भारतीय कृषि का विकास
भारतीय कृषि (Indian agriculture) के विकास में प्रयोग की जाने वाली नवीन तकनीकें निम्नलिखित है-
1. चकबन्दी –
अच्छे उत्पादन के लिए सबसे पहले जोतों का आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होना अति आवश्यक है । इसीलिए दूर-दूर बिखरे हुए खेतो को चकबन्दी द्वारा एक ही स्थान पर एकत्र किया गया है, जिससे उनमें नये नये वेज्ञानिक कृषि यन्त्रों एवं उपकरणों का प्रयोग करके अधिक-से-अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके।
2. उन्नत किस्मों के बीजों का प्रयोग –
हमारे देश में हरितक्रान्ति के माध्यम से अच्छे किस्म के बीजों का कृषि में प्रयोग करके अधिक-से-अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है । आजकल तो सरकार भी अधिक उपज देने वाले बीजों को उपलब्ध करा रही है । इसके साथ-साथ थोड़े ही समय में पककर तैयार हो जाने वाली फसलों के अच्छे बीज भी कृषि वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम द्वारा सम्भव हो सके है । ऐसे बीजों वाली फसल जल्दी ही पककर तैयार हो जाती है, जिससे दूसरी फसलों को भी बोने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है । इस विधि का प्रयोग करके एक वर्ष में एक ही खेत से तीन फसलों तक की पैदावार ली जाने लगी है।
3. कीटनाशकों का प्रयोग –
कीड़ों, नाशक जीवों, फफूंदी तथा खरपतवार से फसलों की रक्षा के लिए पर्याप्त मात्रा में कृमिनाशकों, कीटनाशकों, फफूंदनाशी और खरपतवारनाशक दवाओं का अधिक-से- अधिक प्रयोग किया जाने लगा है । इस प्रकार अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए फसलों की कीड़ों और कीटों से रक्षा की जाने लगी है । जिसके परिणामस्वरूप खाद्यान्नों का इच्छानुसार उत्पादन प्राप्त होने लगा है ।
4. रासायनिक उर्वरकों तथा जैव खाद्यों का अधिकाधिक प्रयोग –
खेतों में लगातार खेती किये जाने के कारण मृदा की प्राकृतिक उर्वरता में कमी आ जाती है । खेतों की उर्वरता को बनाये रखने के लिए खेतों में जेव खादों का अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाने लगा है । मिट्टी की अनेक समस्याओं को पूरा करने के लिए लवणों तथा खनिजों का उपयोग किया जाता है । मृदा का वैज्ञानिक परीक्षण कर भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाने लगा है । ऐसा करने से भी उत्पादन में खूब वृद्धि
5. जुताई का वैज्ञानिक स्वरूप –
खेतों के अधिकतम उपयोग एवं उनकी रक्षा और संरक्षण के लिए खेतों की जुताई वैज्ञानिक विधि से करना बहुत ही आवश्यक है । मेडबन्दी तथा समोच्चरेखीय जुताई वैज्ञानिक विधि द्वारा शुष्क कृषि में करना अति आवश्यक है । मेडबन्दी तथा समोच्चरेखीय जुताई शुष्क कृषि में बहुत ही लाभकारी होती है । इसके द्वारा मृदा में नमी बनी रहती है तथा उसका अपरदन भी नहीं होता है । भारत देश में बहुफसली खेती, मिश्रित खेती, पट्टीदार खेती तथा फसलों के वैज्ञानिक हेर-फेर से उपजाऊ मृदा की उर्वरता को बनाये रखने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं । इसके द्वारा फसलों का उत्पादन अच्छी मात्रा में होने लगा है।
6. नवीन वैज्ञानिक कृषि –
यन्त्रों एवं उपकरणों का उपयोग-नये- नये वैज्ञानिक कृषि-यन्त्रों एवं उपकरणों का प्रयोग करके कृषि उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि की जा सकती है । इससे न केवल उत्पादन में वृद्धि होती है, अपितु जुताई, बुवाई, निराई, कीटनाशकों और उर्वरकों के छिड़काव, सिंचाई, कटाई, गहाई, परिवहन तथा विपणन में लगने वाले समय की भी पर्याप्त बचत होती है । कुछ कृषि क्षेत्रों में तो एक ही स्थान पर तीन-तीन फसलों का उत्पादन किया जाने लगा है।
