विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Development)
विकास को प्रभावित करने वाले कारक- विकास को प्रभावित करने वाले निम्न प्रकार हैं-
वंशानुक्रम कारक (Genetic Factors)- वंशानुक्रम सम्बन्धी कारक, गर्भधारण के समय माता-पिता से जीन्स और क्रोमोसोम्स के रूप में बालक में प्रवेश करती हैं। ये जीन्स और क्रोमोसोम्स ही बालक की अभिवृद्धि एवं विकास के मूल कारक होते हैं और ये बाद की अवस्थाओं में बालक में प्रकट होते हैं। बालक की ऊँचाई, भार, आँखों का रंग, त्वचा, बालों की प्रकृति, शारीरिक गठन, तंत्रिका तन्त्र आदि वंशानुक्रम से ही निर्धारित होते । वंशानुक्रम से आई गुणवत्ता ही बालक की अभिवृद्धि और विकास के लिये नींव (Foundation) का कार्य करती है। यदि वंशानुक्रम का योगदान बालक के लिये सन्तोषप्रद होता है तो आगे के जीवन में सन्तोषप्रद परिणाम प्राप्त करने के लिये कम वातावरणीय दबाव (Environmental pressure) की आवश्यकता रहती है। अतः वंशक्रम व्यक्ति के जीवन में विकास के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
जैविक कारण (Biological Factors) – बालक की अभिवृद्धि और विकास में उसकी जैविक संरचना और उसके सम्बन्धित तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके प्रभाव का निम्नांकित बिन्दुओं में वर्णन किया जा रहा है-
(i) जो बालक शारीरिक रूप से कमजोर है और उसके अन्दर आन्तरिक कमी है, तो वह प्राय: बीमार रहता है जिसके कारण उसकी शारीरिक अभिवृद्धि के साथ मानसिक, सांवेगिक और सामाजिक विकास पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, जिससे उसे सन्तोषप्रद परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं।
(ii) बालक का तन्त्रिका तन्त्र (Nervours System) जो उसकी प्रत्येक गति को नियन्त्रित करता है, भी उसके ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive Sphere) को प्रभावित करता है।
(iii) बालक अथवा व्यक्ति की अन्त: स्रावी ग्रन्थियाँ (Internal Secretion Glands) भी उसे जन्म से प्रभावित करती रहती हैं। इस ग्रन्थियों की सामान्य प्रक्रिया व्यक्ति के विकास के लिये आवश्यक है। एक ही ग्रन्थि के असामान्य कार्य करने से व्यक्ति की अभिवृद्धि एवं विकास में असमान्यता आ जाती है।
(iv) बालक की शारीरिक संरचना में विद्रूपता (Defective Constitution make- up) जैसे-भद्दा चेहरा, नाटा कद, आदि के कारण उसमें आत्महीनता की भावना (Inferiority) पैदा हो जाती है जिसके कारण उसे समायोजन करने में समस्या पैदा होती है और इस कारण उसकी अभिवृद्धि एवं विकास प्रभावित होता है।
वातावरणीय कारक (Environmental Factors) – बालक की अभिवृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले वातावरणीय कारक वे होते हैं जो उसके बाहरी वातावरण में उपलब्ध होते हैं। ये वातावरणीय कारक तभी से अपना प्रभाव डालना प्रारम्भ कर देते हैं जब बालक माँ के गर्भ में आता है। ये वातावरणीय कारक निम्नलिखित हैं-
1. माँ के गर्भ के चारों ओर का वातावरण ( Environment in the womb of the Mother)
2. बालक के जन्म के बाद का वातावरण (Environment av available after birth)
1. गर्भ के चारों ओर का वातावरण- गर्भ धारण के पश्चात् माँ के पेट में जो गर्भ पलता है उस पर गर्भावस्था के दौरान उसके पोषण का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यह पोषण बालक की अभिवृद्धि एवं विकास को प्रभावित करता है। इससे सम्बन्धित कुछ कार निम्नांकित हैं-
(i) गर्भावस्था में माँ का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
(ii) गर्भावस्था में गर्भ में शिशुओं की संख्या
(iii) गर्भ में पोषण के लिये माँ द्वारा ग्रहण किये गये आहार की मात्रा
(iv) गर्भावस्था के दौरान गर्भ पर किन्हीं हानिकारक किरणों का प्रभाव
(v) सामान्य और असामान्य डिलीवरी
(vi) गर्भ के अन्तर शिशु पर किसी प्रकार का आघात ।
2. जन्म के बाद का वातावरण- जन्म के बाद उसके चारों ओर के वातावरण में कई स्थितियाँ एवं दबाव ऐसे होते हैं, जिनका प्रभाव बालक के विकास पर पड़ता है। ऐसे ही कुछ कारक निम्नांकित हैं-
