बाल्यावस्था के ऐतिहासिक एवं समसामयिक परिप्रेक्ष्य
बाल्यावस्था के ऐतिहासिक एवं समसामयिक परिप्रेक्ष्य- बाल्यावस्था को मानव विकास की एक प्राकृतिक अवस्था माना जाता है। छोटे बच्चे अपने जीवन के लिए पूरी तरह बड़ों पर निर्भर रहते हैं। शिशु न तो अपने आप आहार ले सकता है और न ही अपनी देखभाल कर सकता है। जबकि पशुओं के बच्चे अधिक स्वयं समर्थ होते हैं । उदाहरणार्थ, गाय का बछड़ा/बछिया पैदा होने के कुछ ही देर बाद खड़ा होकर चलने लग जाता है।
बाल्यावस्था विकास की एक जैविक अवस्था ही नहीं है, इसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी हैं, जो विभिन्न समाजों में, विभिन्न समयों पर, प्रवृत्तियों, विश्वासों और मूल्यों के आधार पर उपजे हैं। समय-समय पर विभिन्न समाजों में बाल्यावस्था की परिभाषाएँ और अपेक्षा बदलती रहती हैं । इतिहास के विभिन्न कालों में बच्चों के प्रति माता-पिता की जिम्मेदारियाँ भी बदलती रही हैं।
मध्य युग में बाल्यावस्था के प्रति दृष्टिकोण
कुछ इतिहासकारों के अनुसार 16वीं शताब्दी से पूर्व पाश्चात्य संस्कृति में बाल्यावस्था का संप्रत्यय जीवन की एक विशिष्ट अवस्था के रूप में विकसित नहीं हुआ था।
मध्यकाल के अन्त तक पश्चिमी देशों में बच्चों को प्रौढ़ों का लघु रूप समझा जाने लगा था। 15वीं और 16वीं शताब्दी की चित्रकला में बच्चों का शारीरिक अनुपात और वस्त्र बड़ों के समान ही प्रदर्शित किए गए हैं। यदि इन चित्रों के बारे में कलात्मक अभिव्यक्ति के बाहर आकर सोचें, तो बच्चों से बड़ों की तरह ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती थी। बच्चों से भी अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने माता-पिता के साथ सामाजिक जीवन के सभी आयामों में प्रतिभागिता करें। गन्दी भाषा, यौन व्यवहार आदि कुछ भी बच्चों के लिए वर्जित नहीं था। इस काल में बच्चों के लिए विशेष संरक्षण व देखभाल का कोई प्रत्यय नहीं था। बच्चों को बड़ों की तरह ही दण्ड दिए जा सकते थे।
मध्यकाल में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर बहुत अधिक थी, जीवित बच्चों के अधिक वर्षों तक जीवित रहने की संभावना भी कम होती थी । 17वीं शताब्दी में फ्रांस में जन्म लेने के एक वर्ष के भीतर 20 से 50 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु हुई थी। लोग सोचते थे कि उन्हें अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए, ताकि उनमें से कुछ जीवित बच जायें।
18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बाल्यावस्था
18वीं शताब्दी से बाल्यावस्था के प्रति दृष्टिकोण और प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन होने लगा। यह माना जाने लगा कि बच्चे नादान होते हैं और उन्हें देखभाल की आवश्यकता है। माता-पिता ने बच्चों की सामाजिक गतिविधियों और सामाजिक सरोकार पर ध्यान देना आरम्भ कर दिया।
18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक अनुशासन के नाम पर बच्चों की बुरी तरह से पिटाई करना, एक सामान्य बात थी। कभी-कभी धार्मिक सन्दर्भों का सहारा लेकर बच्चों के साथ निर्दयता बरती जाती थी।
बाल्यावस्था की परिभाषा हमेशा सामाजिक संस्थाओं से प्रभावित रही है। 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों से पूर्व तक बालश्रम को बुरा नहीं माना जाता था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक फैक्टरियों में ज्यादातर बच्चे ही काम करते थे, उनका काम बड़ों के कामों जैसा ही होता था, कभी-कभी तो वे बड़ों से अधिक मेहनत करते थे। साइज में छोटे होने के कारण कभी-कभी उनको खतरनाक सँकरी जगह काम पर लगा दिया जाता है; जैसे- फैक्टरी की चिमनी की सफाई, कभी-कभी बड़े लोग गैर-कानूनी काम में बच्चों का उपयोग करते थे; जैसे- भीख माँगना, चोरी करना, आदि।
