भारत की परम्परागत कढ़ाई में लखनऊ की चिकनकारी
भारत की परम्परागत कढ़ाई – मोहनजोदड़ों की खुदाई में ताँबे की सुई तथा कढ़ाई किए हुए परिधानों का चित्रण मिलता है।
अकबर के समय से ही कढ़ाई वाले वस्त्रों का प्रयोग होता रहा है। मुगलकाल की कढ़ाई में फारसी कढ़ाई कला का प्रभाव देखा जा सकता है। मुगलों तथा पहाड़ी जातियों में कढ़ाई स्त्रियाँ, पुरूष दोनों ही करते थे।
भारत की कढ़ाई कला विश्व विख्यात रही है, वस्त्रों एवं परिधानों पर हीरे, मोती, सोने, चाँदी के तारों के नमूने उकेरे जाते थे। ऐसे वस्त्र बड़े ही आकर्षक प्रतीत होते थे ऐसा मालूम पड़ता था जैसे कि सूर्य, चन्द्रमा एवं तारे पूरे वस्त्र पर उतर आए हैं।
इन खूबसूरत वस्त्रों की माँग विश्व के प्रत्येक कोने में हुआ करती थी। कढ़ाई का अधिकतर काम रेशम एवं बहुमूल्य सिल्क के वस्त्रों पर ही किया जाता था। जिन पर प्राकृतिक नमूनों का चित्रण, मानव आकृतियाँ देवी-देवता, पशु-पक्षी आदि काढ़े जाते थे। कढ़ाई के कार्य में पहाड़ी लोग अधिक निपुण होते थे। कढ़ाई का कार्य स्त्री एवं पुरूष दोनों ही करते थे।
इस प्रकार विभिन्न देशों में विभिन्न सांस्कृतियों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं की मेल जोल संस्कृति से कढ़ाई कला दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करती गई। अतः भारत में कुछ प्रसिद्ध कढ़ाई कला निम्न प्रकार हैं-
लखनऊ की चिकनकारी
उत्तर प्रदेश की चिकनारी मुगलकाल से आज तक चली आ रही है। मुगलकाल में यह कला दिल्ली, रायपुर, लखनऊ में प्रमुखता से प्रचलित थी, ऐसा माना जाता है कि चिकनकारी का प्रचलन मोहम्मद शेरखान द्वारा किया गया। लखनऊ में आज भी मोहम्मद शेरखान की मजार पर कारीगर दर्शन करने जाते हैं।
चिकनकारी एक प्राचीन कला मानी जाती है। इसके उद्गम से सम्बन्धित कई कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें एक कथानुसार मुर्शिदाबाद की राजकुमारी सिलाई, बुनाई एवं कढ़ाई कला में अत्यन्त निपुण थी। जब राजकुमारी की शादी ओथ के नवाब से हुई तो उसने अपने पति के लिए चिकनकारी से एक टोपी बनाकर भेंट की जो कि मलमल की बनी थी नवाब टोपी से बड़े ही प्रसन्न हुए और तभी से चिकनकारी कला का विकास हुआ। चिकनकारी अत्यन्त बारीक, कोमल होती है पहले समय में यह केवल श्वेत मलमल पर ही बनाई जाती थी परन्तु आजकल चिकनकारी जौरजट, औरगेन्डी, नेट, सिल्क, वॉयल, शिफॉन आदि पर भी बनाई जाती है।
चिकनकारी बनाने के लिए सर्वप्रथम नमूने वस्त्र पर ट्रेस कर लिए जाते हैं तत्पश्चात् मुख्यतः साटिन, स्टेम पूरी हेरिंग बोन, बखिया आदि टांकों से कसीदा निकाला जाता है। जाली टाँकों का कार्य अधिकतर साड़ियों पर किया जाता है। पुरुषों के कुर्ते, टोपी, कमीज, सूट, साड़ियों, दुपट्टे, रूमाल, ब्लाउज आदि चिकनकारी कढ़ाई से बहुत ही खूबसूरत लगते हैं लखनऊ की चिकनकारी में मुख्यतः निम्न प्रकार के टाँके निकाले जाते हैं –
1. जाली – कसीदा निकलाने वाले वस्त्र में नमूने के अनुसार धागे को खींचकर तथा कभी-कभी छोटे छिद्रों को चारों ओर से सिलाई करके कस कर बाँध दिया जाता है। जाली अधिकतर साड़ियों पर बनाई जाती है।
2. टेपची – इस प्रकार के टाँके वस्त्रों पर करने में समय अधिक लगता है। यह साधारण कच्चा टाँका अथवा डार्निक टाँका होता है। इसमें सीधी रेखाओं का उपयोग करके फूल-पत्ती आदि बनाई जाती है।
3. मूरी- गाँठों वाले टाँकों को मूरी कहा जाता है। यह भी बहुत ही लोकप्रिय कला है। इसमें गाँठे अत्यन्त सूक्ष्म होती है और विशेष रूप से गाँठों से नमूने के भराव का काम किया जाता है।
मूरी टाँकों से चावल के दाने गेहूँ की बाली जैसे नमूने बनाए जाते हैं।
4. फंदा – फंदा फ्रेंच नॉट टाँके का दूसरा रूप है। यह टाँका लगभग मूरी के समान ही होता है परन्तु इसमें काज वाले टाँकों से नमूनों में छोटे-छोटे छिद्र बनाए जाते हैं।
5. बखिया – वस्त्रों पर सबसे अधिक बखिया टाँके किए जाते हैं अर्थात् चिकनकारी का सबसे लोकप्रिय टाँका बखिया है जिसमें शेडों कार्य किया जाता है।
6. खटाऊ- लखनऊ की चिकनकारी में खटाऊ टाँके से सूक्ष्म एवं बारीक कढ़ाई की जाती है। यह टाँका चपटा होता है वस्त्र की उल्टी तरफ से हेरिंगबोन टोका निकाला जाता है।
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