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परिधान रचना में संतुलन का अर्थ, परिभाषा, महत्व, प्रकार, परिधान में संतुलन का महत्व

परिधान रचना में संतुलन का अर्थ
परिधान रचना में संतुलन का अर्थ

परिधान रचना में संतुलन का अर्थ

संतुलन स्थिरता का परिचायक है। यह गुण हमें आकृतियों का बराबर बंटन एवं आयाम या स्थान के उचित विभाजन करके प्राप्त होता है। आकृतियों की संख्या, उनकी दिखाएँ व प्रयुक्त रंग, संतुलन या बैलेंस का भाव दर्शाते हैं। आकृतियों को क्रमवार रखना ही सन्तुलन स्थापित करता है।

संतुलन की परिभाषा

सन्तुलन उसी प्रकार कार्य करता है जिस प्रकार सी-सा। जब यह सन्तुलन होता है तो इसके दोनों ओर समान भार होता है। अमसान भार होने पर इसमें संतुलन की स्थिति आ जाती है। संतुलन की परिभाषा इस प्रकार है –

1. रट के अनुसार, “स्थिरता, विश्राम और संतुलन की भावना केन्द्रीय बिन्दु के दोनों ओर समान आकर्षण का परिणाम है।”

संतुलन भिन्न-भिन्न तत्वों द्वारा प्राप्त किया जाता है। जैसे रंग पोत, बागुना प्रकाश व भार।

2. गोल्डस्टेन एवं गोल्डस्टेन के अनुसार, ” संक्षेप में संतुलन विश्राम या स्थिरता है। यह विश्रामदायक प्रभाव आकार और रंगों को केन्द्र के आस पास इस प्रकार समूहबद्ध करके प्राप्त किया जा सकता है, जिससे केन्द्र में दोनों ओर बराबर आकर्षण रहे।”

3. क्रेय और रश के अनुसार, “संतुलन डिजाइन का यह सिद्धान्त है जो कि विश्राम और तृप्ति का भाव उत्पन्न करता है।”

सन्तुलन का महत्व

परिधान में संतुलन इस कारण से उत्पन्न किया जा ताकि उसके प्रत्येक भाग में संतोषजनक एवं सही सम्बन्ध स्थापित हो सके। यदि परिधान में नमूने के तत्व रेखा, स्वरूप, स्थान, आकार, रंग तथा बनावट सन्तुलित अवस्था में होंगे तो नमूने में सुखद अनुरूपता पायी जायेगा।

संतुलन के प्रकार

केन्द्र के आधार के दोनों ओर आकर्षण की मात्रा पर संतुलन के भिन्न-भिन्न प्रकार किये जाते हैं। संतुलन दो प्रकार का होता है-

(1) औपचारिक या सममितीय संतुलन- यदि केन्द्र के दोनों ओर वस्तुएँ समान हों या आकार में करीब-करीब समान हों और देखने पर समान मात्रा में आकर्षण उत्पन्न करते हों तो इस प्रकार का संतुलन औपचारिक संतुलन कहलाता है। जब केन्द्र के दोनों ओर वस्तुएँ एक जैसी होती हैं तो इसी संतुलन को सममितीय संतुलन भी कहा जाता है। औपचारिक संतुलन शान्त और सौम्य होता है तथा स्पष्टता का भाव प्रस्तुत करता है। जब केन्द्र के दोनों ओर वस्तुएँ समान नहीं होती, किन्तु वह बराबर मात्रा में आकर्षण उत्पन्न करती है तो इसे स्पष्ट संतुलन कहा जाता है।

(2) अनौपचारिक या असमितीय संतुलन- यदि वस्तुएँ केन्द्र से भिन्न-भिन्न दूरी पर व्यवस्थित हैं और एकसमानमात्रा में आकर्षित नहीं करती तो यह अनौपचारिक या असममितीय संतुलन कहलाता है। कई बार बड़ी-बड़ी वस्तु केन्द्र के पास और छोटी वस्तु केन्द्र से थोड़ी दूर पर व्यवस्थित करने पर भी इस प्रकार का संतुलन देखा जाता है।

