गृहविज्ञान

तथ्य सामग्री (संकलन) के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत | प्राथमिक एवं द्वितीयक सामग्री में अन्तर

तथ्य सामग्री (संकलन) के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत
तथ्य सामग्री (संकलन) के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत

तथ्य सामग्री (संकलन) के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत

सामग्री के स्रोत (Sources of Data)- सामाजिक अनुसन्धान में विविध प्रकार की विधियों एवं प्रविधियों द्वारा सामग्री एकत्रित की जाती है। आखिर इस सामग्री या इन आँकड़ों के स्रोत क्या हैं? एक समाजशास्त्री अनुसन्धान सम्बन्धी का संकलन दो प्रमुख स्रोतों से करता है-

(अ) सामग्री के प्राथमिक स्रोत या क्षेत्रीय स्रोत, तथा

(ब) सामग्री के द्वितीयक स्रोत या ऐतिहासिक स्रोत

प्राथमिक सामग्री

प्राथमिक सामग्री उस सामग्री, आँकड़ों या सूचनाओं को कहते हैं जो कि अनुसन्धानकर्ता (अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा) स्वयं प्राप्त की जाती है अर्थात प्रथम स्तर पर एकत्रित सामग्री ही प्राथमिक सामग्री कहलाती है। सामाजिक अनुसन्धान में यद्यपि कुछ प्रलेखों इत्यादि से भी सामग्री एकत्रित की जाती है परन्तु उसे प्राथमिक सामग्री में सम्मिलित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसे अनुसन्धानकर्ता ने स्वयं प्रथम स्तर पर संकलित नहीं किया होना । सरल शब्दों, में प्राथमिक स्रोतों द्वारा एकत्रित सामग्री प्राथमिक सामग्री कहलाती है। प्राथमिक स्रोतों को कई बार क्षेत्रीय स्रोत भी कहा जाता है। पीटर एच० मन (Peter H. Mann) के अनुसार, ‘प्राथमिक स्रोत हमें प्रथम स्तर पर संकलित सामग्री प्रदान करते हैं अर्थात जिन लोगों ने उसे एकत्रित किया है ये उनके द्वारा ही प्रस्तुत की गई सामग्री के मौलिक स्वरूप (कुलक) हैं।’

प्राथमिक सामग्री के गुण (Merits of Primary Data)

सामाजिक अनुसन्धान में हमारा प्रयास यथासम्भव प्राथमिक सामग्री को एकत्रित करना है क्योंकि प्रथम स्तर पर संकलित सामग्री या आँकड़े अधिक विश्वसनीय होते हैं। प्राथमिक सामग्री एवं प्राथमिक स्रोतों के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं-

1. विश्वसनीयता (Relability)- प्राथमिक सामग्री अधिक विश्वसनीय होती है क्योंकि इसे अधिकांशतः अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं प्रत्यक्ष रूप में एकत्रित किया जाता है। यदि इसमें किसी प्रकार की कमी है तो वह केवल अनुसन्धानकर्ता के पक्षपात के कारण है।

2. वास्तविकता (Naturalness)– प्राथमिक सामग्री अधिक स्वाभाविक अर्थात वास्तविक होती है क्योंकि इसे अनुसन्धानकर्ता द्वारा प्रथम स्तर पर एकत्रित किया जाता है। इससे हमें घटना के वास्तविक रूप का पता चल जाता है।

3. व्यवहारिक उपयोगिता (Practical utility)– प्राथमिक सामग्री अधिक व्यावहारिक होती है क्योंकि इसे स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा अनुसन्धान की समस्या के उद्देश्यों के अनुकूल ही एकत्रित किया जाता है।

4. नवीनता (Newness)- प्राथमिक सामग्री में नवीनता का गुण पाया जाता है क्योंकि इसे अनुसन्धान क्षेत्र में जाकर स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा एकत्रित किया जाता है। प्रत्यक्ष सम्पर्क होने के कारण बहुत सी ऐसी बातों का पता चल जाता है जो कि द्वितीयक स्रोतों से नहीं मिल पाती।

प्राथमिक सामग्री के अवगुण

यद्यपि प्राथमिक सामग्री सामाजिक अनुसन्धान की आधारशिला है, फिर भी इसके कुछ अवगुण है। इसके प्रमुख अवगुण निम्नांकित हैं-

