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संचार का अर्थ एवं परिभाषा, प्रकार, बाधाएँ और समस्याएँ, तत्व, महत्त्व और विशेषताएँ

संचार का अर्थ
संचार का अर्थ

संचार का अर्थ एवं परिभाषा

संचार का अर्थ एवं परिभाषा- संचार या सम्प्रेषण वह है जिसके द्वारा दो मनुष्य या एक समुदाय के बीच संवाद होते हैं, गति का अहसास होता है जो जीवन के चलायमान होने का प्रतीक है। बिना संवाद के मनुष्य मृतक सा है, बिना संवाद के जीवन है इसकी कल्पना भी असम्भव है। यह संवाद ही है जो जीवन का परिचायक होने के साथ-साथ मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है क्योंकि संवादों का यही आदान-प्रदान उसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने तथा दूसरों की भावनाओं को समझने का अवसर देता है। मनुष्य के मुख से निकले संवाद उसके व्यक्तित्व को बनाते तथा बिगाड़ते हैं। संवाद का सम्प्रेषण मानव जीवन में जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है जिसकी समाप्ति मनुष्य के जीवन के अन्त के साथ होती है। एक गूंगा भी जिसके पास वाणी नहीं होती अपने विचारों की अभिव्यक्ति विभिन्न विधियों से करता है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है वह अपने लिये कोई न कोई तरीका ढूँढ़ ही लेता है।

मनुष्य के जीवन में यह प्रक्रिया जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। शिशु का पहला क्रन्दन इसी का प्रतीक है। इसके बाद भी जब तक वह बोल नहीं पाता अपनी आवश्यकताओं को पूरा करवाने के लिये स्वर संचार माध्यम का ही सहारा लेता है। अलग-अलग आवश्यकताओं पर उसके रोने की शैली, गति, आवाज, सुर में अन्तर होता है। खुशी की किलकारियों में भी अन्तर होता है। नवजात शिशु के समान ही जीवन पर्यन्त मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने के लिए संचार या सम्प्रेषण की मदद लेता है और यह प्रक्रिया मनुष्य की पहली सांस से अन्तिम सांस तक चलती है। इस प्रक्रिया का रुकना मानव जीवन का अन्त है। मनुष्य के विचारों की अभिव्यक्ति तथा आदान-प्रदान प्रक्रिया में समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं। मनुष्य अपने आँख, कान, जीभ, त्वचा तथा नाक को अपने इस कार्य में सहभागी बनाता है। मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों की मदद से दूसरों के विचार अनुभव ग्रहण करता है तथा अपने विचार भावनाएँ तथा अनुभव दूसरों तक पहुँचाता है। यह ग्रहण करने तथा दूसरों तक अपने विचार, अनुभव पहुँचाना ही संचार है। यह दोहरी क्रिया है इसलिये इसे Two way Process कहते हैं। जब भाषा का विकास नहीं हुआ था उस समय एक गूंगे के समान मनुष्य अपनी भाव भंगिमाओं, शरीर के अंगों का प्रयोग कर अपनी बात दूसरों को समझाता था। आज कल्पना करने पर है यह क्रिया मुश्किल लगती है पर जब पूरा मानव समाज उसी विधि का प्रयोग करता था तो उनके अपने संकेत थे। आज गूंगे-बहरे उन्हीं संकेतों का प्रयोग कर अपनी सांकेतिक भाषा में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ भाषा तथा अनेक ललित कलाओं का विकास हुआ जो संचार के माध्यम बने। इन साधनों की मदद से मनुष्य की विचार अभिव्यक्ति भी आसान हो गई। हिन्दी में जिसे हम संचार या सम्प्रेषण कहते हैं उसी का अंग्रेजी रूपान्तर Communication है। आज संचार के बहुत से साधन हैं। एक समय संचार के साधन बोलना (Speech) लिखना (Writing) थे यह शब्द भी पुराने हैं। अतः डिक्शनरी में इसका अर्थ यही मिलता है कि अपने विचारों तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान बोलकर या लिखकर करना। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Communicate शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है To give information, make common अर्थात् अपनी भावनाओं, विचारों तथा उपलब्ध जानकारियों को सर्वमान्य (सबके लिये) बनाकर दूसरों में अभिव्यक्त करना और यह क्रिया सम्प्रेषण या संचार (Communication) है। एक अच्छी शिक्षा विधि में संचार का प्रयोग लाभकारी तथा सकारात्मक परिणाम देता है।

