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जीन पियाजे के अनुसार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया

जीन पियाजे के अनुसार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया
जीन पियाजे के अनुसार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया

जीन पियाजे के अनुसार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया (Process of Knowledge Construction according to Jean Piaget)

संज्ञानात्मक विकास में मुख्यतः प्रो. जीन पियाजे, प्रो. जे. एस. ब्रूनर और लेव वाइगोटस्की एवं उनके सहयोगियों द्वारा योगदान दिया गया। पियाजे के अनुसार, ज्ञान एक सक्रिय प्रविधि है । वातावरण में उपलब्ध पदार्थों से जब छात्र अन्तर्क्रिया द्वारा अनुभव प्राप्त करते हैं तब इसकी परिचर्या अपने साथियों से करने पर अधिगम होता है। संज्ञानात्मक विकास का अर्थ व्यक्ति की उस प्रक्रिया से है जिसमें वह वृद्धि करते समय चिन्तन करता है और सीखता है।

संज्ञानात्मक प्रक्रिया वह अदृश्य मानसिक क्रियाएँ हैं, जिनमें सूचनाएँ प्रभावित होकर पूर्व स्थित सूचना में सम्मिलित हो जाती हैं। इस प्रक्रिया की उपलब्धि विकसित संज्ञानात्मकता का फल है, जिससे पुन: प्रक्रिया भी सम्भव है और इसे व्यक्ति के व्यवहार में देखा जा सकता है। व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि उसकी संज्ञानात्मक संरचना, व्यक्ति एवं वातावरण के बीच अन्तःक्रिया का फल है और यह क्रिया आत्मीकरण तथा स्थानीयकरण प्रविधियों में होती है।

प्रो. पियाजे का मत है कि संज्ञानात्मक विकास विभिन्न अवस्थाओं में होता है जिससे व्यक्ति एक अलग प्रकार की संज्ञानात्मक रचना दर्शाते हैं। वस्तुतः संज्ञानात्मक संरचना एक व्यक्ति के ज्ञान का दूसरा नाम है।

जब कोई व्यक्ति नवीन ज्ञान अथवा नवीन विचार उसके वातावरण में पाता है तो आत्मीकरण तथा स्थानीयकरण होता है जिसमें पूर्व स्थित संज्ञानात्मक संरचना में रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण नवीन विचार अथवा ज्ञान होता है और पहले वाले से भिन्न होता है। इससे व्यक्ति साम्यावस्था में आ जाता है। इसे विकसित संज्ञानात्मक संरचना कहते हैं।

इस गतिशील अवस्था में व्यक्ति में नवीन संज्ञानात्मक संरचना स्वःनियमन द्वारा होती है। पियाजे का मत है कि संरचनाओं का निर्माण मुख्यतः साम्यावस्था का कार्य है जो स्वनियमन द्वारा होता रहता है अर्थात् साम्यावस्था व्यक्ति के वाह्य प्रभावों द्वारा सक्रिय प्रक्रिया है जो किसी सीमा तक प्रभावी अथवा उसका पूर्वानुमान होता है।

इस प्रकार यह विकासात्मक प्रक्रिया लगातार (अनुक्रम) सम्बन्धित अवस्थाओं में देखी जाती है। प्रत्येक अवस्था संज्ञानात्मक व्यवहार से बनी होती है जो गुणात्मकता तथा क्षमता में दूसरी अवस्था से भिन्न होती है। इस अन्तर को जो प्रत्येक अवस्था में होता है तार्किक संरचनाओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। इसे ज्ञानात्मक विकास के निम्न स्तरों द्वारा समझाया जा सकता है जिसे पियाजे ने अपने सिद्धान्त के निर्माण में वर्णन किया है।

मन्तव्य या स्कीम्स (Schemes)- पियाजे ने उन व्यवहार के प्रतिमानों को स्कीम्स कहा जो बालक और युवा संसारी वस्तुओं के साथ अपने कार्यों में प्रयोग करते हैं। स्कीम्स सरल हो सकते हैं जैसे कि बालक के व्यवहार का प्रतिमान जब वह जानता है कि जो वस्तु उसकी पहुँच में है उसे कैसे पकड़ा जाता है अथवा जटिल हो सकते हैं जैसे कि जब एक विद्यार्थी गणित की कठिन समस्याओं को हल करना सीखता है। स्कीम्स का वर्गीकरण व्यावहारिक अथवा ज्ञानात्मक में किया जा सकता है। वह व्यावहारिक उस समय है जब कार्य वस्तु को पकड़ने का अथवा साइकिल चलाने का है। वह ज्ञानात्मक उस समय है जबकि कार्य समस्या हल का अथवा अवधारणाओं के सीखने का है। शिशु वस्तुओं के बारे में उन स्कीम्स के प्रयोग द्वारा सीखते हैं जो कि उन्होंने विकसित किये हैं जो स्कीम्स शिशु विकसित करते हैं वह वस्तु को पत्थर पर फेंक कर उसकी आवाज सुनना अथवा वस्तु का स्वाद चखना, अथवा वस्तु को पृथ्वी पर लुढ़का देना इत्यादि हो सकते है।

पियाजे के अनुसार संगठन स्कीम्स बनाने की प्रक्रिया है एवं स्कीम्स मानसिक प्रतिमान या प्रणाली है जो यह वर्णन करते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति संसार के सम्बन्ध में चिन्तन करते हैं। स्कीम्स चिन्तन के निर्माण के पत्थर है।

