नगरीय जीवन की विशेषताएँ
नगरीय जीवन की विशेषताएँ निम्नलिखित है-
(1) स्थानीय पृथक्करण (spatial segregation) –
नगरीय समुदाय में श्रम – विभाजन और विशेषीकरण के कारण प्रत्येक कार्य का स्थान पूर्णतया नियत होता है। इसके आध गार पर समाजशास्त्र में क्षेत्रीय सम्प्रदाय’ तक की धारणा विकसित हो गयी है। नगर के बिल्कुल मध्य भाग में वे कार्यालय होते हैं जो सार्वजनिक जीवन के लिए उपयोगी हैं। इनके चारों ओर प्रमुख व्यापारित संस्थान, होटल, रेस्टोरेन्ट तथा मनोरंजन के साधन उपलब्ध होते है। नगर के अन्दर घनी बस्ती वाले क्षेत्र होते हैं जिनमें श्रमिक और कम आय वाले वर्ग निवास करते हैं। सबसे बाहर के क्षेत्र में धनी और प्रतिष्ठित वर्ग के निवास स्थान पर विलासी-संस्थान होते हैं। इस प्रकार नगरीय समुदाय प्रत्येक क्षेत्र में विशेषीकृत होते हैं।
(2) सामाजिक गतिशीलता –
नगरीय समुदाय में स्थानीय गतिशीलता की ही अधिकता नहीं होती, बल्कि सार्वजनिक गतिशीलता भी अपनी चरम-सीमा पर होती है। नगरीय पर्यावरण व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि को महत्व न देकर उसकी व्यक्तिगत सफलताओं को सबसे अधिक महत्व देता है। यहाँ साधारणतया व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे की कार्यक्षमता, अविष्कार करने के गुण तथा व्यवहारकुशलता को महत्व दिया जाता है। इस स्थित में एक व्यक्ति अपने जीवन -काल में ही अपने सामाजिक पद को बहुत ऊँचा उठा सकता है अथवा कुछ समय तक बहुत ऊँची स्थिति में रह लेने के बाद एकाएक सभी सुविधाओं से वंचित हो जाता है। यह परिस्थिति व्यक्ति के सामाजिक जीवन को अत्यधिक असुरक्षित बना देती है।
(3) शिक्षित और तर्क –
प्रधान जीवन – नगरीय समुदाय की अन्तिम महत्वपूर्ण विशेषताशक्षित और विवेकशील जीवन का होना है। राजनीतिक जीवन के केन्द्र होने के कारण नगरों । शिक्षा की सुविधाएं सबसे अधिक होती है और सामाजिक जागरूकता होने के कारण व्यक्ति शिक्षा को सबसे अधिक आवश्यक भी मानते हैं। अन्धविश्वासों और रूढ़ियों का प्रभाव नगर । न्यूनतम होता है। नगरीय पर्यावरण में अधिकांश व्यक्ति ऐसे तथ्य में विश्वास नहीं करते जिसे तक के द्वारा प्रमाणित न किया जा सकता हो। परम्पराओं के प्रति उदासीनता और नवीनता के प्रति प्रेम, नगर की स्थायी विशेषता है। कुछ सामाजिक समस्याएँ जिन्हें सनातनी’ (conservative) कहना उचित होगा, नगरों में बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलती। इस प्रकार नगरीय पर्यावरण
(4) जनसंख्या का आधिक्य –
नगरीय समुदाय की प्रमुख निगरी में जहाँ जनसंख्या का और घनी जनसंख्या का होना है। दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई, घनत्व 10,000 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है, इस स्थिति का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है। इन नगरों के कुछ भागों में जनसंख्या का घनत्व 15,000 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है। इसके परिणामस्वरूप नगरों में अनैतिकता तथा अपराध सामान्य से बात हो जाती है। भारत में, जहाँ आज 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 35 नगरों में यहाँ की कुल नगरीय जनसंख्या का लगभग आधा भाग निवास करता है, नगरों के विशाल आकार का अनुमान लगाया जा सकता है।।
(5) आर्थिक क्रियाओं के केन्द्र –
नगरों का निर्माण आर्थिक जीवन की सफलता से हुआ और आज भी नगरीय समुदाय आर्थिक क्रियाओं के केन्द्र बने हुए हैं। नगर में अधिकतर व्यक्ति बड़ी मात्रा के उत्पादन और प्रशासन सम्बन्धी कार्यों में लगे होते हैं। यातायात, संचार, सुरक्षा व न्याय की अधिक सुविधाएँ होने के कारण सभी साहसी (enterprising) व्यक्ति नगरों ही स्थायी रूप से रहना पसन्द करते हैं। वास्तविकता यह है कि आर्थिक क्रियाओं का केन्द्रीकरण होने के कारण ही नगरों की जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
(6) जनसंख्या में विभिन्नता (Heterogeneity) –