संचार की परिभाषाएँ

ओ. पी. धामा के अनुसार, “सम्प्रेषण वह क्रिया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने ज्ञान, भावनाओं, विचारों तथा सूचनाओं को आपस में बाँटता है।”

डॉ. रणजीत सिंह के अनुसार, “सरल शब्दों में संचार का अर्थ है प्रेषक तथा प्रेषित एक सन्देश के लिये बंधे हों अर्थात् संचार किन्हीं दो व्यक्तियों के मध्य संदेश के सम्प्रेषण (आदान-प्रदान) की प्रक्रिया है।”

डॉ. आर. पी. तिवारी के अनुसार, “संचार जीवन की गतिविधि है और इस गतिविधि के कारण यह जीवन से जटिलता से जुड़ा है। जीवन संचार के बिना अकल्पनीय है इसी कारण कहा जाता है कि संचार जीवन के साथ प्रारम्भ होता है इसका अन्त भी जीवन के साथ ही होता है। अन्य शब्दों में संचार जीवन का संलग्नक है।”

डॉ. एस. सी. दुबे – “संचार समाजीकरण का मुख्य माध्यम है। संचार द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती है। संचार की विभिन्न विधाओं के बिना सामाजिक निरन्तरता बनाये रखने की कठिनाइयों का अनुमान सहज ही किया जा सकता है । समाजीकरण की प्रत्येक स्थिति और इसका हर रूप संचार पर आश्रित होता है। मनुष्य जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी तब बनता है जब वह संचार द्वारा सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूल्यों और व्यवहार के प्रकारों को आत्मसात कर लेता है।”

विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ यही प्रमाणित करती हैं कि संचार एक वह क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्तियों के बीच उनके ज्ञान, विचार, भावनाओं तथा जानकारियों का प्रभावकारी आदान-प्रदान होता है। यह एक आपसी सहमति से होने वाली साझेदारी है। यह साझेदारी दोनों पक्षों के बीच (जानकारी लेने वाले तथा जानकारी देने वाले) बनी रहे इसके लिये यह अत्यनत आवश्यक है कि जो भी संवाद हों वे अर्थपूर्ण हों निरर्थक न हों तथा प्रभावशाली हों। क्योंकि यदि संवादों का अर्थ नहीं होगा तो वे दूसरे पक्ष के लिये किसी लाभ के नहीं होंगे। संचार तभी सफल कहलाता है जब सन्देश देने वाले के भावों को ग्रहण करने वाला उसी अर्थ में ग्रहण करे जो देने वाले का मनोरथ था अन्यथा संचार सफल नहीं हो पाता है। सूचनाएँ देने तथा ग्रहण करने की यह प्रक्रिया दोनों पक्षों या व्यक्तियों को एक-दूसरे के नजदीक लाती है और उन्हें आपस में एक-दूसरे को समझने में मदद करती है। संवाद जो संचार द्वारा प्रेषित किये जाते हैं विधि कोई भी हो वह संवाद तथा संचार तभी सफल होता है जब मनुष्य के आपसी सम्बन्धों तथा मूल्यों को सुरक्षा प्रदान करें क्योंकि संचार प्रक्रिया जीवन की प्रथम सांस से अन्तिम सांस तक चलने वाली प्रक्रिया है।

