पाठ्यक्रम विकास के मुख्य प्रसंग (Major Consideration in Curriculum Development)
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता का विशेष स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तभी सफल हो सकती है जब पाठ्यक्रम विद्यार्थी के सम्पूर्ण विकास में मदद करें। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है जो केवल पाठ्यक्रम द्वारा ही सम्भव हो सकता है इसलिए पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो विद्यार्थियों को जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने तथा समस्याओं को दूर करने में मदद करे पाठ्यक्रम अधिगमकर्ताका सम्पूर्ण विकास करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
प्रत्येक विद्यार्थी /अधिगमकर्त्ता रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं के आधार पर भिन्न होता है पाठ्यक्रम में इस प्रकार का प्रावधान रखना चाहिए कि प्रत्येक विद्यार्थी बिना किसी रुकावट के अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके। निम्न प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों को लेखन, अधिगम व संगठन के द्वारा शिक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि विद्यार्थी में लेखन व अधिगम का विकास हो सके। यदि निम्न सम्बन्ध में सरकार ने प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में एक विशेष प्रशिक्षण शिक्षक (Resource Teacher) की नियुक्ति करने और प्रत्येक सरकारी हाईस्कूल में आवश्यकतानुसार विशेषज्ञ शिक्षकों की व्यवस्था करने की योजना बनाई है। जहाँ तक समावेशी स्कूलों की कार्य-प्रणाली की बात है तो यह निम्नलिखित दो रूपों में देखा जाता है-
(1) सम्पूर्ण समावेशन (Complete Inclusiveness) – अर्थात् विद्यालय में सभी प्रकार के बच्चों का प्रवेश, सभी के लिए समान पाठ्यक्रम, सभी को एक ही विधि से एक साथ पढ़ना, सभी की एक समान रूप से परीक्षा लेना और सभी का एक ही पैमाने पर मूल्यांकन करना और सभी को एक ही प्रकार के प्रमाण-पत्र देना आदि।
(2) अल्प समावेशन (Partial Inclusiveness) — जो प्रायः दो रूपों में चलता है-
(i) कुछ विषयों; जैसे—संगीत, कला, स्वास्थ्य शिक्षा एक साथ और कुछ विषयों जैसे- भाषा, विज्ञान, गणित की शिक्षा अलग-अलग और सभी क्रियाओं—खेलकूद एवं समाज सेवा आदि एक साथ।
(ii) सैद्धान्तिक कार्य अलग-अलग और क्रियात्मक कार्य एक साथ जहाँ तक समावेशन की नीति को पाठ्यचर्या के निर्धारक के रूप में अपनाने की बात है तो समावेशन की इस नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की जरूरत है बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र से वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाने की जरूरत है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चों खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के सबसे ज्यादा फायदे मिले । अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के मौके और सहपाठियों के साथ बैठने के मौके देना बच्चों में प्रोत्साहन और जुड़ाव को पोषण देने के शक्तिशाली तरीके हों, स्कूलों में अक्सर हम कुछ गिने-चुने बच्चों को ही बार-बार चुनते रहते हैं। इस छोटे समूह को तो ऐसे अवसरों से फायदा होता है, उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और वे स्कूल में लोकप्रिय हो जाते हैं लेकिन दूसरे बच्चे बार-बार उपेक्षित महसूस करते हैं और स्कूल में जाने और स्वीकृति की इच्छा उनके मन में लगातार बनी रहती है। तारीफ करने के लिए हम श्रेष्ठता और योग्यता का आधार बना सकते हैं लेकिन अवसर तो सभी बच्चों को मिलने चाहिए और सभी बच्चों की विशिष्ट क्षमताओं को पहचाना जाना चाहिए और उनकी तारीफ होनी चाहिए
