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भाषा सीखने के उद्देश्य के संदर्भ में कल्पना, रचनात्मकता और संवेदनशीलता के कौशल विकास

भाषा सीखने के उद्देश्य के संदर्भ में कल्पना, रचनात्मकता और संवेदनशीलता के कौशल विकास
भाषा सीखने के उद्देश्य के संदर्भ में कल्पना, रचनात्मकता और संवेदनशीलता के कौशल विकास

भाषा सीखने के उद्देश्य के संदर्भ में कल्पना, रचनात्मकता और संवेदनशीलता के कौशल विकास का विवेचन करें।

किसी कार्य के उद्देश्य ऐसे सुनियोजित और अन्तिम लक्ष्य हैं जिनकी पूर्ति के लिए हमें उनसे सम्बन्धित छोटे-छोटे कार्य करने होंगे। इसका अभिप्राय यह है कि “हम किसी कार्य विशेष की समाप्ति पर जिन लक्ष्यों की सफलता की आशा करते हैं, वे सब उस कार्य के ‘उद्देश्य कहलायेंगे।” उद्देश्यहीन सीखना उस पतवारविहीन नौका के समान है जिसके नाविक को नहीं मालूम कि वह किस किनारे लगेगी।

प्रत्येक उद्देश्य के दो पक्ष होते हैं- एक पक्ष, किये जाने वाले कार्य की विषयवस्तु, जो उद्देश्य का आधार बनाती है तथा दूसरा पक्ष, किये जाने वाले कार्य से होने वाले अपेक्षित परिवर्तन, जो बालक के व्यवहार में दिखाई पड़ते हैं।

भाषा सीखने के उद्देश्य

भाषा सीखने के उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-

(i) बालक ने जो भाषा सीखी है, उस भाषा को अच्छे से बोल सके, समझ सके, पढ सके तथा लिख सके।

(ii) बालक को भाषा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उससे सम्बन्धित विषय-वस्तु और विद्या का ज्ञान प्राप्त होना चाहिए।

(iii) बालक में भाषायी योग्यता और रुचि के परिणास्वरूप सद्वृत्तियों का विकास होना चाहिए।

(iv) बालक को भाषा अर्थग्रहण और अभिव्यक्ति के लिए नहीं सीखनी है, अपितु उसमें सृजनशीलता, कल्पना एवं संवेदनशीलता का भी विकास होना चाहिए।

(v) बालकों में भाषा सीखने के उपरान्त किसी बात के गुण-दोषों को परखना और उसकी समीक्षा करने की क्षमता होनी चाहिए।

(vi) बालक में भाषायी ज्ञान के साथ-साथ उससे सम्बन्धित विषय वस्तु के विषय में रुचि जागृत होनी चाहिए।

(vii) बालक में सीखी हुई भाषा के प्रति सम्मान एवं पूर्ण आस्था होनी चाहिए।

कल्पना का अर्थ

कल्पना (Imagination) एक प्रमुख मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अतीत की अनुभूतियों को पुनर्संगठित करके एक नया रूप दिया जाता है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि कल्पना एक मानसिक जोड़-तोड़ है। रेबर (Reber, 1985) ने कल्पना को इस प्रकार परिभाषित किया है-“गत अनुभूतियों की यादों और गत प्रतिमाओं को पुनर्गठित कर एक नई संरचना करने की प्रक्रिया को कल्पना कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि कल्पना एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया (Mental process) है जिससे पूर्व अनुभूति के आधार पर व्यक्ति कुछ नये विचारों का सृजन करता है। जब व्यक्ति अपनी ओर से किसी नये विचार की रचना करता है, तो इस प्रकार की कल्पना को सर्जनात्मक कहा जाता है। साथ ही व्यक्ति जब किसी ऐसे विचार सामने प्रस्तुत करता है जिसे वह वास्तव में दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त किये होता है तो इस प्रकार की कल्पना को अनुकूल कल्पना कहा जाता है।

कल्पना कौशल का विकास

बालकों में कल्पना कौशल का विकास निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. भाषा (Language)- भाषा का ज्ञान कल्पना के विकास में एक प्रमुख सहायक कारक है। बालकों में भाषा का ज्ञान जितना अधिक बढ़ता है, उसमें कल्पना करने की क्षमता .का विकास भी तेजी से होता है। भाषा के ज्ञान के अभाव में बालक की कल्पना – शक्ति भी अत्यधिक विकसित नहीं हो पाती है। लगभग 5 से 6 वर्ष की आयु के बालक कल्पना के आधार पर थोड़ा-थोड़ा दूसरों का अनुकरण करना सीख जाते है, क्योंकि इस अवस्था तक के बालकों का शब्द – ज्ञान और भाषा ज्ञान इतना विकसित हो जाता है कि वह भाषा द्वारा अपनी सभी आवश्कताओं की अभिव्यक्ति कर लेता है।

