पाठ्यक्रम के प्रमुख निर्धारक क्या है? (What are the main determinants of curriculum?)
भारत में असंख्य ऐसी स्थानीय परम्पराएँ हैं, ऐसे भी कई समुदाय और व्यक्ति हैं जो भारत के पर्यावरण के विविध रूपों की सूचनाओं और उनके प्रबन्धन सम्बन्धी ज्ञान के भंडार हैं जो उन्होंने पीढ़ियों से परम्परागत ज्ञान के रूप में पाने के साथ अपने व्यावहारिक अनुभव से भी प्राप्त किया है। इसमें विद्यालयी परम्परा को भी जोड़ा जा सकता है।
“इसी प्रकार शिक्षा के सामाजिक सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम को कुछ प्रमुख विशेषताओं को निहित करना होगा—
(1) व्यक्ति के व्यवहार को वातावरण के अनुसार परिवर्तित करना।
(2) सफल सामाजिक जीवन के लिए।
शिक्षा में समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है-
1. व्यक्ति के व्यवहार को वातावरण के अनुसार परिवर्तित करना।
2. सफल सामाजिक जीवन के लिए व्यक्ति को तैयार करना।
3. व्यक्तिवाद का विरोध तथा सामाजिक गुणों का विकास करना।
4. पाठ्यक्रम में सामाजिक विषयों के अध्ययन को प्रोत्साहन देना।
5. नि: शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा।
6. राज्य शिक्षा प्रणाली का विकास।
7. बालक को जीवन की जटिलताओं से अवगत कराना।
8. बालक को व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं से परिचित कराना तथा उनका सामना करने के लिए तैयार करना।
9. विज्ञान एवं तकनीकी, औद्योगिकी एवं व्यावसायिक शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना।
10. प्रौढ़ शिक्षा तथा समाज शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल देना।
इसी प्रकार वर्तमान पाठ्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा, पर्यावरण शिक्षा, प्रदूषण की समस्या, सुरक्षा-शिक्षा, परिवहन-शिक्षा, काम-शिक्षा, जाति उन्मूलन, परिवार कल्याण, विवाह एवं तलाक की समस्या, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय एकता की शिक्षा आदि विषयों को समावेश किया जा रहा है। इसका उद्देश्य यह है कि इनके अध्ययन से बालकों में वांछित अभिवृत्तिका विकास होगा तथा उन्हें सामाजिक समायोजन में सरलता होगी। परन्तु जब तक समाज में व्यावहारिक रूप में इस दिशा में कार्य नहीं किया जायेगा, तब तक हमें अधिक सफलता की आशा करना ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ, हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही विद्यालयों में प्राथमिक स्तर से ही पाठ्यक्रम के विभिन्न अंगों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव की शिक्षा प्रदान की जा रही है, किन्तु आये दिन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि समस्याएँ उभरकर हमारी राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुँचाने का प्रयास कर रही है। अत: जब तक समाज में व्यवहार स्तर पर इन ऋणात्मक दृष्टिकोणों में परिवर्तन नहीं लाया जाता अथवा विपरीत दिशा में ही कार्य किया जाता है तब तक पाठ्यक्रम की सार्थकता की बात करना व्यर्थ ही होगा। अतः पाठ्यक्रम की उपयुक्तता के लिए सामाजिक स्थिति को अच्छी तरह समझना अति आवश्यक होता है।
भारतीय परिवेश के आधार पर विद्यालयी पाठ्यक्रम में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि वह भारतीय सभ्यता का विश्व सभ्यता पर एवं विश्व सभ्यता का भारतीय सभ्यता के विचार एवं कर्म पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्यक् बोध के माध्यम से विद्यार्थियों में भारतीय होने में गर्व करने की भावना का संचार और पोषण करें। राष्ट्रीय अस्मिता एवं एकता का सुदृढ़ीकरण भारत की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन के साथ गहराई से जुड़ा है जो कि नाना प्रकार के रंग रूपों से समृद्ध है। अतः जहाँ पाठ्यक्रम भूमण्डलीय विश्व व्यवस्था का अवलोकन होता है वहीं दूसरी ओर शिक्षा ऐसी दिखाई देनी चाहिए कि वह राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय पहचान के लिए आवश्यक राष्ट्रीय एकता को विकसित करने वाली बनें। आज भी भारत में कई लोग ऐसे हैं जो यहाँ की प्रगति और उपलब्धियों, विशेषतः विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में की गई प्रगति से अनभिज्ञ हैं, जो राष्ट्र की एकता को सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि सांस्कृतिक विरासत, परम्परा और देश की विभिन्न जातियाँ एवं क्षेत्रीय समूहों के इतिहास व उनके योगदान को पाठ्यक्रम में स्थान मिले ताकि देश के बहुलतानिष्ठ समाज और उसकी सामाजिक संस्कृति की प्रकृति को सही ढंग से समझने में मदद मिले।