1. अभिनति (Bias)- प्राथमिक सामग्री के संकलन में अनुसन्धानकर्ता द्वारा पक्षपात की सम्भावना अधिक रहती है। वह अपने विचारों अथवा मूल्यों के अनुरूप सामग्री को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर सकता है।

2. साधनों की आवश्यकता (Need for resources)- प्राथमिक सामग्री के संकलन में अधिक साधनों की आवश्यकता होती हैं क्योंकि इसके संकलन में अधिक समय एवं धन व्यय होता है।

3. केवल समकालीन घटनाओं का अध्ययन (Study of contemporary events only)- प्राथमिक सामग्री केवल समकालीन घटनाओं के अध्ययन में ही उपयोगी हैं। भूतकालीन घटनाओं के बारे में प्राथमिक सामग्री एकत्रित करना कठिन कार्य है।

द्वितीयक सामग्री (Secondary Data)

द्वितीयक स्रोतों द्वारा एकत्रित सामग्री को द्वितीयक सामग्री कहा जाता है। इसे अनुसन्धानकर्ता दूसरे के प्रयोग अथवा अनुसन्धान से प्राप्त करता है अर्थात इसे स्वयं अनुसन्धानकर्ता संकलित नहीं करता। इसमें प्रायः लिखित प्रलेखों को सम्मिलित किया जाता है इसलिए इसे कई बार प्रलेखीय सामग्री अथवा ऐतिहासिक सामग्री भी कह दिया जाता है तथा इसके स्रोतों को प्रलेखीय स्रोत (Documentary sources) अथवा ऐतिहासिक स्रोत (Histrical sources) भी कहते हैं। पीटर एच० मन (Pater H. Mann) के अनुसार, ‘प्राथमिक स्रोतों को द्वितीयक स्रोतों, जिनके द्वारा द्वितीयक स्तर पर सामग्री एकत्रित की जाती है अर्थात सामग्री का संकलन प्रथम स्तर पर न होकर अन्य लोगों की मूल सामग्री से किया जाता है, से भिन्न माना जाता है।’

द्वितीयक सामग्री के गुण

सामाजिक अनुसन्धान में प्राथमिक एवं द्वितीयक, दोनों प्रकार की सामग्री एकत्रित की जाती है। द्वितीयक सामग्री का अनुसन्धान में अपना अलग महत्व है। द्वितीयक सामग्री एवं द्वितीयक स्रोतों के प्रमुख गुण निम्नांकित हैं-

(1) पक्षपात से बचाव (Free from blas)- द्वितीयक स्रोतों के प्रयोग में अनुसन्धानकर्ता द्वारा किसी प्रकार के पक्षपात करने की सम्भावना तथा सामग्री को अपने मूल्यों के अनुरूप तोड़-मरोड़ लेने की सम्भावना बहुत ही कम होती है।

(2) भूतकालीन घटनाओं का अध्ययन (Study of past events)- द्वितीयक स्रोत एवं द्वितीयक सामग्री भूतकाल की घटनाओं के अध्ययन में भी सहायक है क्योंकि भूतकालीन घटनाओं का क्षेत्रीय अध्ययन सम्भव नहीं होता।

(3) समय एवं धन की बचत (Saving of time and money)- द्वितीयक स्रोत अनुसन्धानकर्ता के समय, श्रम एवं पैसे के व्यर्थ प्रयोग से बचत करते हैं। यदि सूचनाएँ पहले से ही लिखित रूप में उपलब्ध है तो फिर से उसके संकलन का कोई आवश्यकता नहीं है।

(4) गोपनीय तथ्यों की प्राप्ति (Collection of confidential information)-द्वितीयक स्रोतों, विशेष रूप से डायरियों तथा आत्मकथाओं से ऐसे तथ्यों के बारे में भी ज्ञान प्राप्त हो | जाता है जिनके बारे में प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जा सकती।

(5) असम्भव सूचनाओं का संकलन (Collection of impossible ( information) – द्वितीयक स्रोत असम्भव सूचनाओं के संकलन में सहायता प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए सरकारी रिपोर्ट, पुलिस एवं कचहरी के रिकॉर्ड इत्यादि हमें कई बार अत्यन्त उपयोगी व दुर्लभ सूचनाएँ भी प्रदान करते हैं।