भाषा द्वारा बालक की विचार क्षमताओं को विकसित किया जाता है और विचारों द्वारा बालक के कल्पना कौशल का विकास किया जाता है। इसलिए बालक के शब्द-ज्ञान और भाषा-ज्ञान द्वारा उसमें कल्पना कौशल को भली-भाँति विकसित किया जा सकता है।

2. कहानियाँ (Stories)- बालकों में कल्पना कौशल के विकास में कहानियाँ भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करती हैं। कहानियों से नये-नये शब्दों का ज्ञान भाषा-शैलियों का ज्ञान और साथ-साथ कहानियों से कल्पनाशीलता का भी विकास होता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर जब अपनी दादी से कहानी सुनते थे तब वे खाने-पीने की सुध भूल जाते थे। उन्होंने कहा है–’सत्य का दर्शन तो केवल काल्पनिक जगत् में ही हो सकता है।” पंचतंत्र हितोपदेश और अलिफ लैला की कहानियाँ अधिक रोचक ही नहीं, बल्कि बालकों की कल्पन’-शक्ति को विकसित करने का श्रेष्ठ माध्यम हैं। दुःख-सुख, हास्य, वीरता, साहस जादूगर, राजा-रानी और परी लोक की कहानियाँ बालकों में कल्पना कौशल के विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायक साबित हो सकती है।

3. नाटक, अभिनय, कार्य भूमिका (Dreama or Role Playing) – बालकों में कल्पना-कौशल के विकास का अभिनय भी महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अभिनय के पात्र से बालक साहस, वीरता, नैतिकता, हास्य, उच्च मनोबल आदि सीखकर पात्रों के समान अपने जीवन को ढालता है, वह स्वयं में पात्र की कल्पना करता है, इससे उसका अनुभव और कल्पना-शक्ति का विकास होता हैं गाँधीजी के जीवन पर श्रवण कुमार नाटक और हरिश्चन्द्र नाटक का प्रभाव पड़ा था। ऐसा उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है। बालक जब गुड्डे-गुड़िया, चोर-सिपाही, डॉक्टर मरीज, हाथी-घोड़ा जैसे खेल व खिलौने के साथ खेलते हैं, उस समय उनकी जो कार्य भूमिकाएँ होती हैं, उनके करने से बालकों की कल्पना में कल्पना – कौशल का विकास किया जा सकता है।

4. कविताएँ (Poetries) – बालकों में कल्पना कौशल के विकास में कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाती हैं। जिन कविताओं में कल्पना का पुट जितना अधिक होता है, वे कविताएँ कल्पना-कौशल के विकास में उतनी ही अधिक महत्त्वपूर्ण साधन होती हैं। सूर के बाल-वर्णन के पद आज भी बालक के समक्ष कृष्ण के बालरूप का चित्र उपस्थित कर देते हैं।

5. साहित्य, चित्रकारी आदि (Literature, Drawing etc.)- बालकों में कल्पना-कौशल को साहित्य, चित्रकारी, शिल्प और संगीत आदि भी महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। इन सभी साधनों द्वारा बालक प्रारम्भ से ही अपने आपको अभिव्यक्त करना सीखता है इस प्रकार की अभिव्यक्ति जितनी ही अधिक होती है, उसकी कल्पना-शक्ति का विकास उतना ही अधिक होता है।

6. अन्य भाषायी माध्यम- वाद-विवाद, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन, पत्र एवं विभिन्न पत्रिकाओं द्वारा पढ़कर भाग लेकर, कार्यक्रम प्रस्तुत करके भी बालकों में कल्पना कौशल को बढ़ाया जा सकता है। बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रम, कार्टून फिल्में तो बचपन से ही। बालकों को कल्पनाशील बनाने में सहायक हैं।

कल्पना-कौशल का विकास करने में अनेक माध्यमों से भाषा अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। भाषा के अभाव में व्यक्ति की कल्पना-शक्ति का विकास करना सम्भव नहीं है।

रचनात्मक कौशल का विकास भाषा की सहायता वैसे तो व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है किन्तु रचनात्मकता कौशल के विकास में भाषा अपनी अहम् भूमिका निभाती हैं।