बच्चों को शुरू से ही संकीर्ण संज्ञानात्मक आधार पर वर्गीकृत करके स्कूल उस विविधता को भी क्षति पहुँचाते हैं जो बच्चों की क्षमताओं और प्रतिभाओं में होते हैं । प्रत्येक बच्चे के साथ व्यक्तिगत स्तर पर जुड़ने की बजाय बच्चों को अपने शुरुआती जीवन में ही संज्ञानात्मक पदों पर रख दिया जाता है। श्रेष्ठतम विद्यार्थी, सामान्य, सामान्य से कम स्तर के और असफल, अधिकतर मामलों में बच्चों के पास अपने पद से खुद हटने के मौके नहीं होते । ठप्पा लगाने की इस भयावह प्रक्रिया का बच्चों पर बहुत ही विनाशकारी प्रभाव पड़ता है । स्कूलों में कुछ बच्चों को मंदबुद्धि कहा जाता है जहाँ तक कि उन्हें बिठाया भी अलग T जाता है जिससे बच्चों का विभाजन बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखने लगता है जिससे बच्चे कक्षा में प्राय: मौन बैठे रहते हैं। उन्हें डर लगता है कि वे परीक्षा में अच्छा नहीं कर पायेंगे, यदि वे नई चीजें अजमायेंगे तो उनकी अच्छी श्रेणी नहीं आयेगी ! अतः बच्चों के लिए त प्रबन्धन के कोर्स चलाने की जगह, पाठ्यचर्या को तनावमुक्त करने की व अभिभावकों को यह सुझाव देने की जरूरत है कि बच्चों का स्कूल के बाहर जो जीवन है उसे तनाव मुक्त करें । इस सन्दर्भ में ‘समान विद्यालय’ का आदर्श जिसकी वकालत चार दशक पहले कोठरी आयोग ने की थी । आज भी वैध है चूँकि यह अपने संविधान में निहित भावना के अनुरूप है माहौल बना सकें जहाँ प्रत्येक बच्चा खुशी महसूस कर पाये और सुकून से जी पाए। यह स्कूल इन मूल्यों को आत्मसात करवाने में तभी सफलता प्राप्त कर सकते हैं जब वे ऐसा आदर्श अब और भी प्रासंगिक हो गया है क्योंकि शिक्षा का अधिकार अब एक मौलिक अधिकार बन गया है जिसका आशय है कि ऐसे लाखों बच्चों का नामांकन होगा जो प्रथम पीढ़ी के विद्यार्थी हैं। ऐसे बच्चों को स्कूलों में बनाए रखने के लिए व्यवस्था को जिसमें निजी क्षेत्र भी शामिल है, यह मानना होगा कि उभरते हुए परिदृश्य में क्षमता, व्यक्तिगत और आकांक्षाओं का कोई एक मानक काम नहीं कर सकता। स्कूल प्रशासकों और शिक्षकों को यह समझना चाहिए कि जब भिन्न सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और भिन्न क्षमता स्तर वाले लड़के-लड़कियाँ एक साथ पढ़ते हैं तो कक्षा का वातावरण और भी समृद्ध हो जाता है।
मूल्यों को महत्त्व देना : पाठ्यक्रम के निर्धारक के रूप में (Value Concerns and Issues: As a Determinant of Curriculum)
चूँकि भारत आध्यात्मिक सह-अस्तित्व का एक सर्वाधिक उत्पन्न प्रयोग है अतः सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों एवं धर्मों के विषय में शिक्षा पूरी तरह से घर और समुदाय के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि भारतीय विद्यालयी पाठ्यचर्या में मूलभूत मूल्यों को अन्त:निहित किया जाये तथा देश के सभी प्रमुख धर्मों के सम्बन्ध में चेतना को एक केन्द्रीय घटक के रूप शामिल किया जाए।
मूल्यों की शिक्षा का मतलब हमेशा से वांछनीय व्यवहार को प्रेरित करना रहा है। इस कारण विद्यार्थी अक्सर बिना किसी प्रतिबद्धता के अपनी सही भावना और विचार को छिपाकर बस जवानी तौर पर नैतिक मूल्यों की बात करने लगते हैं। अतः जरूरत बातचीत से हटकर अनुभवों और चिन्तन-मनन तक जाने की है जहाँ नैतिक व्यवहार के लिए कोई भी सरल प्रस्ताव या उपागम नहीं हो सकता।