सम्प्रेषण वह माध्यम है, वह हथियार है जो मानवीय मूल्यों तथा सम्बन्धों को केवल सुरक्षा ही प्रदान नहीं करती सुरक्षा के साथ-साथ मानवीय सम्बन्ध तथा मूल्य स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संचार हमारे कुशल नागरिक बनने में सहायक हैं। यह समाजीकरण का प्रमुख साधन माना गया है। मनुष्य की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के साधन ही संचार साधन हैं। समय के साथ-साथ इसके रूप बदलते गये। संचार माध्यम केवल विचार अभिव्यक्ति के साधन मात्र नही हैं ये हमारी संस्कृति, रीतिरिवाजों को सहेज कर रखते हैं। ये साधन हमारे अस्तित्व को सुरक्षित रखते हैं इसलिये संचार को जीवन माना गया है। उसके बिना जीवन की कल्पना भी फीकी तथा निरर्थक है।

संचार के प्रकार

संचार या सम्प्रेषण चार प्रकार का होता है-

(1) स्वयं से सम्प्रेषण

यदि सम्प्रेषण के इस प्रकार में व्यक्ति जोर-जोर से बोलकर स्वयं से बात करे तो लोग उसे पागल भी कहते हैं, पर पागलपन तथा स्वयं के सम्प्रेषण में अन्तर होता है। हर व्यक्ति स्वयं से सम्प्रेषण करता है। उदाहरणार्थ, यदि हम कुछ गलत कर देते हैं तो अपनी गलती का कारण जानने तथा उसमें सुधार लाने के लिये सोचने की प्रक्रिया में अपने आप से बात करते हैं वह स्वयं से सम्प्रेषण है। अपनी चालू भाषा में हम उसे दिल की आवाज भी कहते हैं। दिल की आवाज हर व्यक्ति के पास है अपनी जाग्रत अवस्था में मनुष्य कुछ न कुछ सोचता रहता है (क्योंकि उसके पास बुद्धि है) तथा स्वयं से बातें करता है। हम प्रसन्न होने पर अपनी खुशी का कारण जानना चाहते हैं दुःखी होने पर दुःख का तथा इसके लिये स्वयं से बातें करते हैं। समस्याओं के समाधान के लिये जब अनेक सुझाव मिलते हैं तो एक समाधान के चुनाव के लिये हम स्वयं से बातें करते हैं यही स्वयं से सम्प्रेषण है।

(2) पारस्परिक सम्प्रेषण

जब हम सामने वाले व्यक्ति से संवादों का आदान-प्रदान करते हैं या यूँ कहें जब दो व्यक्ति के बीच बातचीत होती है तो यह पारस्परिक सम्प्रेषण है। ये दोनों व्यक्ति आमने सामने खड़े होकर, बैठकर या फोन पर इन्टरनेट पर वार्तालाप कर सकते हैं। सम्प्रेषण के इस प्रकार से हम दिनचर्या शुरू करते हैं प्रायः उठकर हम अपने परिवार के सदस्यों का अभिवादन करते हैं। अपने घर आने वाले सदस्यों से बात करते हैं या वे हमसे बात करते हैं। दूसरा व्यक्ति शब्दों द्वारा या शारीरिक क्रिया द्वारा उत्तर देता है यह पारस्परिक सम्प्रेषण है।

(3) सामूहिक सम्प्रेषण

परिवार के साथ खाने की टेबल पर बैठकर टीवी देखते समय सामूहिक विचार विमर्श के समय समस्त सदस्यों का आपसी वार्तालाप सामूहिक सम्प्रेषण है। घर से बाहर जब हम अपने कार्यक्षेत्र में जाते हैं तो अपने साथ काम करने वाले सहयोगी के साथ समूह में वार्तालाप करते हैं जो सामूहिक सम्प्रेषण है। यदि किसी एक सहयोगी से बात कर रहे हैं या किसी एक व्यक्ति को निर्देश दे रहे हैं या एक व्यक्ति केवल हमें निर्देश दे रहा है तो वह पारस्परिक सम्प्रेषण होगा पर यदि निर्देश समूह को दिये जा रहे हैं 5-6 व्यक्ति मिलकर विचार विमर्श कर रहे हैं तो वह सामूहिक सम्प्रेषण होगा।

