सन्देश का अर्थ (संचार के तत्व के रूप में सन्देश)
सन्देश का अर्थ (Message in Hindi)- प्रत्येक संचारक के पास ग्रहणकर्त्ता को प्रेषित करने हेतु जो सन्देश होता है, उसके पीछे एक निहित उद्देश्य या लक्ष्य भी होता है। प्रसार कार्य के अन्तर्गत ये उद्देश्य शैक्षिक महत्व के होते हैं तथा ग्रहणकर्ता तक सूचनाएँ प्रसारित करने से सम्बन्धित होते हैं। संचारक के पास कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ तथा जानकारियाँ होती हैं जिन्हें वह ग्रहणकर्त्ता तक इस उद्देश्य के साथ पहुँचाना चाहता है कि वे उन्हें ग्रहण करके अपना लें। प्रेषित सन्देश तभी सफल माना जाता है जब ग्रहणकर्त्ता उसे अपनी आवश्यकता समझे और अपनी समस्या के निदान स्वरूप उसे स्वीकार ही नहीं कररे, वरन् उससे सन्तुष्ट भी हो। डॉ. रणजीत सिंह के अनुसार एक अच्छे सन्देश को प्रामाणिक, सुस्पष्ट, व्यापक तथा ग्रहणकर्त्ता के लिए उपयोगी होना चाहिए (A good messgae is that which is valid, unambiguous, comprehensive and of utility to the receivers) । सन्देश की वैधता के लिए संचारक तथा संचार माध्यम की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता आवश्यक है। यह भी आवश्यक है कि वह ग्रहणकर्त्ता की जिज्ञासाओं की पूर्ति करे तथा उसकी आकांक्षाओं के अनुरूप हों तभी ग्रहणकर्त्ता के साथ संदेश का तालमेल सही बैठता है। सन्देश व्यापक एवं सुस्पष्ट होना चाहिए तथा वाक्य अथवा शब्द अनेकार्थक या द्विअर्थक भी नहीं होने चाहिए। सफल सन्देश वही होता है जो प्रेषक एवं ग्रहणकर्त्ता के लिए समानार्थक हो।
सन्देश की विशेषताएँ (Characteristics of Message)
(i) स्पष्ट एवं सहज- संचारक द्वारा प्रेषित सन्देश समझने में स्पष्ट तथा अनुकरण में सहज होना चाहिए। इससे संचारक के प्रति विश्वसनीयता भी बढ़ती है। जटिल तथा पेचीदा बातें ग्रहणकर्त्ता में सन्देह जगाती हैं तथा वह संपूर्ण एकाग्रता के साथ उन्हें ग्रहण नहीं कर पाता। सन्देश के माध्यम से बतायी गयी प्रणाली पूरी तरह व्याख्यित होनी आवश्यक है।
(ii) लाभप्रद – मानव स्वभाव का एक महत्वपूर्ण पक्ष है किसी भी बात की लाभप्रद् सम्भावनाओं को देखना। मनुष्य हर काम इसी उद्देश्य से करता है। एक कृषक भी नई पद्धति को इसी उद्देश्य से ग्रहण करता है कि उससे उसे अधिक अर्थोपार्जन होगा। एक गृहिणी नये व्यंजन बनाना इसलिए सीखती है क्योंकि ऐसा करने से उसकी पाक दक्षता बढ़ती है और परिवार के सदस्यों को रुचिकर भोजन की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि सन्देश का सटीक और जनोपयोगी होना अनिवार्य है। जिन बातों का जीवन और कार्यक्षेत्र में महत्व नहीं होता, उनकी ओर व्यक्ति ध्यान नहीं देता है।
(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुरूपता- हर व्यक्ति सामाजिक बन्धनों और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, विश्वासों के दायरे में कैद रहता है। ये सब उसके जीवन में आदत का रूप धारण कर लेते हैं। संचारक का यह कर्त्तव्य होता है कि जब कोई सन्देश प्रेषित करे तो व्यक्ति के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वासों पर किसी प्रकार का कुठाराघात न हो। सन्देश में इन मान्यताओं के प्रति अनुरूपता झलकनी चाहिए। इनमें यदि परिवर्तन लाना हो तो परोक्ष ढंग अपनाया जाना चाहिए। किसी भी मान्यता को स्पष्ट रूप से गलत कहना संचार सम्बन्ध में बाधक हो सकता है।
(iv) मितव्ययता – सन्देश द्वारा बतायी गयी विधियाँ या कार्य खर्चीले नहीं होने चाहिए। अनुमान्य लागत पर ध्यान जाते ही ग्रहणकर्ता अपनी रुचि खो बैठते हैं। प्रायः व्यंजन बनाते समय गृहिणी आवश्यक सामग्रियों की सूची का अध्ययन करती है। महँगी सामग्रियों जैसे- बादाम, पिस्ता, घी, खोआ आदि से युक्त व्यंजन बहुत कम गृहिणियाँ बनाती हैं।
(v) विभाज्यता – प्रसार कार्य के अन्तर्गत प्रेषित सन्देश का उद्देश्य पूरे समुदाय या वर्ग के कल्याण में निहित होता है। किन्तु संचारित सन्देश का ग्रहणकर्ता एक अकेला किसान भी हो सकता है। ऐसा देखा गया है कि नये प्रयोगों को लोग वृहत रूप में अधिक लागत लगाकर अपनाने से हिचकिचाते हैं। ऐसी स्थिति में सन्देश की विभाज्यता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नवाचार को छोटे पैमाने पर अपनाकर तथा निष्कर्ष या परिणाम से सन्तुष्ट होना, प्रेषित सन्देश का एक विशिष्ट गुण है, जिसके सहारे लोग बड़े पैमाने पर अनुसरण करने को प्रेरित होते हैं।
(vi) जन सम्बोधित एवं बहुहितकारी- संचारक द्वारा प्रेषित सन्देश सामान्य जन समुदाय को सम्बोधित होना चाहिए तथा उससे पहुँचने वाले लाभों से विराट जन समुदाय लाभान्वित होना चाहिए। एक छोटे वर्ग को लाभ पहुँचाकर जनकल्याण की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। अतः संदेश में बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की भावना निहित होनी चाहिए।
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