ज्ञान के स्रोत अथवा ज्ञान के विभिन्न मार्ग
तार्किक दृष्टि से ज्ञान का तात्पर्य प्रतिज्ञप्तियों की सत्यता के ज्ञान से है। पर यहाँ प्रश्न यह उठता है कि प्रतिज्ञप्तियों की इस सत्यता का ज्ञान हमें कैसे होता है अर्थात् इसके लिये हमारे पास कौन-कौन से साधन या स्रोत हैं। आमतौर पर ज्ञान के साधन के रूप में इन्द्रियानुभव तथा तर्क बुद्धि की चर्चा होती है यद्यपि इनके अलावा भी कई साधनों की चर्चा भारतीय तथा पाश्चात्य परम्पराओं में होती है। जैसे भारतीय परम्परा में प्रायः चार साधनों की चर्चा होती है, यद्यपि कभी-कभी छः स्रोतों की भी चर्चा होती है ये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, अपमान, शब्द, अनुपलब्धि तथा अर्थापत्ति। पाश्चात्य परम्परा में दो के अलावा ज्ञान के साधन के रूप में अन्तःप्रज्ञा, आप्तवचन श्रुति, आस्था आदि की भी चर्चा होती है। ज्ञान के साधन के रूप में करीब-करीब सर्वमान्य तथा महत्त्वपूर्ण है । जिन्हें निम्न रूप में देख सकते हैं—
(1) इन्द्रियानुभव (Sense Experience)— ज्ञान के साधन-रूप में इन्द्रियानुभव या प्रत्यक्ष सर्वप्रथम हमारे ध्यान में आता है चूँकि इसी के द्वारा आमतौर पर हमें सांसारिक वस्तुओं से संबंधित प्रतिज्ञप्तियों की सत्यता का ज्ञान होता है । हम इन्द्रियों के द्वारा अनुभव के आधार पर ही यह कहते हैं कि हमारे सामने अमुक वस्तु या वस्तुएँ हैं और उनमें अमुक-अमुक गुण हैं। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा इनके द्वारा क्रमशः देखकर, सुनकर, सूंघ कर, स्वाद लेकर तथा स्पर्श कर हम सांसारिक वस्तुओं के बारे में तरह-तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है।
इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करना साधारणत: बहुत ही सहज तथा सरल मालूम पड़ता है, चूँकि इनमें हम साक्षात प्रत्यक्ष करते हैं कि कोई चीज हमारे सामने या आस पास है और उसके अमुक-अमुक लक्षण हैं। इस ज्ञान में किसी प्रकार के संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं मालूम पड़ती। वास्तविक स्थिति इतना सरल, आसान तथा निर्विवाद नहीं है। कभी-कभी इन्द्रियाँ हमें धोखा भी देती हैं। कभी-कभी हम वैसी चीजों का प्रत्यक्ष कर लेते हैं जो हमारे सामने है ही नहीं या फिर वैसी चीज का प्रत्यक्ष कर लेते हैं जिनके स्थान पर कोई अन्य ही चीज हमारे सामने है। पहले को विभ्रम तथा दूसरे को भ्रम कहते हैं। उदाहरण के लिए मरुभूमि में जल का प्रत्यक्ष करना जो वहाँ है ही नहीं या अपने पीछे-पीछे किसी मनुष्य के आने का अनुभव होना जब कि सचमुच कोई नहीं आ रहा है, विभ्रम है। उसी प्रकार रस्सी की जगह सर्प का प्रत्यक्ष करना या पानी की बूंदों के स्थान पर मोती का प्रत्यक्ष करना भ्रम है । परन्तु फिर इन्द्रियानुभव या प्रत्यक्ष की भूलें इन्द्रियानुभव के द्वारा ही दूर भी की जा सकती हैं, आवश्यकता है अधिक सावधानी और धैर्य की, उदाहरण के लिए जहाँ पानी के संबंध में मोती का भ्रम हो रहा है तो हम और निकट जाकर स्पर्श के द्वारा निश्चित कर ले सकते हैं कि वह पानी है। उसी प्रकार यदि किसी नकली (मिट्टी आदि के बने) आम के संबंध में यह भ्रम हो रहा हो कि वह असली आम है तो फिर उसे हाथ के द्वारा स्पर्श करने से या फिर मुँह में ले जाकर स्वाद के द्वारा हम निश्चित कर सकते हैं कि वह नकली आम है। उसी प्रकार मरुभूमि में जहाँ हमें जल दिखाई दे रहा हो वहाँ निकट पहुँचकर और अच्छी तरह देखकर यह तय कर सकते हैं कि वहाँ कोई जल नहीं है।