शिक्षक खुद सुविचारित प्रयास कर सकते हैं कि पाठ्य सामग्री और बच्चों के विकास के स्तर के अनुरूप शान्ति से सम्बन्धित मूल्यों को पठन-पाठन में शामिल कर लें और उन पर लगातार बल दें। उदाहरण के लिए, शिक्षक किसी पाठ में छिपे घटकों का उपयोग सकारात्मक भावों को जगाने के लिए अनुभवों आदि के आधार पर शान्ति के मूल्यों को करने के लिए कर सकते हैं। प्रश्न किस्सा कहानी, खेलकूद, व्यावहारिक चर्चा, उदाहरणों, रूपकों, मूल्य स्पष्टीकरण के माध्यम से शान्ति की शिक्षा दी जा सकती है। नैतिक शिक्षा और आचरण व्यक्तिगत, सामाजिक, सामुदायिक और वैश्विक आयामों से जोड़कर सिखाये जा सकते हैं। शिक्षक शिक्षा के कार्यक्रमों में भी शान्ति की शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में विद्यालयी शिक्षा के बहुत प्रारम्भिक चरण में ही मूल्य शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी एक समग्र कार्यक्रम को विद्यालयी दिनचर्या के नियमित अंग के रूप में अनिवार्य है। सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया ऐसी हो कि बालक-बालिकाएँ इस योग्य बन जाएँ कि वे ‘उत्तम’ से प्रेम करें और ‘उत्तम’ कार्य करें तथा एक-दूसरे के प्रति सहनशील नागरिकों शुरू करना के रूप में विकसित हों। इसके लिए प्रत्येक शिक्षक को मूल्य- शिक्षक बनना होगा। प्रत्येक क्रियाकलाप, इकाई, और अन्तर्क्रिया का परीक्षण मूल्य-पहचान, मूल्य-प्रसार, मूल्य-प्रबलन और इसके पश्चात् मूल्यों को अमलीजामा पहनाने के लिए सन्तुलित और समुचित कार्यनीति सम्बन्धी निर्णयों के आधार पर निर्णय लेने चाहिए। मूल्य निष्पादन के लिए दो पक्षीय संवाद, कल्याण सेवाएँ, जरूरतमन्द छात्रों की मदद, उपचारात्मक शिक्षण, पुनर्मूल्यांकन और कमतर उपलब्धियों वालें छात्रों को निरस्तर न करने का भाव आवश्यक है। इसके लिए ऐसे नियमों का निर्माण करना आवश्यक होगा जिनसे प्रत्येक छात्र को खेलकूदों, विद्यालयी क्रियाकलापों और उनकी रुचियों से जुड़े कार्यक्रमों में सहभागिता सुनिश्चित की जा सकेगी। इसके लिए पाठ्यक्रम में निम्न क्रियाएँ समावेशित की जा सकती हैं-
प्रारम्भिक शिक्षा स्तर पर
- विद्यालयी सभा और समूह गायन और मौन एवं ध्यान साधना का अभ्यास।
- पैगम्बरों, संतों और पंक्ति धर्मग्रन्थों से जुड़ी रुचिकर कथाओं और जीवनियों का वर्णन।
- खेल के मैदानों की गतिविधियाँ अर्थात् खेलकूद, ऐसे सामाजिक कार्य जो मनुष्य जाति के साथ-साथ अन्य प्राणियों यहाँ तक कि पद्धति की सेवा का दृष्टिकोण भी पैदा करें और कार्य ही पूजा है’ की भावना उत्पन्न करें।
- उपयुक्त विषयों, कथानकों पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रम और नाटकों का आयोजन।
- माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर।
- शिक्षक या अतिथि वक्ता द्वारा प्रातःकालीन सभा में ज्ञानयुक्त पुस्तकों एवं महान साहित्य के अंशों का वाचन एवं उपयुक्त सम्बोधन।
- विश्व के मुख्य धर्मों की आवश्यक शिक्षाएँ और धर्म दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन।
- अवकाश एवं विद्यालय से छूटने के बाद के समय में समाज सेवा।
- समुदायिक गायन राष्ट्रीय समाज सेवा, एन. सी. सी. शिविर, स्काउट एवं गाइडिंग कार्यक्रम।
- उपयुक्त विषयों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक, परिसंवाद आदि।
एकाधिक विद्यालय महत्त्वपूर्ण समारोहों और सभी धर्मों एवं सांस्कृतिक समूहों के त्योहारों को मनाने के लिए संयुक्त आयोजन कर सकते हैं। इससे एक-दूसरे के प्रति समझ पसन्दगी और सम्मान की बेहतर भावना विकसित होगी और एक सहिष्णु एवं सुसम्बन्ध समाज का निर्माण होगा।
