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सामाजिक अनुसंधान का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति, उद्देश्य

सामाजिक अनुसंधान का अर्थ
सामाजिक अनुसंधान का अर्थ

सामाजिक अनुसंधान का अर्थ क्या है?

सामाजिक अनुसंधान का अर्थ- जिज्ञासा मनुष्य की प्रमुख विशेषता हैं। वह सदैव अपने चारों ओर के वातावरण के बारे में अधिक से अधिक जानने के लिये प्रयत्शील रहता है। मनुष्य की यह जिज्ञासा एक अनवरत प्रवृत्ति है और अपनी ज्ञान-पिपासा शांत करने का उसका प्रयत्न भी अंतहीन है।

मनुष्य अपनी खोजी प्रवृत्ति के आधार पर ज्ञान प्राप्त करता है, ताकि अपने दैहिक और सामाजिक पर्यावरण को न सिर्फ समझ सके बल्कि उसे नियंत्रित और परिवर्तित कर अपनी आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सके। मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति ही अनुसंधान का मूल आधार है। प्रत्येक जिज्ञासा का प्रारम्भ “प्रश्नों” से होता है और उसकी शांति उससे प्राप्त उत्तरों से। मोटे तौर पर अनुसंधान का मुख्य प्रयोजन है, वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा प्रश्नों का उत्तर खोजना। शाब्दिक रूप से “अनुसंधान का अर्थ है बार-बार खोज करना। वैज्ञानिक जगत में इस तरह अनुसंधान का अर्थ होता है नवीन ज्ञान की खोज एवं सत्यापन की एक व्यवस्थित प्रणाली।

अनुसंधान का प्रयोजन वैज्ञानिक पद्धति द्वारा प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना है। वैज्ञानिक प्रणाली इसलिए प्रयुक्त की जाती है ताकि एकत्र किए गए तथ्य या सूचनाएँ विश्वसनीय, पक्षपातरहित एवं तर्कसंगत हों। यद्यपि यह गारंटी नहीं भी दी जा सकती है कि प्रत्येक अनुसंधान जो सामग्री प्रदान करता है वह सदैव तर्कसंगत आश्वासन देती है।

सामाजिक अनुसंधान की परिभाषा 

सामाजिक घटनाओं को समझने उनके सत्यापन एवं परिमार्जन तथा सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए व्यवस्थित वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग ही सामाजिक अनुसंधान है। इस संबंध मं विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भी समान विचार प्रस्तुत किए हैं। पी० वी० यंग ने सामाजिक अनुसंधान की परिभाषा देते हुए कहा है “सामाजिक अनुसंधान एक वैज्ञानिक योजना है, जिसका उद्देश्य तार्किक तथा क्रमबद्ध पद्धतियों द्वारा ननीव एवं पुराने तथ्यों का अन्वेषण एवं उनमें पाये जाने वाले अनुक्रम अंतःसम्बन्धों, कारणात्मक व्याख्याओं तथा उनको संचालित करने वाले स्वाभाविक नियमों का विश्लेषण करना है।”

मोजर के अनुसार- “सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए किए गए व्यवस्थित अनुसंधान को हम सामाजिक अनुसंधान कहते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि-

(1) सामाजिक अनुसंधान मुख्यतः वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किया गया अध्ययन है। वैज्ञानिक पद्धति के कारण प्राप्त तथ्य एवं निष्कर्ष तर्कसंगत, विश्वसनीय एवं पक्षपात रहित होते है।, तथापि वह हमेशा सत्य नहीं भी हो सकता है।

(2) सामाजिक अनुसंधान का सम्बन्ध सामाजिक घटनाक्रम, मानव-व्यवहार या सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से है।

(3) सामाजिक अनुसंधान में नवीन तथ्यों की खोज एवं निष्कर्षो का पुनः परीक्षण एवं सत्यापन किया जाता है। वस्तुतः विज्ञान के अंतर्गत न तो ज्ञान में स्थिरता है और न ही ज्ञान की खोज का अंत। सामाजिक घटनाओं के संदर्भ में यह बात और महत्वपूर्ण है, क्योंकि मानवसमाज एवं मनुष्य के व्यवहार में सदैव परिवर्तन होते रहते हैं। सामाजिक अनुसंधान द्वारा न केवल नवीन सामाजिक पक्षों का विश्लेषण कर नए नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है बल्कि पूर्वस्थापित तथ्यों का भी सत्यापन किया जाता है।

