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बहुभाषिक कक्षाओं के भाषा-शिक्षण (Language Teaching in Multilingual Classrooms)

बहुभाषिक कक्षाओं के भाषा-शिक्षण
बहुभाषिक कक्षाओं के भाषा-शिक्षण

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बहुभाषिक कक्षाओं के भाषा-शिक्षण 

बहुभाषिकता से तात्पर्य है किसी क्षेत्र में एक से अधिक अनेक भाषाओं का प्रचलन होना, जैसे हमारे देश भारत में अनेक भाषा बोली जाती हैं और कहा भी जाता है कि विविधता में एकता, भारत की विशेषता है। जैसे- राजस्थान में राजस्थानी, गुजरात में गुजराती, कर्नाटक में कन्नड़, तमिलनाडु में तमिल, केरल में मलयालम और उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मध्य प्रदेश में हिन्दी। इतना ही नहीं एक प्रांत में ही अनेक भाषा या बोलियाँ प्रचलित हैं यथा-उत्तर प्रदेश में ब्रज, अवधी, कन्नौजी और बिहार में भोजपुरी, मगही, बज्जिका तथा मैथिली बोली जाती हैं।

जिस देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न भाषाएँ प्रचलित हैं वह बहुभाषायी देश कहलाता है वह बहुभाषिकता उस देश की अस्मिता या पहचान होती है।

यद्यपि हमारे देश भारत में बहुभाषाओं के बोले जाने के कारण बहुभाषिक देश कहा जा सकता है लेकिन कुछ व्यक्ति यही समझते हैं कि भारत बहुभाषी हैं, क्योंकि यहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं । क्योंकि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ अधिसूचित हैं।

कुछ लोग समझते हैं कि जनगणना कार्यालय के अनुसार भारत में 22 नहीं, अपितु 1632 भाषाएँ प्रचलित हैं इसलिए भारत बहुभाषी है किन्तु यह सही नहीं है, क्योंकि राजनैतिक या धार्मिक कारणों से जनगणना करते समय कई छोटे-मोटे समुदायों की भाषाएँ एक-दूसरे से पर्याप्त मेल खाती थी, उन्हें अलग-अलग गिना गया और दूसरी ओर भोजपुरी, अवधी, मैथिली, बुन्देली आदि जैसे मुख्य भाषाओं को हिन्दी भाषा के अन्तर्गत गिन लिया गया। वस्तुतः जनगणना में राजनैतिक कारणों से बोलियों को भाषा मान लिया गया और भाषा कहलाने की अधिकारी भाषाओं को हिन्दी का आश्रय लेकर नकार दिया गया।

भाषाविदों के अनुसार एक शब्दकोष एवं कुछ संरचनात्मक नियमों की नियमबद्ध व्यवस्था भाषा है।

इस भाषा के परिप्रेक्ष्य से यदि विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि तथाकथित भाषाएँ भाषा न होकर बोलियाँ हैं और तथाकथित बोलियाँ भाषाएँ हैं जनगणना की राजनीति के लिए मानवीकरण के सामाजिक परिणामों के लिये तथा सामुदायिक हितों के लिये उसमें कोई स्थान नहीं। कतिपय व्यक्ति भाषा को बहुभाषा इसलिए मानते हैं क्योंकि यहाँ समाचारपत्रों, फिल्मों, पुस्तकों, संचार माध्यमों में अनेक भाषाओं में एक साथ काम होता है। कोठारी आयोग से लेकर आज तक त्रिभाषा सूत्र भारतीय शिक्षा का आधार बना हुआ है यह बात अलग है कि कुछ अनुसूचित जातियों के लिये इसका अर्थ रहा है कि चार या पाँच भाषाएँ सीखी जाएँ और कुछ समृद्ध उत्तर भारतीयों के लिये केवल एक या दो भाषा।

बहुभाषिकता को प्रदेश की भाषा सम्पन्न कक्षाओं में एक उपकरण के रूप में प्रयोग करना- भाषा शिक्षण का भारतीय कक्षाओं में एक विशिष्ट स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में भाषा का भी अपना एक महत्व है, क्योंकि भाषा के माध्यम से शिक्षण और अधिगम समीचीन प्रकार से हो सकता है।

शिक्षण में अनेक उपकरण होते हैं, जिनमें से एक भाषा भी हो सकता है, हो ही नहीं सकता, अपितु होता ही है। प्रायः अन्य उपकरणों की तरफ किसी का ध्यान जाता नहीं है क्योंकि भाषा को कोई उपकरण मानने को सहज तैयार नहीं होता।

यदि भाषा नहीं होती तो कोई शिक्षक अपने विचारों और भावों को छात्रों तक कैसे पहुँचा सकता है? इसलिए भारतीय कक्षाओं में भाषा मुख्य उपकरण के रूप में प्रयुक्त होती है।

बहुभाषिकता छात्रों की अधिगम क्षमता को प्रभावित करती है, ऐसा कहा जाता है कि जितनी अधिक भाषाओं का परिचय छात्र को होता है उसकी बौद्धिक क्षमता और अधिगम उतना ही अधिक परिपक्व हो जाता है बहुभाषिकता हम भारतवासियों के लिये शक्ति का अपार स्रोत हैं वे भूल जाते हैं कि हम बहुभाषिकता के बारे में और अधिक संवेदनशील होकर कुछ गहराई से नहीं सोचेंगे तो हम उस प्राचीन सदियों से चली आ रही हमारे घर-घर में बसी अपार सम्पत्ति का कुछ फलदायी उपयोग नहीं कर पायेंगे।