(4) सामाजिक सम्प्रेषण

अपनी पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक क्रियाओं में हम  अपने समाज के बीच वार्तालाप कर जो सम्बन्ध बनाते हैं वह हमारे समाज विशेष में होता है जिसे सामाजिक सम्प्रेषण कहते हैं। जहाँ हम विशेष विषयों पर विशेष भाषा में भी बात करते हैं।

संचार में बाधाएँ और समस्याएँ (Barriers and Problems)

संगठनों में संचार प्रक्रिया को निम्न बाधाओं और समस्याओं का सामना करना पड़ता है-

अर्थ विषयक बाधाएँ

ये बाधाएँ भाषा सम्बन्धी दिक्कतों से जुड़ी है। ये बाधाएँ संचार प्रक्रिया में प्रयुक्त शब्दों और प्रतीकों की व्यक्तिगत व्याख्याओं में आने वाले अंतर के कारण होती हैं। रूडोल्फ फ्लेश ने अपने लेख मोर अबाउट गॉबलडिगूक (1945 ) में गौर किया कि “सभी आधिकारिक संचार एक कानूनवादी घेरा विकसित कर लेते हैं जिसे मजाक मे ‘गॉबलडीगूक’ भाषा कहा जाता है, जिसे समझना एक आम आदमी के लिए असंभव हो जाता है। अति-उचित, अति-अमूर्त और अति अवैयक्तिक होने की चाहत में आधिकारिक भाषा काफी रूखी और यहाँ तक कि असहमति योग्य बन सकती है। “

उसी प्रकार टेरी ने कहा, “इरादतन शब्दों का अर्थ ऐसा नहीं होता जिसकी ओर इशारा किया जा सके। न तो उनका अर्थ हमेशा अलग-अलग व्यक्तियों के लिए समान होता है, न ही समान व्यक्ति के लिए हर वक्त समान रहता है।”

वैचारिक बाधाएँ

संगठन के सदस्यों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य और निर्देशन समान नहीं होता। यह प्रभावी संचार प्रक्रिया को प्रभावित करता है। फिफनर ने कहा, “अगर मतांतरों को पृष्ठभूमि में रख दें तो शिक्षा और उम्मीद का परिणाम अलग सामाजिक और राजनीतिक विचारों मैं आता है। शायद प्रभावी संचार में ये सबसे बड़ी बाधाएँ हैं और शायद इनसे पार पाना भी सबसे मुश्किल है। “

छानना

इसका अर्थ है प्रेषक द्वारा प्राप्तकर्ता को भेजी जाने वाली सूचना में सोचना समझना और किसी उद्देश्य के साथ बदलाव। यह कई कारकों के कारण हो सकता है। लेकिन, छानने की हद संगठन के ढाँचे के स्तरों की संख्या से तय होती है। इस प्रकार किसी उच्चनीचक्र में जितने अधिक ऊर्ध्वाधर स्तर होंगे, छानने की उतनी अधिक गुंजायश होगी और जितने कम स्तर होंगे गुंजायश भी उतनी कम होगी।

कठमुल्लावाद

इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति के रुझान, राय और विश्वास उसे सही और अतिरिक्त सूचना स्वीकार करने से रोकते हैं क्योंकि यह मौजूदा स्थिति से टकराती है। यह वास्तव में प्रभावी संचार का प्रभावित करता है।

आभा मंडल प्रभाव

जैसा कि हिक्स व गुलेट ने समझाया है, “आभा मंडल प्रभाव द्विमूल्य चिंतन का परिणाम है। इस स्थिति में, हम चीजों को द्विभाजनों के रूप में देखते हैं। अच्छा व बुरा, सही और गलत, सफेद और काला इत्यादि । यहाँ खतरा यह है कि ज्यादातर स्थितियाँ द्विभाजन वाली नहीं होती और इसलिए ऐसी सोच वास्तविक स्थितियों को अतिसरलीकृत कर सकती है।”