इन्द्रयानुभव के द्वारा ज्ञान के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक ऐसे ज्ञान में कोरे इन्द्रियानुभव के अलावा निर्णय की एक क्रिया निहित होती है और इस ज्ञान में जो भूल होती है वह इस निर्णय की भूल के चलते ही होती है। कोरा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, बल्कि उसके आधार पर जब हम कुछ निर्णय करते हैं, जैसे, यह कुर्सी है, इसमें चार पैर हैं, आदि, तो ज्ञान इन निर्णयों के द्वारा ही निर्मित होता है। ये निर्णय ही प्रतिज्ञप्तियों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं जो सत्य-असत्य होते हैं, इन्द्रियानुभव न तो सत्य होता है और न असत्य, वह तो सिर्फ होता है, यानी सिर्फ हमें प्राप्त होता है। इसका जिस प्रकार का हम अर्थ लगाते हैं वैसा ही निर्णय बनता है और वैसा ही ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष इन्द्रियानुभव का गलत रूप में अर्थ लगाने की भूल है।
(2) तर्कबुद्धि (Reason)– यह एक बड़े ही व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिसके अन्तर्गत यह किसी भी ज्ञान, यहाँ तक कि इन्द्रियानुभव द्वारा प्राप्त, ज्ञान की पूर्वामान्यता है। यह मनुष्य के अन्दर (और शायद कुछ कम मात्र में कुछ अन्य प्राणियों के अन्दर भी) मौजूद एक ऐसी क्षमता है जिसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं है। यह अमूर्तीकरण के द्वारा अवधारणाओं के निर्माण की तथा उसके आधार पर एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद करने की वह क्षमता है जिसके बिना कोई ज्ञान संभव नहीं है। हम इन्द्रियानुभव के द्वारा रंग, स्वाद, गंध आदि से संबंधित सिर्फ कुछ संवेदनाएँ प्राप्त करते हैं परन्तु उन्हें जोड़ कर इस बात का ज्ञान प्राप्त करना कि हमारे सामने एक विशिष्ट वस्तु है (जैसे, इस बात पर निर्भर है कि हमारे अन्दर पहले से उस विशिष्ट वस्तु की एक अवधारणा हो जिसके आधार पर उसका भेद अन्य वस्तुओं के साथ कर सकें और तब यह निश्चित कर सकें कि जिस वस्तु हम संवेदनाएँ प्राप्त कर रहे हैं वह अमुक विशिष्ट वस्तु ही है। इस प्रकार की अवधारणा का निर्माण भी एक अर्थ में खुद इन्द्रियानुभव पर निर्भर है, पर इसमें अमूर्तीकरण की एक क्रिया निहित होती है जिसे तर्कबुद्धि सम्पन्न करती है। इस अर्थ में तर्कबुद्धि किसी भी ज्ञान का आधार है।
परन्तु इस व्यापक अर्थ के अलावा तर्कबुद्धि का एक दूसरा भी अर्थ है और वह है तर्कानुमान। अपने इस अर्थ में तर्कबुद्धि इन्द्रियानुभव के अलावा ज्ञान का एक अन्य साधन है। सभी प्रकार के ज्ञान हमें इन्द्रियानुभव के द्वारा ही प्राप्त नहीं हो सकते। उदाहरणार्थ ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ प्रतिज्ञप्ति की सत्यता का ज्ञान हमें इन्द्रियानुभव से नहीं हो सकता चूँकि सभी मनुष्यों को मरते देखना किसी के लिए संभव नहीं है। यह ज्ञान हमें तर्कानुमान के द्वारा होता है। कुछ मनुष्यों की मृत्यु का अनुभव कर उसके आधार पर तर्क के सहारे हम यह अनुमान करते हैं कि सभी लोग एक न एक दिन मरेंगे।