परिधान में संतुलन का महत्व

जिस प्रकार चित्रकार अपना चित्र केनवास पर व्यवस्थित करता है उसी प्रकार परिधान सिलने वाला व्यक्ति परिधान के विभिन्न तत्वों जैसे बाँहे, योक, स्कर्ट, पॉकेट आदि के मध्य संतुलन स्थापित करता है। परिधान में औपचारिक संतुलन का प्रयोग किया जाये या अनौपचारिक संतुलन का यह निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है।

(1) वस्त्र निर्माण करने वाला व्यक्ति जिस काल में रह रहा है उस समय की भावना।

(2) जिस उपयोग के लिए यह परिधान बनाया जा रहा है।

(3) जिन व्यक्तियों के लिए वह परिधान बनाया जा रहा है उन व्यक्तियों के विचार।

(4) वस्त्र निर्माता का स्वंय का व्यक्तित्व।

अनौपचारिक संतुलन में औपचारिक संतुलन की अपेक्षा अधिक घनिष्ठता होती है। औपचारिक संतुलन में अधिक स्वतंत्रता एवं भिन्नता होती है। यह आवश्यक नहीं है कि परिधान के सभी भाग औपचारिक संतुलन में व्यवस्थित किये जाए। औपचारिक व अनौपचारिक संतुलन के सम्मिश्रण का भी उपयोग किया जा सकता है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। इस प्रकार का संतुलन मिश्रित प्रभाव उत्पन्न करता है जो कि औपचारिक और अनौपचारिक के मध्य स्थायित्व उत्पन्न करता है।

औपचारिक संतुलन की रचना करना आसान है किन्तु यह अनौपचारिक संतुलन के समान रूचिप्रद दिखाई नहीं देता। यदि कोई ड्रेस एक साइड पर अधिक रूचिप्रद है अपेक्षाकृत दूसरी साइड के तो यह कहा जा सकता है कि डिजाइन असंतुलित है। इस प्रकार के वस्त्रों का फैशन जीवन सामान्यतः थोड़ा ही रहता है। कभी-कभी आकर्षक पिन, फूल या अन्य उपसाधन भी संतुलन उत्पन्न करते हैं और आरामप्रद भाव की अनुभूति प्रदान करते हैं।

लय- लय जैसे संगीत के सप्त सुरों में एक सदृश्य सम्बन्ध होता है, वैसे ही चित्रण कला में बनी आकृतियों में रेखा, आकार, रंग आदि की लयात्मकता प्रतीत होनी चाहिए। आकृतियों के परस्पर दुहराव से छंदगति का भाव उत्पन्न होता है। इसका प्रयोग सिर्फ आलंकारिक व सजावटी न होकर व्यापक है जिसमें कलाकार व रचनाकार की कल्पनाशीलता उजागर होती है।

प्रकृति की हर रचना जैसे फल-फूल, पेड़-पौधे, पत्तियाँ लता व बेलें हमेशा से ही इस लय को दर्शाती हुई विकसित होती है। किसी चित्रण में यदि लय का अभाव हो तो स्वतः ही हमारा ध्यान उसकी सुन्दरता की ओर नहीं जाता, एवं एक आकर्षणहीनता प्रतीत होती है। मनुष्य की आँखे सदैव ही असमानता को देख लेती है। आँखे वहीं उसी बिन्दु पर स्थिर हो जाती है। इस बिन्दु पर आकृतियों के गुणों का विरोधाभास साफ दिखाई देता है।

पुनरावृत्ति का सिद्धान्त एवं प्रभाव ही लयात्मकता का परिचायक है। वस्त्र के ड्रेप, तह या मोड़ आदि भी इसे निरूपित करते हैं। वस्त्र की दृश्य-अदृश्य रेखाओं का संचालन इन पर पड़ने वाले फील्ड, क्रीज एवं छाया प्रकाश के प्रभाव में होता है।

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