स्टीरियोटाइपिंग

इसका अर्थ है कि संचार की अंतर्वस्तु वस्तुओं और घटनाओं के अपर्याप्त विलगीकरण से पैदा हुई उम्मीदों से निर्धारित होती है। यह प्रभावी संचार में हस्तक्षेप करती है।

अन्य बाधाएँ

उपरोक्त के अलावा संचार प्रक्रिया निम्न कारकों से प्रभावित होती है-

(i) श्रेष्ठतरों के रुख के कारण संचार की इच्छा का अभाव।

(ii) निश्चित और मान्यता प्राप्त संचार के साधनों की अनुपस्थिति

(iii) संगठन का आकार और सदस्यों के बीच दूरी।

(iv) सांस्कृतिक बाधाएँ।

(v) फीडबैक बाधाएँ।

बाधाओं से पार पाना (Overcoming Barriers)

टेरी के अनुसार निम्न आठ कारक संचार को प्रभावी बनाते हैं-

(i) स्वयं को पूरी तरह सूचित करो।

(ii) एक दूसर में परस्पर विश्वास पैदा करो।

(iii) अनुभव की साझा जमीन को तलाश करो।

(iv) आपस में ज्ञात शब्दों का इस्तेमाल करो।

(v) परिप्रेक्ष्य के प्रति सचेत रहो।

(vi) प्राप्तकर्ता का ध्यान सुरक्षित करो और केन्द्रित किए रखो।

(vii) उदाहरणों और दृष्टव्य सहायक सामग्रियों का प्रयोग करो।

(viii) प्रतिक्रियाओं में देर करो।

मिलेट के लिए किसी संचार को प्रभावी बनाने के लिए छह कारक अनिवार्य हैं। संचार को- (i) स्पष्ट होना चाहिए।

(ii) प्राप्तकर्त्ता की अपेक्षाओं के लिए निरंतर प्रवाह में होना चाहिए।

(iii) पर्याप्त होना चाहिए।

(iv) सही वक्त पर होना चाहिए।

(v) एकसमान होना चाहिए।

(vi) स्वीकार्य होना चाहिए।

हाल में ही विकसित प्रबंधन सूचना तंत्र (MIS) ने संगठन संचार को बेहतर बनाया है। MIS का अर्थ है- संगठन की संचार प्रक्रियाओं में सूचना तकनीक का प्रयोग। इसमें सूचना को पैदा करना, प्रोसेस करना और भेजना शामिल है। यह समस्या समाधान, निणर्य निर्माण और रणनीतिक नियोजन में प्रबंधकों की मदद करता है।

संचार के तत्व, महत्त्व और विशेषताएँ

संचार प्रणाली के अध्ययन के अन्तर्गत संचार के विभिन्न तत्वों की चर्चा होती है, जो निम्नलिखित हैं-

(क) संचारक

(ख) संदेश

(ग) संचार माध्यम

(घ) प्राप्तकर्ता

(क) संचारक (Communicator)