7. कृषि उपजों के भण्डारण की व्यवस्था –
प्रतिवर्ष उपजों का बहुत ही बड़ा भाग उचित भण्डारण की व्यवस्था के अभाव में नष्ट हो जाता था। परन्तु वर्तमान समय में निजी क्षेत्र, सहकारी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में अनाजों के भण्डारण की व्यापक व्यवस्था हो गई है । इसके फलस्वरूप अनाज न केवल सुरक्षित रहते हैं बल्कि कृषकों को उनका उचित मूल्य और पारिश्रमिक भी मिलता है और देश में भी उत्पादों के वितरण की उचित व्यवस्था बनी रहती है।
8. सिंचाई सुविधाओं का विस्तार –
अच्छी फसलों के उत्पादन के लिए अधिक लागत तभी ठीक रहती है जब सिंचाई के पर्याप्त साधन हों, क्योंकि भारत में कृषि वर्षा की मात्रा अनिश्चित है । सिंचाई की उचित व्यवस्था न होने से सुधरे हुए बीज तथा रासायनिक उर्वरकों का उपयोग भी बेकार चला जाता है, क्योंकि सूखा पड़ने के कारण आशा के अनुकूल फसलों का उत्पादन नहीं हो पाता । लेकिन अब परिस्थितियाँ काफी हद तक बदल चुकी हैं, अब तो वैज्ञानिक तरीकों से कृत्रिम वर्षा कराकर खेती की जाने लगी है । इससे कृषि उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है ।
9. सहकारी कृषि का प्रचलन –
सहकारी कृषि के द्वारा जोतों के बँटवारे को रोकने के प्रयत्न किये जा रहे हैं । इससे खेतों पर सुगमता से यान्त्रिक उपकरणों का प्रयोग करके अधिक-से-अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए महाराष्ट्र एवं गुजरात राज्यों में सहकारी कृषि को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ।
10. मृदा परीक्षण की सुविधा –
भारतीय भूमि पर प्राचीनकाल से ही खेती होती आ रही है, जिससे मृदा यानी मिट्टी की उपज क्षमता (उर्वरता) में लगातार कमी आती जा रही है । इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए मृदा का उचित परीक्षण किया जाना नितान्त आवश्यक हो गया है । मिट्टी में जिन खनिज पदार्थों की कमी है, उन्हें जैव खादों तथा रासायनिक उर्वरकों की सहायता से पूरा किया जा सकता है ।
11. कृषि ऋणों की व्यवस्था –
हमारे देश में कृषि के विकास को प्रोत्साहित (उन्नत) करने के लिए प्रत्येक जिले में मार्गदर्शक बैंक खोले गये हैं । राष्ट्रीयकृत बैंक भी अब किसानों को आसान शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराने की सुविधा देती हैं । सहकारी भूमि विकास बैंकों की भूमिका इस दिशा में सराहनीय है।
12. कृषि उपजों का लाभकारी मूल्य –
हमारे देश में कृषि मूल्य आयोग, विभिन्न उपजों के लाभकारी मूल्य निर्धारित करता है । इसी आधार पर सरकार प्रतिवर्ष विभिन्न फसलों के समर्थन मूल्यों को तय करती है । जिससे किसानों को विवशता से कम मूल्यों पर अपने अनाजों को न बेचना पड़े।
13. कृषि विकास में विभिन्न संस्थाओं की भूमिका –
राष्ट्रीय बीज निगम, केन्द्रीय भण्डार निगम, भारतीय खाद्य निगम, भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद्, कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि प्रदर्शन फार्मों, डेयरी विकास बोर्ड तथा ऐसी ही अन्य संस्थाओं का भारत देश में गठन किया गया है । कृषक बन्धुओं को कृषि प्रदर्शनी से बहुत ही लाभ पहुँचता है ।
निष्कर्ष – संक्षेप में कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में विभिन्न वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करके उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
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