किसी भी तर्कानुमान में एक या अधिक वाक्य आधार वाक्य का काम करते हैं और उनके आधार पर एक अन्य वाक्य अनुमानित किया जाता है जिसे निष्कर्ष कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि ‘सभी मनुष्य पशु हैं’ के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालें कि ‘कुछ पशु मनुष्य हैं’ तो यह तर्कानुमान का एक उदाहरण हुआ यहाँ हमें ‘कुछ पशु मनुष्य हैं’ की सत्यता का ज्ञान ‘सभी मनुष्य पशु हैं’ की सत्यता के आधार पर हुआ।
तर्कानुमान को प्रायः दो तरह का माना गया है-निगमानात्मक तथा आगमानात्मक। निगमनात्मक तर्कानुमान का लक्षण यह है कि यदि वह वैध होगा तो उसके आधार वाक्यों से निष्कर्ष अनिवार्यतः निकलेगा। दूसरे शब्दों में, निगमनात्मक तर्कानुमान में यदि आधार- वाक्य सत्य हो तो निष्कर्ष भी अनिवार्यतः सत्य होगा। यहाँ आधार-वाक्य तथा निष्कर्ष की सत्यता-असत्यता से तात्पर्य उनकी वास्तविक सत्यता-असत्यता से नहीं है। अतः जब हम कहते हैं कि आधार – वाक्यों के सत्य होने से निष्कर्ष अनिवार्यतः सत्य होगा तो इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि आधार वाक्य सत्य हो अर्थात् यदि उन्हें सत्य मान लिया जाय तो निष्कर्ष की भी सत्यता अनिवार्यतः स्वीकार करनी होगी। निगमनात्मक तर्कानुमान का संबंध वैधता अवैधता से होता है, सत्यता-असत्यता से नहीं। सत्य-असत्य प्रतिज्ञप्तियाँ होती हैं, निगमनात्मक तर्कानुमान तो सिर्फ वैध या अवैध होता है। यही कारण है कि वैसा निगमनात्मक तर्कानुमान भी वैध हो सकता है जिसके आधार वाक्य तथा निष्कर्ष सभी वास्तविक दृष्टि से असत्य हों और वैसा निगमनात्मक तर्कानुमान अवैध हो सकता है जिसके आधार – वाक्य तथा निष्कर्ष सभी वास्तविक दृष्टि से सत्य हों।
(3) आप्तवचन (Authority)- भरोसा करने योग्य व्यक्तियों, पुस्तकों आदि द्वारा कहे गये वचनों के आधार पर जो ज्ञान हमें प्राप्त होता उसे आप्तवचन द्वारा प्राप्त ज्ञान कहा जाता है यह ज्ञान हम अपने प्रयासों द्वारा अपनी ज्ञानेन्द्रियों या तर्कबुद्धि का प्रयोग कर नहीं, बल्कि दूसरों के द्वारा कहे गये वचनों या पुस्तकों में लिखी गई बातों के द्वारा प्राप्त करते हैं। वास्तव में यह संभव भी नहीं है कि हम समस्त ज्ञान अपने-आप अपने ज्ञानेन्द्रियों या बुद्धि का प्रयोग कर प्राप्त करें। जीवन बहुत छोटी है और उसकी तुलना में ज्ञान का भंडार असीम है। इसलिए विश्वास करना पड़ता है। इस प्रकार प्राप्त किया गया ज्ञान आप्तवचन द्वारा प्राप्त ज्ञान है। भारतीय परंपरा में इस शब्द ज्ञान की संज्ञा दी गई है।
परन्तु क्या किसी का भी वचन अथवा किसी भी पुस्तक आदि में लिखी कोई बात आप्तवचन है ? स्पष्टतः इसका उत्तर होगा- ‘नहीं। किसी भी वचन को आप्तवचन मानकर उसकी सत्यता को स्वीकार करने में कुछ सावधानियाँ बरतनी होंगी-
(i) सबसे पहले तो हमें यह देखना होगा कि किसी भी बात को बोलने या लिखने वाला व्यक्ति सचमुच उस विषय का एक अधिकारी ज्ञाता या नहीं, जिससे संबंधित कोई बात वह बोल या लिख रहा है। जब तक व्यक्ति को संबंधित विषय में आधिकारिकता प्राप्त न हो अथवा जब तक उस विभाग में जाना-माना एक विशेषज्ञ वह न हो, तब तक उसकी कही या लिखी बातों को आप्तवचन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