संचार प्रक्रिया का स्रोत या आरम्भकर्ता संचारक होता है। इसे प्रारम्भ बिन्दु भी कहा जा सकता है। प्रसार प्रणाली में इसके कई नाम या रूप हो सकते हैं, यथा- स्रोत, प्रेषक, सूचनावाहक, संचारक, वक्ता इत्यादि। वह संकेतीकरण भी करता है, अतः संकेतक भी कहलाता है। किसी तथ्य या सत्य को प्रस्तुत करना और लोगों को उसके द्वारा प्रभावित करना अत्यन्त चुनौतीभरा तथा दायित्वपूर्ण कृत्य है। संचारक का कर्त्तव्य सामाजिक जिम्मेदारियों से परिपूर्ण होता है। उसकी प्रस्तुति मात्र तथ्यों, विचारों, सूचनाओं आदि को ही प्रेषित नहीं करती, वरन लोगों को परिवर्तन की ओर भी अग्रसर करती है। अतः संचारक को अत्यन्त सूझ-बूझ के साथ काम करना पड़ता है । संचारक को सन्तुलित व्यक्तित्व का होना चाहिए, उसके पास अपने विषय का विस्तृत ज्ञान होना चाहिए, विविध संचार माध्यमों की समझ होनी चाहिए, विवेकपूर्ण निर्णय क्षमता होनी चाहिए और सबसे बड़ी बात अपने काम के प्रति रुचि एवं ईमानदारी होनी चाहिए, ईमानदारी को प्रभावशाली संचार की एक महत्वपूर्ण शर्त मानते हुए वर्षों पहले अरस्तू ने भी संचारक के अच्छे होने पर बल दिया था। संचारक को सहिष्णु, दयालु, विनम्र, मित्रवत एवं निःस्वार्थ होना चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति जन-कल्याण के विषय में सोच सकता है तथा सही सूचनाएँ प्रसारित कर सकता है। संचारक के प्रति विश्वसनीयता ने अनेक समाचारपत्रों, रेडियो तथा टेलीविजन कार्यक्रमों को स्थापित कर दिया और दर्शकों, श्रोताओं तथा पाठकों को इनके लिए लालायित होते देखा गया है। किसी समाचार विशेष के संदर्भ में लोगों का कहना ‘रेडियो पर कहा है’, रेडियो के प्रति विश्वसनीयता दर्शाता है। आज यदि पूरे विश्व में बी.बी.सी. द्वारा प्रसारित समाचार पूरी विश्वसनीयता के साथ सुने तथा देखे जाते हैं तो इसका एकमात्र कारण उनकी विश्वसनीयता है। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों में अनेक नेताओं ने मार्गदर्शन कराया, किन्तु लोग सर्वाधिक आकर्षित होते थे महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरू की सभाओं में विश्वसनीयता एक चारित्रिक विशेषता होती है, जिसकी जड़ें जमाने के लिए संचारक का पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ कर्त्तव्य निर्वाह करना होता है। यह और बात है कि कुछ लोगों का व्यक्तित्व इतना आकर्षक होता है या बातें करने का ढंग इतना मोहक होता है कि वे लोगों पर जादुई प्रभाव छोड़ते हैं। संसार के जितने भी बड़े-बड़े नेता या समाज सुधारक हुए हैं उनमें यह गुण पाया गया है। वे उत्तम कोटि के संचारक रहे क्योंकि वे लोगों में विश्वसनीय थे और उनकी ओर लोग सहज ही खिंच जाते थे। उनके स्वर में उत्साह, आवेग, निर्भीकता, गतिशीलता एवं स्पष्टता थी। वे लोगों की मनोभावनाओं को समझते थे अतः समानानुभूति को महत्व देते थे। लोग उनकी बातों में अपनी भावनाएँ पाते, उनकी बातों से अपनी समस्याओं के हल ढूँढ़ते और हल उन्हें प्राप्त भी हो जाते। तभी तो लोग उनकी ओर आकर्षित होते थे। यही है संचारक के प्रति विश्वसनीयता, जिसे कोई भी संचारक अपने कर्तव्य निर्वाह में निष्ठा लाकर ही प्राप्त कर सकता है।

संचार एक सुनियोजित प्रक्रिया है। इसके निमित्त सूझ-बूझ से परिपूर्ण पूर्व नियोजित कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। जैसा कि कहा जा चुका है, संचारक या प्रेषक इस प्रक्रिया का स्रोत बिन्दु होता है। संचार विषय का जन्मदाता होने के कारण संचार प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व उसे कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने होते हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) सन्देश का चयन

(ii) सन्देश की विवेचना

(iii) संचार माध्यम का चयन

(iv) प्राप्तकर्ता का चयन

(i) सन्देश का चयन (Selection of Message)- संचार प्रक्रिया के अन्तर्गत, संचारक का प्रथम कार्य सन्देश या उसकी विषय-वस्तु का चयन करना होता है। यह कार्य प्रायः मानसिक धरातल पर प्रारम्भ होता है। एतदर्थ गहन सोच-विचार आवश्यक है । सन्देश की विषय-वस्तु महत्वपूर्ण, उपयोगी, समसामयिक तथा सर्वानुकूल होने के साथ-साथ रुचिकर भी होनी चाहिए।