द्वितीयक सामग्री के अवगुण

यद्यपि द्वितीयक स्रोत एवं सामग्री सामाजिक अनुसन्धान में अनुसन्धानकर्ता को महत्वपूर्ण योगदान देती है, फिर भी इसके प्रयोग के कारण अनुसन्धान में अनेक दोष आ जाते हैं। द्वितीयक सामग्री अथवा स्रोतों के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं-

1. पुनर्परीक्षण कठिन (Verfication differcult)- द्वितीयक स्रोतों द्वारा उपलब्ध सामग्री या आँकड़ों की पुनर्परीक्षा करना सम्भव नहीं है क्योंकि इनमें जिस घटना का वर्णन है वह अनुसन्धानकर्ता की मर्जी से पुनर्घटित नहीं हो सकती है।

2. कम विश्वसनीय (Less reliable)- द्वितीयक स्रोत एवं सामग्री कम विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इसकी जाँच करना सम्भव नहीं है।

3. लेखक की अभिमति (Writer’s bias)- सभी द्वितीयक प्रलेख लेखकों के विशिष्ट दृष्टिकोणों द्वारा सम्भावित हो सकते हैं और इसीलिए हो सकता है कि इनसे अनुसन्धानकर्ता को वास्तविकता का पूता पता न चले।

4. अपर्याप्त सूचना (Insufficient information)– सामान्यतः द्वितीयक स्रोतों द्वारा उपलब्ध सूचना अपर्याप्त होती है क्योंकि इन्हें अनुसन्धान के उद्देश्य से अथवा अनुसन्धानकर्ताओं द्वारा ही संकलित नहीं किया जाता है। बहुत-सी काल्पनिक बातों का भी हो सकता है। इन स्रोतों में समावेश किया गया हो।

प्राथमिक एवं द्वितीयक सामग्री में अन्तर

सामाजिक अनुसन्धान में अनुसन्धान समस्या की प्रकृति के आधार पर प्राथमिक एवं द्वितीयक सामग्री का संकलन किया जाता है। प्राथमिक एवं द्वितीयक सामग्री में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

1. संकलन (Collection) – प्राथमिक सामग्री का संकलन स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा किया जाता है, जबकि द्वितीयक सामग्री प्रलेखों के रूप में उपलब्ध होती है। प्राथमिक सामग्री का संकलन अध्ययन-क्षेत्र में जाकर किया जाता है, जबकि द्वितीयक सामग्री प्रलेखों के रूप में पुस्तकालय में उपलब्ध होती है।

2. मौलिकता तथा विश्वसनीयता (Originality and reliablity)– प्राथमिक सामग्री द्वितीयक सामग्री की अपेक्षा अधिक मौलिक एवं विश्वसनीय होती है क्योंकि इसका स्वयं अनसन्धानकर्ता द्वारा क्षेत्र अध्ययन (आनुभाविक अध्ययन) के आधा पर संकलन किया जाता है।

3. स्रोत (Sources)– प्राथमिक सामग्री का संकलन अवलोकन, साक्षात्कार तथा अनुसूची एवं प्रश्नावली द्वारा किया जाता है। जबकि द्वितीयक सामग्री का संकलन लिखित प्रलेखों से अन्तर्वस्तु विश्लेषण (content analysis) द्वारा किया जाता है।

4. धन तथा समय (Money and time) – प्राथमिक सामग्री के संकलन में धन तथा समय अधिक लगता है, जबकि द्वितीयक सामग्री के संकलन में कम।

5. पुनर्परीक्षण (Verfication) – प्राथमिक सामग्री के बारे में यदि किसी प्रकार का सन्देश हो तो इसे पुनर्परीक्षण द्वारा दूर किया जा सकता है। सामान्यतः द्वितीयक सामग्री की जाँच करना सम्भव नहीं है।

6. सूचनाओं की पर्याप्तता (Sufficiency of information) – प्राथमिक सामग्री का संकलन अनुसन्धानकर्ता द्वारा समस्या के विभिन्न पहलुओं को सामने रखकर किया जाता है, जबकि द्वितीयक सामग्री के लिए हमें प्रलेखों पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रलेखों में उपलब्ध सूचनाएं अपर्याप्त होती हैं क्योंकि इन्हें अनुसन्धानकर्ता के उद्देश्य के अनुरूप तैयार नहीं किया जाता है।

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