(ii) आप्तवचन की स्वीकार्यता इस बात पर भी निर्भर करती है कि संबंधित व्यक्ति द्वारा पहले कही गई अनेकों बातों को हमने जाँचोपरान्त सत्य पाया हो तथा उसके द्वारा कही जाने वाली बात किसी ज्ञात सत्य का विरोधी न हो। दूसरे शब्दों में, किसी भी व्यक्ति की बातों को आप्तवचन के रूप में तभी लिया जा सकता है जब आम धारणा में वह व्यक्ति भरोसेमन्द तथा विश्वासप्रद हो और इसके लिये प्रमुख कसौटी यह है कि उसकी पिछली बातें सत्य सिद्ध हुई हों।
(iii) आप्तवचन का संबंध सिर्फ उस व्यक्ति से ही नहीं है जो कोई बात बोलता या लिखता है पर उस बात से भी है जो वह बोलता या लिखता है। बात ऐसी होनी चाहिये कि यदि हम चाहें, यानी यदि हम आवश्यक समय दे सकें, आवश्यक साधन जुटा सकें और आवश्यक कष्ट उठा सकें, तो फिर अपने भी उस बात की सत्यता की जाँच कर सकें। यदि बात ही ऐसी हो जिसकी सत्यता में विश्वास नहीं किया जा सकता और उसे एक ज्ञान के रूप में नहीं लिया जा सकता। उदाहरण के लिए, विज्ञान संबंधी अनेकों नियमों या सिद्धान्तों की सत्यता की जाँच करना किसी साधारण व्यक्ति के लिये आसान नहीं है, व्यावहारिक रूप में प्राय: असंभव भी है पर तार्किक रूप में असंभव नहीं है। ऐसा सोचा तो जा ही सकता है कि यदि किसी व्यक्ति को विषय संबंधी विशिष्ट तथा लम्बा प्रशिक्षण दिया जाय और सारे तकनीकी प्रयोगों में उसे पारंगत बनाया जाय तो फिर संबंधित नियम या सिद्धान्त की सत्यता की जाँच खुद कर सकता है । परन्तु यदि कोई कहे कि इस विश्व के पीछे एक ईश्वर है जो उसका पालन करता है तो फिर यह प्रतिज्ञप्ति ऐसी है कि हम आस्था के आधार पर ऐसा कहने वाले व्यक्ति या पुस्तक के प्रति श्रद्धा के आधार पर इसकी सत्यता में विश्वास कर ले सकते हैं, पर अपने लिये हम खुद नहीं जानते कि क्या करने से अथवा किस प्रकार हम इसकी सत्यता की जाँच कर सकते हैं। ऐसी बातों संबंधी जानकारी को आप्तवचन द्वारा प्राप्त ज्ञान की संज्ञा हम नहीं दे सकते।
(iv) जहाँ अधिकारी व्यक्तियों के वचनों में आपस में ही मतभेद हो वहाँ तबतक प्रतीक्षा करनी चाहिये जब मतभेद वाले बिन्दु का आगे की जाँचों के द्वारा अन्तिम रूप से निराकरण होकर किसी एक की निश्चित सत्यता सिद्ध न हो जाय।
पर सारी सावधानियों के बावजूद यह तो मानकर ही चलना होगा कि आप्तवचन को एक प्राथमिक तथा मौलिक ज्ञान-साधन के रूप में नहीं लिया जा सकता। आप्तवचन का अन्तिम आधार आप्तवचन ही नहीं होना चाहिये, बल्कि उसका अन्तिम आधार होना चाहिये साक्षात अनुभव या बौद्धि तर्क अथवा बल्कि दोनों के संयोग। हम किसी बात की सत्यता ‘क’ की आधिकारिकता के आधार पर स्वीकार कर सकते हैं, ‘क’ उस बात की सत्यता को ‘ख’ की आधिकारिकता के आधार पर स्वीकार कर सकता है तथा ‘ख’ ‘ग’ की आधिकारिता के आधार पर। पर यह क्रम इसी रूप में चलता नहीं जायेगा। आधिकारिकता के इस क्रम में अन्त में एक ऐसा अधिकारी होना होगा जिसने इस बात की सत्यता का साक्षात् अनुभव किया हो तथा बुद्धि और तर्क के आधार पर भी इसे युक्तिसंगत और सत्य पाया हो ।