अधिक से अधिक लोगों को आकर्षित करने की क्षमता भी होनी चाहिए। जैसे गेहूं और चावल की खेती देश के अधिकांश कृषक करते हैं। अतः इन खाद्यात्रों से सम्बन्धित बातें एक बड़े वर्ग के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी। किन्तु इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि सही समय पर इनसे सम्बन्धित बातें कहीं या छापी जाएँ। अर्थात् जब बोआई या रोपनी का मौसम हो तो उर्वरक + खाद-सिंचाई की बात होनी चाहिये। इसी प्रकार जब पौधे खड़े हों तो उनका रख- रखाव, कीटनाशक दवाओं का छिड़काव इत्यादि की चर्चा होनी चाहिये तथा कटाई के समय भण्डारण की बातें। एक बात और जब चावल की खेती का मौसम हो तो चावल की खेती विषयक बातें ही उपयोगी एवं रुचिकर होंगी तथा लोगों को आकर्षित करेंगी। उदाहरण के लिए, गृहिणियों को यदि गोभी के मौसम में गोभी के विविध व्यंजन, अचार आदि बनाने के विषय में जानकारी दी जाये तो प्रदत्त जानकारियों का लाभ वे उठा सकती हैं। गर्मी या बरसात के मौसम में गोभी की चर्चा, समसामयिक नहीं होने के कारण, अनुपयोगी साबित होगी तथा संचार में गृहणियाँ रुचि नहीं लेंगी। संचारक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दी जाने वाली जानकारी लोगों के लिए लाभप्रद हो। यह लाभ प्रत्यक्ष या परोक्ष, ज्ञानवर्द्धक हो सकता है। लाभ का लोभ सभी को रहता है, चाहे वह सन्देश ग्राहक ही क्यों न हो।

(ii) सन्देश की विवेचना (Treatment of Massage)- विषय-वस्तु के चयन के पश्चात् दूसरा महत्वपूर्ण चरण होता है विषय-वस्तु की प्रस्तुति तथा उसका प्रतिपादन। किसी भी विषय को प्रस्तुत करने के लिए सम्यक भूमिका बांधना आवश्यक है। भूमिका इतनी सजीव तथा लुभावनी होनी चाहिए कि वह लोगों को सहज ही आकर्षित कर सके। किसी भी विषय की प्रस्तुति यदि निर्जीव, बेजान, नीरस या घिसे-पिटे ढंग से की जाती है, तो लोग पत्र या पत्रिकाओं के पन्ने पलट देते हैं और यदि भाषण चल रहा होता है तो सभा छोड़कर चल देते हैं। अतः संचारक को अपनी बातों की प्रस्तुति करते समय शब्दों का मोहक एवं आकर्षक जाल बिछाना चाहिए। किन्तु शब्द जाल में ग्राहक को अधिक देर तक बाँधे रखना सम्भव नहीं । अतः मूल विषय की प्रस्तुति भी होना आवश्यक है। मूल जानकारियों को प्रस्तुत करते समय, सहज एवं स्पष्ट भाषा का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। शब्दों का चयन ग्राहक के शैक्षिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए। विषय-वस्तु के विभिन्न बिन्दुओं की क्रमबद्धता सटीक होनी चाहिए तथा इन्हें एक-दूसरे से उलझना नहीं चाहिए। विषय-वस्तु के विभिन्न पहलुओं को क्रमिक ढंग से एक के बाद एक स्पष्ट करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए। यथासम्भव उदाहरणों का प्रयोग करते हुए अपनी बात अधिक स्पष्ट करनी चाहिए। संचारक को अपनी बात नपे तुले शब्दों में प्रस्तुत करनी चाहिए। एक ओर जहाँ शब्दों का अल्प व्यवहार विषय-वस्तु के सुस्पष्ट होने में बाधक हो सकता है, वहीं दूसरी ओर विषय की अत्यधिक व्याख्या ग्राहक को बोझिल बना सकती है। अतः संचारक को इस दिशा में विशेष सतर्कता का निर्वाह करना चाहिए। विषय-वस्तु के विभिन्न पक्षों को बताने के पश्चात, सभी बिन्दुओं को समेटते हुए संदेश का समापन करना चाहिए, जिससे पूरी प्रस्तुति एक सूत्र में बँध जाए। साथ ही, संचार में प्रतिपुष्टि महत्व को देखते हुए, संचारक को ग्राहक के विचार या जिज्ञासा आमन्त्रित करनी चाहिए। संचार प्रक्रिया में विषय-वस्तु की प्रस्तुति एक अत्यन्त महत्वपूर्ण चरण है। संचारक यदि चाहे तो अत्यन्त गम्भीर एवं नीरस विषय को भी नितांत सहज एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर उसे सरस-सजीव बना सकता है।