बहुभाषिकता भाषा शिक्षक के लिये सहायक उपकरण के रूप में कार्य करती है वह परस्पर भाषा के विकास को अधिक स्पष्ट कर सकता है लेकिन दुर्भाग्यवश हम निरन्तर एक ‘भाषी देशों में बनाई गई विधियों एवं अधिगम क्षमता समाग्री का उपयोग अपने देश में करते रहे हैं जब व्याकरण एवं अनुवाद पर आधारित विधियों की हवा चली तो हमने अंग्रेजी ही नहीं संस्कृत और उर्दू भी उसी तरीके से पढ़ाई। फिर हमने व्याकरण की छुट्टी कर दी।

आप कल्पना कीजिये एक कक्षा है, जो एक भाषा है, उसमें विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले छात्र हैं उसमें इस बात को न करने की अपेक्षा या इसे एक समस्या बनाने की अपेक्षा इसका अत्यधिक उपयोग कक्षा में ही किया जाना चाहिए। छात्रों का बहुभाषी होना कोई अनूठी बात नहीं है। दिल्ली महानगर के विद्यालयों में अनेक भाषा भाषी छात्रों का एक साथ अध्ययन करना आम बात है।

हिन्दी का मानक स्वरूप- मानक शब्द का अर्थ है मापन करने वाला अर्थात् पैमाना। मानक को अंग्रेजी में स्टैण्डर्ड भी कहा जा सकता है। मानक हिन्दी का मतलब स्टैण्डर्ड लैंग्वेज से है। रामचन्द्र वर्मा ने 1949 में प्रकाशित अपने प्रामाणिक हिन्दी कोष में मानक शब्द प्रयोग किया। इस शब्द का अर्थ निश्चित या स्थिर किया हआ सर्वमान्य मान या माप बताया गया है जिसके अनुसार किसी भी योग्यता, श्रेष्ठता, गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाती है।

हिन्दी के विविध रूपों में ध्यान एक सामान्य तत्त्व है वह मानक हिन्दी में पाया जाता है यह मानक रूप हिन्दी भाषा के दोनों रूप-लिखित और मौखिक दोनों में पाया जाता है।

मानक हिन्दी भाषा वह भाषा है जो सभी अशुद्धियों और त्रुटियों से रहित और व्याकरण सम्मत भाषा है। यह भाषा उच्चारण लेखन के लिये बहुत उपयुक्त होती है मानक हिन्दी भाषा सर्वसम्मत और शुद्ध परिष्कृत भाषा है।

मानक भाषा वह है जो सर्वसम्मत और सुप्रतिष्ठित हो जिसका अपना एक व्याकरण हो। इस भाषा का प्रयोग सभी औपचारिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अवसरों पर किया जाता है। इसके अतिरिक्त शासन और प्रशासन के कार्य भी इसी भाषा में सम्पादित किये जाते हैं।

मानक हिन्दी का स्वरूप सुनिश्चित और सुनिर्धारित होने से इस भाषा को बोलने व समझने में काफी सुविधा होती है अतः मानक हिन्दी में अशुद्धियों से रहित होते और सर्वमान्य भाषा होने से साहित्य की रचना बहुतायत में हुई है। शिक्षा, प्रशासन, विधि एवं चिकित्सा आदि के क्षेत्र में मानक भाषा को अनुवाद ही शोभा देता है। मानक भाषा को अनुवाद की भाषा स्वीकार करके विश्व के श्रेष्ठ साहित्य का मानक भाषा में ही अनुवाद किया जा रहा है। मानक भाषा का अपना एक व्याकरण होता है और उसके अपने नियम होते हैं इसकी स्वतंत्रता लिपि और शब्दावली होती है।

मानक हिन्दी का विकास हिन्दी भाषा की एक बोली, जिसका नाम खड़ी बोली है, आधार पर हुआ । हिन्दी बोली का व्यवहार तो ब्रज, निमाड़, अवध, मालवा आदि क्षेत्रों में पारस्परिक रीति-रिवाज हेतु होता है परन्तु मानक हिन्दी का प्रयोग औपचारिक अवसरों पर ही अक्सर होता है उदाहरण के तौर पर हजारी प्रसाद द्विवेदी भोजपुर निवासी होने से भोजपुरी बोलते थे और मैथिलीशरण गुप्त बुन्देलखण्ड के होने से बुन्देली बोलते थे लेकिन साहित्य रचना तो दोनों ही मानक हिन्दी में करते थे।

बहुभाषिकता और मानकीकरण में घनिष्ठ सम्बन्ध है। निश्चित ही बहुभाषिकता मानकीकरण की प्रक्रिया की प्रथम इकाई है बहुभाषिकता के कारण ही मानकीकरण की आवश्यकता पड़ती है। जब किसी समाज में बहुत सी भाषाएँ प्रचलित होती हैं, विभिन्न क्षेत्रा में विभिन्न भाषा-रूप व्यवहृत होते हैं तब देश की एकता, अखण्डता शैक्षिक विकास तथा अन्य क्षेत्रों में समान विकास के लिए एक सुगठित, व्याकरण सम्मत लिपिबद्ध और सर्वगुण सम्पन्न भाषा की आवश्यकता होती है इसलिए उस बहुभाषा समाज में मानकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मानक भाषा का आधार प्रचलित अनेक भाषाओं में से ही कोई क्षेत्रीय बोली होती हैं, जो सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक कारणों से विकास का अवसर पाकर बृहत्तर क्षेत्रों अथवा समुदायों द्वारा अपना ली जाती है और अन्ततः वही मानक भाषा का पद प्राप्त कर लेती हैं।

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