(4) सामाजिक अनुसंधान का लक्ष्य वैज्ञानिक विधि द्वारा उपकल्पनाओं का परीक्षण, विभिन्न सामाजिक घटनाओं के पारस्परिक एवं कार्य-कारण सम्बन्ध की व्याख्या तथा घटनाओं के बारे में सिद्धांत का प्रतिपादन कर उनकी व्याख्या एवं उनके सम्बन्ध में पूर्वानुमान प्रस्तुत करना है। सामाजिक शोधकर्ता इस प्राप्त जानकारी के आधार पर घटनाओं पर नियंत्रण भी कर सकता है।

सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति

सामाजिक अनुसन्धान द्वारा सामाजिक तथ्यों से सम्बन्धित समस्याओं का वैज्ञानिक तरीके से निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सामाजिक अनुसन्धान अपने स्वरूप (प्रकृति) में वैज्ञानिक है। इसके द्वारा वैज्ञानिक विधि के माध्यम से सामाजिक जीवन का अध्ययन, विश्लेषण एवं प्रत्यक्षीकरण किया जाता है। इसकी प्रकृति यह भी स्पष्ट करती है कि यह केवल नवीन तथ्यों की खोज तक ही अपने को सीमित नहीं रखता, बल्कि पुराने तथ्यों एवं घटनाओं के सम्बन्ध में भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए सामाजिक अनुसन्धान किया जाता है। इसके आधार पर पूर्व स्थापित सिद्धान्तों का सत्यापन एवं पुनः परीक्षण सम्भव होता है।

सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्य

सामाजिक अनुसन्धान का कार्यक्षेत्र सामाजिक घटनाक्रम है। सामाज वैज्ञानिक जब अनुसंधान करता है, तब उसका लक्ष्य सामाजिक वास्तविकता की खोज करना होता है। एक सामाजशास्त्रीय अनुसंधान का उद्देश्य होता है-(क) समस्याओं का समाधान, (ख) पूर्व व वर्तमान सिद्धान्तों का परीक्षण एवं उनका परिमार्जन।

प्रत्येक अनुसंधान किसी प्रश्न या समस्या के आधार पर प्रारंभ किया जाता है। “क्यों’, “क्या”, “कैसे” आदि प्रश्नसूचक शब्द अनुसंधान के प्रारंभिक स्तर हैं। ये प्रश्न मुख्यतः दो प्रकार के उद्देश्य से सम्बद्ध होते हैं। प्रथम उद्देश्य- शैक्षणिक सैद्धांतिक एवं द्वितीय-व्यवहारिक। इस आधार पर सामाजिक अनुसंधान के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं -(क) सैद्धांतिक उद्देश्य और (ख) व्यवहारिक या उपयोगितावादी उद्देश्य।

सैद्धान्तिक उद्देश्य

“जहोदा” ने लिखा है कि किसी भी शोध प्रश्न एवं उसके हल की प्राप्ति के पीछे एक प्रमुख उद्देश्य बौद्धिक या शैक्षणिक होता है, जो “ज्ञान के लिए ज्ञान” के सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। वस्तुतः किसी भी अनुसंधान का मौलिक उद्देश्य ज्ञान की वृद्धि है। मनुष्य के ज्ञान की पिपासा बहुत प्रबल होती है, जिसकी संतुष्टि के लिए वह केवल “ज्ञान” को लक्ष्य बनाकर शोध करता है। सामाजिक अनुसंधान के शैक्षणिक उद्देश्य पर इस दृष्टि से प्रकाश डालने पर इसके अग्रलिखित प्रमुख लक्ष्य स्पष्ट होते हैं-

(1) नवीन तथ्यों की खोज एवं प्राचीन तथ्यों का सत्यापन तथा पुनः परीक्षण।

(2) विभिन्न सामाजिक घटनाओं के बीच परस्पर सम्बन्धों की खोज- सामाजिक संरचना के अन्तर्गत प्रत्येक घटना या इकाई एक-दूसरे से प्रकार्यात्मक रूप से सम्बद्ध होती है। प्रत्येक घटना एक-दूसरे से कार्य-कारण सम्बन्ध रखती है। शोधकर्ता का एक प्रमुख सैद्धान्तिक उद्देश्य घटनाओं के बीच स्थित इस प्रकार्यात्मक तथा कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज करना है।