19वीं शताब्दी के मध्य में पहले ‘बाल संरक्षण संगठन‘ (Child Protection Organization) का उदय हुआ। सबसे पहले 1825 में अमेरिका में ‘हाउस ऑफ रिफ्यूजी’ (House of Refuge) की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य शोषित और अनदेखे किए गए बच्चों को शरण देना था। बाद के वर्षों में इस तरह की कई संस्थाओं की स्थापना हुई। परंतु इन संस्थाओं में भी बालकों के कल्याण के प्रति संवेदनशीलता की कमी रही। ये संस्थाएँ बच्चों का संरक्षण नहीं, बल्कि प्रयास करती थीं कि बच्चे समाज के लिए आर्थिक बोझ और खतरा न बनें। उस समय बहुत लोग सोचते थे कि यदि बाल्यावस्था खराब हो जाएगी तो प्रौढ़ावस्था भी खराब होगी। इसीलिए हाउस ऑफ रिफ्यूजी की कोशिश थी कि शहरी क्षेत्र के गरीब बच्चों को आपराधिक प्रवृत्तियों से सुरक्षित किया जाए।
19वीं शताब्दी में, औद्योगीकरण के विकास ने बाल श्रम को बढ़ावा देना शुरू किया किसी बच्चे के जन्म को इस दृष्टि से देखा जाता था कि एक भावी श्रमिक पैदा हुआ, जो परिवार की आर्थिक स्थिति को सँभालने में अपना योगदान देगा।
20 वीं शताब्दी में बाल्यावस्था
20वीं शताब्दी के मध्य तक औद्योगीकरण ने जोर पकड़ लिया था, बच्चों को आर्थिक कार्यों के लिए जरूरी समझना कम हो गया। पैसा कमाने का काम माता-पिता का समझा गया। खासतौर पर पिता से अपेक्षा की जाने लगी कि घर के बार जाकर वह धन कमाए। परिणामस्वरूप अधिक बच्चे पैदा करने को आर्थिक बोझ समझना आरम्भ हो गया। साथ ही साथ बच्चों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि हुई। बच्चों की परवरिश के बदले कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा शिथिल हुई। बच्चों को वांछित प्यार और देखभाल मिलने लगा।
बाल्यावस्था के आधुनिक संप्रत्यय व निर्माण को निम्न बिन्दुओं के द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है- (i) मानव विकास की अवस्थाओं में बाल्यावस्था को सबसे महत्वपूर्ण माना जाने लगा है।
(ii) परिवार के अंदर बच्चे बाहरी दुनिया से स्वयं को सुरक्षित और संरक्षित महसूस करने लगे हैं।
(iii) बच्चों को सुरक्षा और संतुष्टि देने के लिए माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार भरपूर प्रयास करते हैं।
(iv) नाभिकीय पारिवारिक संरचना में बालक पर अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा, बाल-केन्द्रित विचारों और विश्वासों को प्रमुखता मिलने लगी ।
(v) विकासात्मक मनोविज्ञान का उदय हुआ, बालकों और बाल्यावस्था को विभिन्न अध्ययनों और शोध के माध्यम से विशेष प्रमुखता दी गई। एलन की (Ellen Key) ने 20वीं शताब्दी को ‘बच्चों की शताब्दी’ (The century of the child) कहा था।
(vi) मनोवैज्ञानिकों का विकास दृढ़ हुआ कि बालक का विकास पूर्वनिर्धारित, रेखीय और आयु अनुसार होता है।
(vii) इतिहास में पहली बार बालक वैज्ञानिक अध्ययनों और व्यावसायिक मनोविश्लेषण का केन्द्र बना।
(viii) आधुनिक परिवारों में माता की तरफ से बच्चे को पूर्ण सुरक्षा और ममता प्राप्त होती है, परंतु कभी-कभी माँ के अत्यधिक संरक्षण से बालकों का विकास प्रभावित भी होता है।
(ix) बच्चों की भलाई के लिए चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया, बच्चों के पालन-पोषण के नए तरीकों को प्रस्तुत किया, संवेगात्मक दृष्टि से विशिष्ट बच्चों को सहायता दी। बेन्जामिन स्पोक, विरजीनिया एक्सलाइन और एरिक एरिक्सन को विशेष प्रसिद्धि मिली।
(x) 1950 में अमेरिका के घरों में टेलीविजन आ गया, जिसमें माता-पिता और बच्चों के मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने लगा। आरम्भ में टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर बड़ा सेंसर होता था। पारिवारिक समस्याओं, गरीबी, हिंसा और शोषण आदि से सम्बन्धित घटनाएँ टेलीविजन पर नहीं दिखाई जाती थीं, ताकि बच्चों पर गलत प्रभाव न पड़े।
(xi) सालों बाद महिलाओं में यह जागृति आई कि उन्हें केवल पति और बच्चों की देखभाल तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, वे अपने कैरियर के साथ-साथ अपने परिवार और अपने बच्चों की देखभाल भी अच्छी तरह से कर सकती हैं।
आधुनिक समय में यह मान लिया गया है कि व्यक्ति के जीवन चक्र की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था बाल्यावस्था है। इस अवस्था में हुए समाजीकरण और मनोवैज्ञानिक विकास जीवन भर व्यक्ति के कार्य और व्यवहार को प्रभावित करता है। बाल्यावस्था जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंश है, जिसमें बड़ों के द्वारा देखभाल और सुरक्षा आवश्यक है।
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