आत्मसातकरण अथवा ऐसीमीलेशन (Assimilation)- दूसरी अवधारणा, जिसका प्रयोग पियाजे ने किया, वह ‘ऐसीमीलेशन’ है। यह उस समय होता है जबकि बालक एक स्कीम का प्रयोग नयी वस्तु पर करता है। स्कीम दाँत काटना, पटकना अथवा लुढ़काना हो सकती है। मूल रूप से ऐसीमीलेशन एक नयी वस्तु अथवा घटना को वर्तमान स्कीम में सम्मिलित करने की प्रक्रिया है। किन्तु यह आवश्यक है कि जिस वस्तु अथवा घटना का समावेश करना है वह प्रस्तुत स्कीम में नियोजित हो सके। एक छोटे बालक को यदि एक नई वस्तु दी जाए जो उसने कभी नहीं देखी है किन्तु जो जानी-पहचानी वस्तुओं से मिलती-जुलती है तो वह उन स्कीम्स को, जो उसने पहले ही विकसित कर ली है; जैसे— पटकना, काटना, पकड़ना इत्यादि का प्रयोग करेगा। अतएव ऐसीमीलेशन में नवीन सूचना ‘ के साथ-साथ उसका प्रस्तुत स्कीम्स के साथ समावेश होना भी है।

व्यवस्थापन अथवा ऐकोमोडेशन (Accommodation)- यह संकेत देता है उपस्थित स्कीम में बदलाव का, ताकि वह नई वस्तुओं को अपने में सम्मिलित कर सके। अनेक सम वर्तमान स्कीम कार्य में नहीं आ पाती; जैसे- यदि एक बालक को एक शीशे की बोतल दी जाती है और वह पुरानी स्कीम के अनुरूप उसे फर्श पर पटकता है, बोतल तो टूट जायेगी जबकि पत्थर के फेंकने से आवाज ही आती थी। इस प्रकार बालक आवाज सुनने के स्थान पर एक ऐसे परिणाम का सामना करेगा जिसकी उसे आशा नहीं थी (बोतल का टूटना)। इस दशा में बालक स्कीम में परिवर्तन ला सकता है।

इकूलीब्रेशन (Equilibration)- जबकि स्थापित स्कीम पूर्णरूप से नई स्थिति का संचालन नहीं कर सकती है तो पियाजे के अनुसार असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो कि क्या समझा गया और क्या प्रस्तुत हो गया, के बीच में होती है। ऐसी दशा में व्यक्ति असन्तुलन को कम करने की चेष्टा करता है। ऐसा वह अपना अवधान उन उत्तेजकों पर केन्द्रित करके, जिन्होंने असन्तुलन पैदा किया है और नई स्कीम बनाकर करता है अथवा पुरानी में परिवर्तन उस सीमा तक लाता है जब तक असन्तुलन दूर नहीं हो जाये। यह सन्तुलन लाने की प्रक्रिया समतोलन कहलाती है। पियाजे का कहना है कि सीखना इसी प्रक्रिया पर निर्भर है। समतोलन का बिगड़ना बालकों को विकास करने के अवसर प्रदान करता है। जैसे शीशी का टूटना असन्तुलन उत्पन्न करेगा। नई स्कीम अथवा पुरानी में परिवर्तन उसके असन्तुलन को दूर करेगा।

पियाजे के अनुसार, व्यक्तियों में संसार को समझने की तथा यह पता लगाने की कि उनके अस्तित्व में व्यवस्था है, संरचना है तथा पूर्वानुमान है जन्मजात आवश्यकता होती है। वह इस आवश्यकता को समतोलन की अवस्था अथवा एक संतुलन की अवस्था की प्रेरणा कहता है।

समतोलन व्यवस्था की खोज के कार्य में व्यक्ति का अपने संसार को समझने सम्बन्धी परीक्षण निहित हैं जब विद्यार्थी की समझ उन घटनाओं के उपयुक्त होती है अथवा उनकी ठीक व्याख्या करती है जो उसने निरीक्षण की हैं तब वह एक समातोलन की स्थिति में होता है जब वह अपनी समझ के आधार पर उसकी व्याख्या नहीं कर पाता जो वह देखता है तो असंतुलन प्रकट हो जाता है। यह उसे और अच्छी समझ की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि असन्तुलन विकास की ओर एवं स्फूर्ति देने वाली शक्ति है।

शिक्षण देने में असन्तुलन उत्पन्न होता है और विद्यार्थियों को समतोलन प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है विद्यार्थी एक नया दृष्टिकोण विकसित करते हैं और उनके अवबोधन में वृद्धि होती है वैज्ञानिक शिक्षक जब वह चौंकाने वाले प्रयोग प्रदर्शित करते हैं, सामाजिक अध्ययन के शिक्षक जब वह उत्तेजित करने वाले विचार सामने रखते हैं, भूगोल के शिक्षक जब वह विद्यार्थियों को नये देशों की खोजों की ओर उत्साहित करते हैं तो वह असन्तुलन का प्रवेश ही करा रहे होते हैं और इस प्रकार विद्यार्थियों के कौतूहल को जागृत कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप वह नई स्कीम बनाते हैं जो उनमें अच्छी समझ और नवीन अन्तर्दृष्टि उत्पन्न करती है।

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