(3) सार्वभौम नियमों की खोज- सामाजिक घटनाएँ अव्यवस्थित नहीं होती हैं। प्राकृतिक घटनाओं की भाँति वे भी स्वाभाविक नियमों पर आधारित होती हैं। सामाजिक शोध का प्रमुख सैद्धान्तिक उद्देश्य इन्हीं स्वाभाविक नियमों की खोज एवं स्थापना है जो सामाजिक घटनाओं को निर्देशित, नियमित एवं नियंत्रित करती है।

(4) अवधारणाओं एवं सिद्धांतों का निर्माण एवं विकास- सामाजिक अनुसंधान का एक प्रमुख शैक्षणिक उद्देश्य सामाजिक वास्तविकता पर आधारित वैज्ञानिक अवधारणाओं एवं सिद्धांतों का विकास करना है। यह वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान एवं निरंतर वृद्धि के लिये आवश्यक है।

(ख) व्यवहारिक या उपयोगितावादी उद्देश्य

सामाजिक अनुसंधान का दूसरा प्रमुख उद्देश्य व्यावहारिक या उपयोगितावाद है। अर्थात् “ज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि उसका उपयोग कल्याणकारी कार्य या प्रगति के लिए भी किया जा सकता है। पी. वी. यंग ने स्पष्ट करते हुए लिखा-“सामाजिक अनुसंधान का प्राथमिक उद्देश्य, तात्कालिक अथवा सुदूर, सामाजिक जीवन को समझना तथा उसके द्वारा सामाजिक व्यवहार पर अधिक नियंत्रण प्राप्त करना है।” इस दृष्टि से सामाजिक शोध का व्यवहारिक उद्देश्य इसके प्राथमिक सैद्धांतिक उद्देश्य का ही विस्तार है। जब समाज विज्ञानी सामाजिक घटनाओं के बारे में ज्ञान का विस्तार कर लेता है तब वह उसके आधार पर सामाजिक घटनाओं का नियंत्रण कर कल्याणकारी एवं प्रगतिवादी लक्ष्यों को भी प्राप्त कर सकता है।

सामाजिक अनुसंधान की उपयोगिता अथवा उसका व्यावहारिक लक्ष्य है-

(1) प्राप्त ज्ञान के आधार पर सामाजिक समस्याओं का समाधान करना।

(2) सामाजिक विज्ञान के लिए योजना की आधार सामग्री एवं रूपरेखा प्रदान करना।

(3) सामाजिक संगठन एवं सामाजिक एकता कायम रखने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करना।

(4) सामाजिक घटनाओं के नियंत्रण के लिए उपयुक्त सैद्धांतिक विश्लेषण प्रस्तुत करना।

सामाजिक अनुसंधान के उपरोक्त दोनों उद्देश्य (सैद्धांतिक व व्यावहारिक) रहे हैं। यद्यपि बहुत बार यह समझा जाता है कि सामजिक अनुसंधान के शैक्षणिक एवं व्यावहारिक उद्देश्य एक-दूसरे के विपरीत या विरोधी हैं, लेकिन वास्तव में ये दोनों एक-दूसरे के पूरक है। सामाजिक विज्ञानों में यह तथ्य और भी महत्वपूर्ण है। एक ओर तो सामाजिक अनुसंधान का एक विज्ञान के रूप में यह उत्तरदायित्व होता है कि वह ऐसे सिद्धांतों एवं अवधारणाओं का विकास करे, जिससे मानव-व्यवहार को समझा जा सके, उसके बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकें। दूसरी ओर इसका एक सामाजिक दायित्व यह भी है कि मानव व्यवहार को नियंत्रित एवं नियमित भी किया जाए, जिससे विभिन्न समस्याओं का समाधान हो सके एवं सामाजिक विकास तथा प्रगति के लक्ष्य की प्राप्ति हो।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दोनों उद्देश्य सामाजिक अनुसंधान हेतु आवश्यक है एक के अभाव में दूसरे की प्राप्ति संभव नहीं है।

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