दोनों आपस में प्रगाढ सम्बन्ध रखती हैं।

ब्राउन के अनुसार, शैक्षिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र के सिद्धान्तों को शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर लागू करता है।”

ओटावे के अनुसार, “शैक्षिक समाजशास्त्र की संक्षिप्त परिभाषा इस रूप में की जा सकती है कि वह शिक्षा और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है।”

मनुष्य के व्यवहार में क्या परिवर्तन करना है, यह समाज विशेष के जीवन दर्शन, उसकी संरचना, एवं संस्कृति तथा सभ्यता पर निर्भर करता है। समाजशास्त्र में उपर्युक्त सभी तथ्यों का समग्र रूप में अध्ययन किया जाता है। शिक्षा मनुष्य के समग्र विकास के लिए उत्तरदायी होती है। शिक्षा एवं समाज दोनों ही मनुष्य से सम्बन्धित होते हैं। अतः इन दोनों का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

उपर्युक्त विषयों के अतिरिक्त शिक्षा का अन्य विविध विषयों से भी सम्बन्ध होता है। जैसे राजनीति एवं विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि । यह सभी विषय शिक्षा से घनिष्ठतम सम्बन्धित होते हैं। शिक्षा के माध्यम से इन सभी विषयों को सरल व सरस बनाया जा सकता है।

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