इसी प्रकार जहाँ तक बहुभाषावाद की अवधारणा का प्रश्न है तो भारत विभिन्नताओं से युक्त देश होने के कारण यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती हैं। आज भूण्डलीकरण व सांस्कृतिक खुलेपन की वजह से भी बहुभाषिकता एक सामाजिक आवश्यकता बनती जा रही है। इन्टरनेट द्वारा प्रदान की गई सूचनाओं की सहूलतों के पाने की होड़ में हरेक व्यक्ति का बहुभाषावादी होना दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है अतः पाठ्यक्रम निर्धारण में भी इस बहुभाषिकता को स्थान दिया जाना चाहिए। भारत की भाषिक विविधता यद्यपि एक जटिल चुनौती तो प्रस्तुत करती है परन्तु वह कई प्रकार के अवसर भी देती है। भारत केवल इस मामले में ही अनूठा नहीं है कि यहाँ अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं, बल्कि उन भाषाओं में अनेक भाषा-परिवारों का प्रतिनिधित्व भी है। दुनिया के और किसी भी देश में पाँच भाषा परिवारों की भाषाएँ नहीं पाई जाती हैं। संरचना के स्तर पर वे इतनी भिन्न हैं। कि उन्हें विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत किया जा सकता है जिनके नाम हैं- इंडो-आर्यन, द्रविड़, ऑस्ट्रो-एशियाटिक, तिब्बतों-बर्मन और अंडमानी अनेक भाषिक व सामाजिक- भाषिक विशेषताएँ ऐसी हैं जो सभी भाषाओं में समान रूप से पाई जाती हैं। यह इस बात का सबूत है कि भारत में विभिन्न भाषाएँ और संस्कृतियाँ सदियों से एक-दूसरे को समृद्ध करती रही है।
कई अध्ययनों से यह भी पता चलता कि द्विभाषी या बहुभाषी क्षमता संज्ञानात्मक वृद्धि, सामाजिक सहिष्णुता, विस्तृत चिन्तन और बौद्धिक उपलब्धियों के स्तर को देती बढ़ा है। सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषिकता (Multi-lingualism) एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना किसी भी राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है। आज हम यह भी जानते हैं कि द्विभाषिकता या बहुभाषिकता से निश्चित संज्ञानात्मक लाभ होते हैं त्रिभाषा का मूल्य भारत की भाषा स्थिति की चुनौतियों और अवसरों को सम्बन्धित करने का एक प्रयास है । यह एक रणनीति है जिससे कई भाषाएँ सीखने के मार्ग प्रशस्त होते हैं । अतः पाठ्यचर्या में इसे कार्यरूप और भावरूप दोनों में ही अपनाने की आवश्यकता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य में बहुभाषिकता और राष्ट्रीय सद्भाव का प्रसार है। अतः पाठ्यक्रम में बहुभाषिकता को प्राप्ति करने हेतु निम्नलिखित दिशा-निर्देश प्रभावी हो सकते हैं-
- भाषा शिक्षण बहुभाषिक होना चाहिए, केवल कई भाषाओं के शिक्षण के ही अर्थ में नहीं, बल्कि रणनीति तैयार करने के लिहाज से भी ताकि बहुभाषिक कक्षा को एक संसाधन के तौर पर प्रयोग में लाया जाए।
- बच्चों की घरेलू भाषाएँ स्कूल में शिक्षण का माध्यम हों।
- अगर स्कूल में उच्चतर स्तर पर बच्चों की घरेलू भाषाओं में शिक्षण की व्यवस्था न हो तो प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा अवश्य घरेलू भाषाओं के माध्यम से दी जाए। हमारे संविधान की धारा 350’क’ के मुताबिक भी ” प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी, अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा। “
- बच्चे प्रारम्भ से ही बहुभाषिक शिक्षा प्राप्त कर सके। इसकी व्याख्या, पाठ्यक्रम से की जाए ताकि एक बहुभाषी देश में बहुभाषी संवाद के माहौल को बढ़ावा दिया जा सके। यद्यपि बच्चे स्कूल से बुनियादी संवाद क्षमता के कौशल में समर्थ होकर आते हैं, उनकी स्कूल में संज्ञानात्मक रूप से उच्चस्तरीय भाषिक क्षमता को अपनाने की जरूरत होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि उसके लिए हर सम्भव प्रयत्न पाठ्यचर्या द्वारा किये जायें ताकि स्कूल स्तर पर भारतीय भाषाओं में सतत् शिक्षा को समृद्ध किया जा सके।
भाषा शिक्षण केवल भाषा की कक्षा तक सीमित नहीं होता। विज्ञान, सामाजिक विज्ञान या गणित का पाठ्यक्रम भी एक तरह से भाषा की ही कक्षा होती है। अतः भाषा को लेकर पाठ्यचर्या में ऐसी नीति अपनाने की आवश्यकता है जिससे बहुभाषिकता को बढ़ावा मिले । साथ ही भाषा की शिक्षा कुछ अनूठे अवसर भी उपलब्ध कराती है जिससे बच्चे कहानी, कविता, गीत, नाटक के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ते हैं। भारत के बहुभाषी समाज में अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है परन्तु इसके भी कुछ अच्छे लक्ष्य हैं जैसे बुनियादी दक्षता प्राप्ता करना, ऐसी शैक्षणिक गतिविधियों से परिचित होना जिससे विश्व जागरूकता को बढ़ावा मिले। अंग्रेजी शिक्षण का लक्ष्य ऐसे बहुभाषी लोगों को तैयार करता है जो हमारी भाषाओं को समृद्ध कर सके। अतः बहुभाषिकता को पाठ्यचर्या का एक निर्धारक मानकर शिक्षण के सभी स्तरों और शिक्षा की राष्ट्रीय नीति से जोड़ते हुए एक भाषा नीति तैयार करनी चाहिए और पूरी तरह से स्थानीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने हेतु अधिगम सम्बन्धी सामग्री भी स्थानीय भाषा में तैयार करनी चाहिए।
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