ऊपर के विवरण से यह स्पष्ट आभास मिलता है कि आप्तवचन ज्ञान का एक कमजोर साधन है। ऊपर हमने देखा है कि इसे ज्ञान के एक प्राथमिक, मौलिक अथवा स्वतंत्र साधन के रूप में नहीं लिया जा सकता। इसकी वैधता अथवा स्वीकार्यता ज्ञान के अन्य साधनों, जैसे प्रत्यक्ष तथा तर्कबुद्धि पर आधारित है। पर ठीक से विचार करने पर हम पायेंगे कि यह कमजोरी कमोवेश अन्य साधनों में भी विद्यमान है। प्रत्यक्ष, जिसे सबसे प्राथमिक, आधिकारिक तथा स्वतंत्र साधन के रूप में लिया जाता है, उसमें भी यह कमजोरी है। प्रत्यक्ष ज्ञान में भी भ्रम की संभावना है और उसकी वैधता की भी जाँच कभी-कभी उसके अलावा किसी अन्य साधन के द्वारा जैसे तर्कानुमान आदि के द्वारा, करने की आवश्यकता पड़ती है। कभी-कभी तो कहा जा सकता है कि खुद आप्तवचन प्रत्यक्ष द्वारा उत्पन्न भ्रामक ज्ञान को दूर करने में सहायक होता है। उदाहरण के लिए प्रत्यक्ष के द्वारा तो हमें यह ज्ञान होता है। कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चलता है, पर यह यथार्थ ज्ञान कि पृथ्वी चलती है और सूर्य के चारों ओर घूमती है, हमें खगोलशास्त्री के आप्तवचन द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार आप्तवचन की तुलना में यद्यपि प्रत्यक्ष अधिक मौलिक तथा स्वतंत्र ज्ञान का साधन है, पर यह भेद सिर्फ मात्रा का है, प्रकार का नहीं।
(4) अन्तःप्रज्ञा (Intuition)- बहुत निश्चित शब्दों में तो शायद यह परिभाषित करना कि अन्त: प्रज्ञा क्या है संभव नहीं है, पर जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, यह एक आन्तरिक बोध है जिसमें ज्ञान के माध्यम के रूप में कुछ भी स्पष्ट रूप से जैसे कोई ज्ञानेन्द्रिय अथवा उसकी तरह की कोई चीज या फिर बुद्धि अथवा तर्क निहित नहीं मालूम पड़ता पर फिर भी मानों अन्दर से एकाएक एक प्रकाश की ज्योति-सी मालूम पड़ती है और उसमें कुछ . एकाएक हमारे सामने स्पष्ट होता हुआ मालूम पड़ता है। इस प्रकाश को हम ज्ञान या बोध की संज्ञा देते हैं और मानते हैं कि यह ज्ञान अन्तःप्रज्ञा द्वारा हुआ। इस प्रकार कह सकते हैं कि अन्तःप्रज्ञा या अन्तर्बोध हमारे अन्दर निहित एक सहज क्षमता है जो कभी-कभी अनायास रूप से क्रियाशील होकर हमारे अन्दर एक आलोक उत्पन्न करती है और हमें किसी विषय का सहज ज्ञान हो जाता है। इस ज्ञान के कई प्रकार के उदाहरण लिये जा सकते हैं। कभी-कभी हम गणित संबंधी किसी समस्या के समाधान में हर प्रकार का बौद्धिक प्रयास कर थक जाते हैं और समाधान नहीं मिलता, परन्तु फिर कुछ समय या कुछ दिनों बाद अनायास अन्दर से जैसे एक प्रकाश-सा मालूम पड़ता है और सारी समस्या उसमें स्पष्ट होती. हुई मालूम पड़ती है, यानी समाधान मिल जाता है। उसी प्रकार जीवन संबंधी भी कुछ समस्या में हम उलझे रहते हैं और अपने सोच-विचार या दूसरों से परामर्श करने पर भी कुछ रास्ता नहीं मिलता, पर रास्ता चलते कभी मानो अन्दर से एक उजाला-सा प्रतीत होता है और सब कुछ साफ हो जाता, रास्ता मिल जाता है। कभी-कभी किसी मित्र के संबंध में जिसकी कोई सूचना हमें बहुत दिनों से नहीं मिली हम चिन्ता करते-करते इस प्रकार थक जाते हैं कि उसके विषय में चिन्ता करना भी छोड़ देते हैं और उसे भूल जाते हैं। पर एक दिन अनायास मानो अन्दर से एक प्रकाश होता है और इसका भान होता है कि कल मेरा मित्र आ रहा है और वह चला भी आता है। इस प्रकार की चेतना को हम अन्तःप्रज्ञा द्वारा प्राप्त ज्ञान मानते हैं।