उपर्युक्त मूल्यों को पाठ्यचर्या में स्थान देने के लिए जिस उपागम का प्रयोग किया जाए उसके अन्तर्गत ये तत्व होते हैं-
- विभिन्न विषयों में निहित मूल्यों का महत्त्व बताना।
- छात्रों को एक-दूसरे से प्रश्न करने, साझेदारी करने और आपस में एक-दूसरे का सम्मान करने के अवसर प्रदान करना।
- स्त्री-पुरुष समानता, सामाजिक जातियों, वर्गों और धर्मों के प्रति समानता के भाव पर बल देना।
- कक्षा शिक्षण में लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं के लिए अवसर प्रदान करना।
- मानव अधिकार, बच्चों के अधिकार, पर्यावरण संरक्षण, स्वस्थ जीवन प्रणाली आदि के महत्त्व को रेखांकित करना।
- कक्षा के वातावरण को मूल्यों के विकास के लिए तनावमुक्त और लोकतान्त्रिक बनाना।
उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षकों के लिए भी आवश्यक है कि-
- वे मूल्य प्रबोधन के प्रति अपनी भूमिका पर स्पष्ट दृष्टि रखें।
- सार्वभौम एवं सर्वव्यापी मूल्यों के पोषण के लिए उन्हें विभिन्न विद्यालयी विषयों और स्थितियों की पहचान हो और वे बालकों के समक्ष नायक (रॉल मॉडल) के रूप में स्वयं अपने प्रति संवेदनशील हों।
- छात्रों के प्रति उनके अपने पूर्वाग्रहों और दृष्टिकोणों की उनमें समझ।
- वे कक्षा में मूल्य शिक्षा की पढ़ाई और कक्षा संचालन के लिए उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयत्नशील रहें।
- वे विभिन्न धर्मों और उनसे सम्बद्ध मूल्यों को जीवन में उतारने के लिए अधिकृत और प्रामाणिक प्रबोधन सामग्री के प्रति उदारात्मक दृष्टिकोण अपनायें।
- वे अच्छे सम्प्रेषक या सन्देशवाहक बनें।
इसके साथ ही विभिन्न आयोगों व शिक्षा नीतियों द्वारा छात्र की मूल्य शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया गया है। सन् 1983 में कीरत जोशी की अध्यक्षता में नियुक्त एक वर्किंग ग्रुप ने मूल्य आधारित शिक्षा की अनुशंसा करते हुए कहा कि विद्यालय की सब क्रियाओं, पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षण विधियों एवं मूल्यांकन आदि की इस प्रकार संरचना होनी चाहिए कि वह स्वत: वांछित मूल्यों के विकास की ओर ले जायें। इसके लिए मूल्य शिक्षा हेतु माध्यमिक विद्यालयों तथा विश्वविद्यालय दोनों में आधारभूत पाठ्यक्रम होने चाहिए जिनका उद्देश्य बालकों को भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं व मूल्यों का ज्ञान कराना होना चाहिए। विशिष्ट विद्यालय मूल्य आधारित शिक्षा के लिए खोले जायें, इस प्रकार के मूल्यों की शिक्षा का विद्यालय के कार्यक्रमों का एक अभिन्न अंग होने के साथ-साथ यह भी प्रावधान हो कि समय-सारणी से कुछ घंटे मूल्यों के शिक्षा हेतु रखे जायें।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने भी मौलिक मूल्यों के क्षरण के सम्बन्ध में बढ़ती हुई चिन्ता को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम के पुनर्संगठन की आवश्यकता महसूस करते हुए कहा कि मूल्य शिक्षा पाठ्यक्रम का एक अनिवार्य अंग होना चाहिए। आगे चलकर इस शिक्षा नीति में रिव्यू (Review) पुनर्समीक्षा हेतु बनायी गयी आचार्य राममूर्ति समिति ने भी कहा कि मूल्य शिक्षा को प्रदान करना सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया तथा विद्यालय वातावरण का अन्तरंग भाग होना चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि मूल्यों की शिक्षा को पाठ्यक्रम में मुख्य निर्धारक की भूमिका निभानी चाहिए।
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