(i) जीवन में किसी प्रकार की चोट अथवा दुर्घटना
(ii) स्वास्थ्यपूर्ण वातावरण, पोषण और चिकित्सा सुरक्षा
(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों द्वारा दी गई सुविधाओं की मात्रा एवं गुण (Quantity and Quality)
ये सुविधाएँ निम्नवत् होती हैं-
(अ) माता-पिता एवं अभिभावकों द्वारा देखभाल की व्यवस्था
(ब) माता-पिता एवं परिवार का आर्थिक स्तर
(स) पड़ोस के व्यक्ति एवं वातावरण
(द) बालक को दी गई विद्यालयी शिक्षा
(य) बालक के मित्र एवं साथियों के साथ सम्बन्ध
(र) बालक और उसके परिवार को जाति, धर्म, नागरिकता आदि से सम्बन्धित उपचारात्मक एवं गुणात्मक सुविधाएँ
(ल) बालक को दी गई शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों की गुणात्मक एवं मात्रात्मक सुविधाएँ
(व) बालक जिस समाज और देश में रहता है वहाँ के नियम।
उपर्युक्त वर्णित तथ्यों से यह प्रकट होता है कि बालक की अभिवृद्धि एवं विकास पर वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों ही अपना प्रभाव डालते हैं और उसके जीवन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
शारीरिक कारक (Physical Factors) – शारीरिक कारक निम्न प्रकार हैं-
1. पौष्टिक भोजन (Nutritive Diet)- बालक का स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास विशेष रूप से पौष्टिक तथा संतुलित आहार पर निर्भर होता है। इस सम्बन्ध में सोरेन्सन ने कहा है- “पौष्टिक भोजन थकान का प्रबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र है।”
2. नियमित दिनचर्या (Regulated Routine)- बालक के शारीरिक विकास पर नियमित दिनचर्या का प्रभाव पड़ता है। उसके खाने पीने, पढ़ने, लिखने, सोने आदि के लिए समय निश्चित होना चाहिए। अतः स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास के लिए बालक में आरम्भ से ही नियमित जीवन बिताने की आदत डालनी चाहिए।
3. निद्रा व विश्राम (Step and Rest) – शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम आवश्यक है। अतः शिशु को अधिक-से-अधिक सोने देना चाहिए। तीन या चार वर्ष के शिशु के लिए 12 घण्टे की निद्रा आवश्यक है। बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः 10 और 8 घण्टे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, जिससे कि उसकी क्रियाशीलता से उत्पन्न होने वाली थकान पूरी तरह से दूर हो जाए, क्योंकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है।
4. व्यायाम, खेलकूद व मनोरंजन (Exercise, Games and Enter- tainment)- सदैव काम करते रहना तथा खेलकूद न करना, मनोरंजन के अवसर न मिलना बालक के विकास को मन्द कर देता है। इस प्रकार शारीरिक विकास के लिए व्यायाम और खेलकूद अपरिहार्य होते हैं। इसके साथ मनोरंजन एवं मनोविनोद भी शारीरिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
5. प्रेम (Love)- बालक के शारीरिक विकास पर माता-पिता तथा अध्यापक के व्यवहार का भी काफी असर पड़ता है। यदि बालक को इनसे प्रेम और सहानुभूति नहीं मिलती है तो वह काफी दुःखी रहने लगता है जिससे उसके शरीर का संतुलित और स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है। उसका विकास कुंठित हो जाता है।
6. सुरक्षा (Security)- शिशु या बालक के सम्यक् विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना अति आवश्यक है। इस भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्म-विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरुद्ध कर देती हैं।
7. पारिवारिक परिवेश (Family Environment) – परिवार ममता का स्थल होता है। ममता, मैत्री, वात्सल्य, प्रफुल्लता, स्नेह, सहयोग, संरक्षण, सहानुभूति परिवार में ही सुलभ होते हैं। अतः उपयुक्त शारीरिक विकास के लिए उपयुक्त पारिवारिक परिवेश नितान्त आवश्यक हो जाता है।
Important Links
- किशोरावस्था की समस्याएं
- किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका
- एरिक्सन का सिद्धांत
- कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त
- भाषा की उपयोगिता
- भाषा में सामाजिक सांस्कृतिक विविधता
- बालक के सामाजिक विकास में विद्यालय की भूमिका