नगरीय समुदाय का आकार ही बड़ा नही होता बल्कि इसकी जनसंख्या में धर्म, भाषा, व्यवसाय और जीवन -स्तर के आधार पर अत्यधिक विषमता भी पायी जाती है। नगरों से विभिन्न भाषा-भाषी धर्मो सम्प्रदायों, विचारों, जातियों, वर्गो व प्रान्तों के व्यक्ति एक साथ रहकर कार्य करते है। उनकी वेश-भूषा, जीवन जीवन स्तर और आदर्शों में अत्यधिक भिन्नता पायी जाती है। इस प्रकार नगर एक ऐसे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ सभी को अपनी रूचि तथा आवश्यकता वाले समूह मिल जाते हैं। व्यक्ति इनमें से किसी भी समूह की सदस्यता प्राप्त करने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र होता है।
(7) विभिन्न आर्थिक वर्ग –
नगरीय समुदाय में यद्यपि व्यक्ति की जाति, धर्म, अथवा सम्प्रदाय को कोई महत्व नहीं दिया जाता लेकिन आर्थिक आधार पर सम्पूर्ण जनसंख्या कुछ वर्गों में बंट जाती है। प्रत्येक वर्ग अपने सदस्यों के हितों के प्रति जागरूक होता है। आर्थिक विषमता इतनी अधिक होती है कि एक ओर कुछ व्यक्तियों का उत्पादन के सम्पूर्ण साधनों पर पूर्ण नियन्त्रण होता है तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी होते है जिन्हें एक समय के भोजन पर ही सन्तोष करना पड़ता है। एक तीसरा ‘मध्यम वर्ग’ सबसे अधिक विषम परिस्थिति में होता है। क्योंकि एक ओर इस वर्ग के व्यक्तियों से सबसे अधिक कार्य की आशा की जाती है और दूसरी ओर इस वर्ग को प्राप्त होने वाली आय इनती कम होती है कि इससे अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी कठिनता से ही हो पाती है। यही वर्ग समाज में सबसे अधिक धर्मभीरू और रूढ़िवादी भी होता है।
(8) सामाजिक समस्याओं का केन्द्र –
आज हम जितनी भी समस्याओं का सामना कर रहें है यदि उनको नगरीय समस्याएँ कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। विशेष रूप से नगरीय समुदाय अपराध, वर्ग- संघर्ष सार्वजनिक भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति, बेकारी, निर्धनता और अस्वस्थ पोषण के केन्द्र हैं। इन समस्याओं का कारण नगर का एक विशेष पर्यावरण है जो व्यक्ति में मानसिक तनाव तथा व्यक्तिवादिता उत्पन्न करके अपराधी व्यवहारों को प्रोत्साहन देता है। अपराध करने के बाद नगर के कोलाहल में अपने को छिपा लेना एक सामान्य सी बात है। यही कारण है कि नगरीय समुदायों के आकार में वृद्धि हाती जा रही है।
(9) व्यक्तिवादिता और प्रतिस्पर्धा (Individualism and Competition) –
नगरीय जीवन में सभी प्रकार की क्रियाओं का आधार व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिवादी धारणाएँ होती हैं। डेविस का कथन है कि नगरों में व्यक्तिवादिता इस सीमा तक पायी जाती है कि व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में अपने को सबसे अधिक चतुर और साधनसम्पन्न प्रमाणित करके अधिकतम लाभों को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, चाहे उसके कार्य से सार्वजनिक जीवन को कितनी भी हानि होने की आशंका क्यों न हो। इसी स्थिति में प्रतिस्पर्धी को जन्म दिया है। वर्तमान समय में नगरों की प्रतिस्पर्धा आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहकर सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक क्षेत्र में भी फैल गयी है। व्यक्ति के सामने एक ही सम्बन्ध प्रधान है जिसे हम आर्थिक सम्बन्ध कहते है। समाज का सांस्कृतिक और राजतीतिक जीवन भी प्रतिस्पर्धा के अभाव से अछूता नहीं रहा है।
(10) द्वैतीयक सम्बन्धों की प्रधानता –
द्वैतीयक सम्बन्धों का अर्थ है अपने हितों की पूर्ति के लिए स्थापित किये गये सम्बन्ध। नगरों में विभिन्न समितियों, समूहों और संगठनों की सदस्यता का आधार द्वैतीयक सम्बन्ध ही है। इसका मुख्य कारण नगरों की जनसंख्या में व्यक्तियों की एक-दूसरे से भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का होना है। नगरों में व्यक्तियों में पारस्परिक सम्बन्ध ही द्वैतीयक होते है, जैसे- पुलिस, न्यायालय तथा कानून आदि। नगरों में व्यक्तिगत स्वार्थ इतने प्रभावपूर्ण होते हैं कि नैतिकता तथा आदर्श-नियमों (social norms) के आधार पर ही नियन्त्रण की स्थापना नहीं की जा सकती।
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