परन्तु दर्शन के इतिहास में अनेकों ऐसे विचारक हुए हैं जो उपर्युक्त छोटे-मोटे उदाहरणों को ही सिर्फ अन्तःप्रज्ञा द्वारा प्राप्त ज्ञान के अन्तर्गत नहीं रखते, बल्कि उनका तो मानना है कि विश्व के गूढ़तम रहस्यों, जीवन की उच्चतर वास्तविकताओं, वस्तुओं के मौलिक स्वरूप आदि का ज्ञान हमें अन्तःप्रज्ञा के द्वारा ही होता है। ब्रेडले, बर्गसाँ, राधाकृष्णन आदि जैसे बड़े-बड़े विचारक यह मत रखते हैं कि इन्द्रियानुभव, बुद्धि आदि जैसे साधारण ज्ञान के साधनों के द्वारा तो विश्व की छोटी-मोटी चीजों का ज्ञान हमें उनकी आंशिकता में होता है, वास्तविकता का उसकी समग्रता में ज्ञान हमें अन्तःप्रज्ञा के द्वारा ही होता है। अन्तःप्रज्ञा में वास्तविकता का हमें सीधा साक्षात्कार होता है और हम उसे एक पूर्ण इकाई के रूप में उसकी समग्रता में जानते हैं। आत्म-ज्ञान, मूलभूत सत्ता का ज्ञान आदि जैसे गूढ़ ज्ञान हमें इसी प्रकार प्राप्त होते हैं। उनका कहना कि अन्त: प्रज्ञा द्वारा प्राप्त ज्ञान में ज्ञाता ज्ञेय का द्वैत नहीं रहता, ज्ञाता ज्ञेय के अन्दर प्रवेश कर उसकी आन्तरिकता में उसे जानता है। इसलिए यही ज्ञान वास्तविक ज्ञान है, इन्द्रियानुभव आदि के द्वारा प्राप्त ज्ञान तो बाहरी या सतही ज्ञान होता है।
हमारी जानकारियों के कुछ उदाहरण ऐसे भी होते हैं, जिनके बारे में हम दावा करते हैं कि हमने वैसा अन्तःप्रज्ञा के द्वारा जाना, पर वास्तव में वैसा है नहीं। हम सचमुच इन स्थितियों में कुछ बात इन्द्रियानुभव, बुद्धि या मात्र अन्दाज वगैरह के आधार पर जानते हैं और दावा करते हैं कि अन्तःप्रज्ञा के आधार पर हमने वह जानकारी प्राप्त की। उदाहरण के लिये, कुछ लोग किसी खास व्यक्ति से एक खास मौके पर एक खास प्रकार के व्यवहार की उम्मीद करते हैं, पर एक व्यक्ति का ऐसा मानना है कि वह वैसा नहीं करेगा और मौका आने पर ऐसा होता भी है कि वह वैसा नहीं करता। अब जब सारे लोग उस एक व्यक्ति से यह पूछते हैं कि वह कैसे जानता था कि वह खास व्यक्ति वैसा व्यवहार नहीं करेगा, तो उसका उत्तर होता है ‘अपनी अन्तःप्रज्ञा से। पर वास्तविकता यह है कि वह व्यक्ति उस खास व्यक्ति के स्वभाव के बारे में अन्य व्यक्तियों से कहीं अधिक परिचित था तथा एक दो दिन पहले उसकी उससे उस संबंध में कुछ बातें भी हुई थीं।
कुछ लोग कहते हैं कि अन्तःप्रज्ञा द्वारा प्राप्त ज्ञान अपनी सत्यता का प्रमाण खुद है, वह स्वतः प्रामाण्य है। वह इतना साक्षात् होता है कि उसे अन्य किसी प्रमाण की सहायता की आवश्यकता नहीं। पर अन्तःप्रज्ञा का दावा करने वाले लोगों के आपस का विरोध इस स्वतः प्रामाणिकता को संदेह के घेरे में डाल देता है। अन्तःप्रज्ञा द्वारा मूलभूत सत्ता के वास्तविक ज्ञान जैसे बड़े-बड़े दावे करने वाले लोगों के विरुद्ध यही सबसे बड़ी आलोचना है कि मूलभूत सत्ता संबंधी अन्तः प्रज्ञात्मक ज्ञान संबंधी उनकी सूचनाओं में मेल नहीं है।
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