(iii) संचार माध्यम का चयन (Selection of Communication Channel) – यद्यपि मानव संचार का इतिहास अत्यन्त पुराना है, किन्तु संचार माध्यमों के इतिहास में बीसवीं शताब्दी में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। सदियों तक विभिन्न लोक माध्यम, जैसे- लोकगीत, लोक नाटक, लोक नृत्य, कठपुतली के खेल, भांड, लावणी बाउल इत्यादि संचार माध्यम रहे। आज तकनीकी विकास के फलस्वरूप, संचारक के पास अनक माध्यम हैं, जैसे रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, चित्रकला, फिल्म, पोस्टर, नाट्य, मंच, काव्य मंच, पोस्टर, बैनर इत्यादि इत्यादि। अपनी बात संचारित करने के लिए संचारक को इनमें से किसी माध्यम का चयन करना होता है। सफल संचार प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि संचार माध्यम का चयन सही हो, हर माध्यम हर बात के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है। उदाहरणार्थ भारत में साक्षरता दर मात्र पचास प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में छपित माध्यमों के द्वारा देश के समस्त जन समुदाय को सम्बोधित नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार, यदि किसी गाँव में बिजली नहीं है तो अत्यन्त सशक्त माध्यम होने के बावजूद, टेलीविजन का उपयोग वहाँ नहीं किया जा सकता। अतः संचारक को माध्यम का चुनाव करते समय, उसकी उपलब्धता तथा व्यवहार्यता को ध्यान में रखना चाहिए। जब उसे विराट जन समूह को सम्बोधित करना हो तो ऐसे माध्यम का चयन करना चाहिए जो विराट जन सम्पर्क स्थापित कर सके। आवश्यकता पड़ने पर, एक से अधिक माध्यमों का एक साथ सहारा लिया जा सकता है। चुनाव अभियान के क्रम में, प्रायः प्रत्याशी एक साथ बैनर, पोस्टर, लाउडस्पीकर, पैम्फलेट इत्यादि का सहरा लेते हैं। यदि महिलाओं को टमाटर का सॉस बनाना सिखाना हो तो छोटे समूह में विधि प्रदर्शन, रेडियो या टीवी द्वारा व्यंजन विधि का प्रसारण अथवा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से छपित रूप में इसे बताया जा सकता है। विराट जन सभा में इस प्रकार के प्रदर्शन सफल सिद्ध नहीं होंगे। इसी प्रकार पोस्टर, फोटोग्राफ निकट से देखे जाते हैं जबकि होर्डिंग को दूर से देखा जा सकता है।

(iv) प्राप्तकर्त्ता का चयन (Selection of Receiver) – सन्देश के प्राप्तकर्त्ता पाठक, श्रोता तथा दर्शक सामान्य रूप से हुआ करते हैं। सन्देश को प्राप्त करने वाले प्रायः संचार माध्यम से सम्बद्ध होते । उदाहरणार्थ जिनके पास टेलीविजन है, वे उसक माध्यम से सन्देश प्राप्त कर सकते हैं, जो पढ़े-लिखे हैं उनके लिए अनेकानेक छपित माध्यम उपलब्ध होते हैं।

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