रचनात्मक का अर्थ (Meaning of Creativity)

रचनात्मक का सामान्य अर्थ मौलिकता (Originality) से लगाया जाता है। ड्रेवडाल (Drevdohl) के अनुसार–“रचनात्मकता व्यक्ति की उस क्षमता को कहा जाता है जिससे वह कुछ ऐसी चीजों, रचनाओं या विचारों को पैदा करता है जो नया होता है एवं जो पहले से उसे ज्ञात नहीं होता।”

स्टेन के अनुसार – ” जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो, जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मक या रचनात्मक कहलाता है। “

जेम्स ड्रेवर के अनुसार – ” रचनात्मकता मुख्यतः नवीन रचना या उत्पादन में होती है।”

सोचता मानव स्वभाव से ही विचारशील प्राणी है। प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल कुछ-न-कुछ रहता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि चौबीस घण्टे में व्यक्ति के मस्तिष्क में 60,000 विचार बनते और बिगड़ते हैं। इन विचारों में कुछ विचार ऐसे भी हो सकते हैं जो सार्थक हैं। यदि उन विचारों को अन्य व्यक्तियों तक पहुँचाया जाये तब हो सकता है कि वह विचार समाज एवं राष्ट्र के विकास में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। बालक के मस्तिष्क में जन्म लेने वाले विचारों को यदि भाषा द्वारा रचनात्मक ढंग से अभिव्यक्त करना सिखा दिया जाये तो भविष्य में बालक अच्छा साहित्यकार, गीतकार और दार्शनिक बन सकता है। यह अनुमान लगाना मुश्किल कार्य है कि किस बालक के अन्दर कौन-सी प्रतिभा छिपी हुई है। बालक की छिपी आन्तरिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति भाषा द्वारा ही करायी जा सकती है। बालकों में रचना कौशल का विकास निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(1) निबन्ध कला-निबन्ध वह रचना है जिसके द्वारा किसी भी विषय पर सुसंगठित विचार व्यक्त किये जा सकते हैं। जैसे कि निबन्ध शब्द से ही स्पष्ट होता है-सुसम्बद्धता, सुसंगठित और श्रृंखलाबद्धता इसके आवश्यक गुण हैं। ये गुण भाषा एवं विषयवस्तु दोनों पक्षों में प्रतिबिम्बित होने चाहिए।

निबन्ध लिखने के लिए किसी बहुत बड़े शास्त्रीय विषय की आवश्यकता नहीं पड़ती । बहुत आसान आस-पास की घटनाओं या जीवन से सम्बन्धित विषय-वस्तु पर भी अच्छे है। निबन्ध लिखे जा सकते हैं। निबन्ध लेखन की प्रारंभिक अवस्था में बच्चे को उसके आस-पास की सरल वस्तुओं और विषयों को विषय सामग्री कर देना चाहिए। प्रारम्भ में दस-पन्द्रह वाक्यों द्वारा विषय सामग्री का स्थूल वर्णन करना सिखाया जाये। फिर धीरे-धीरे उसकी योग्यता को विकसित किया जाये और उसको स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर करना चाहिए।

जैसे-जैसे बालक आगे कक्षाओं में बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे उसकी भाषा, अनुभव एवं शब्दकोश में वृद्धि होती जायेगी। इसी प्राथमिक स्तर पर आसान विषय, उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर निबन्ध लेखन के लिए गहन वैचारिक और कठिन विषयों को चुना जा सकता है। अच्छे निबन्ध लेखन के लिए बालकों को समय-समय पर मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन अवश्य मिलता रहना चाहिए, जिससे उनकी रचना में और निखार लाया जा सकता हैं।

निबन्ध रचना द्वारा बालकों की भावनाओं, वैचारिक दृष्टिकोण, आकांक्षाओं और भाषा-ज्ञान का आसानी से पता लगाया जा सकता है, क्योंकि उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति का रचना-कौशल पर अवश्य प्रभाव पड़ता है। अतः बालकों में रचनात्मक कौशल का विकास करने में निबन्ध रचना सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

2. कहानी कला- कहानी विधा बालकों की सर्वप्रिय विधा है। कहानी पढ़ना और सुनना मानव को प्रत्येक आयु में अच्छा लगता है। बदलाव बस इतना हो सकता है कि आयु के साथ-साथ कहानी के विषयों की गम्भीरता और भाषा-शैली में परिवर्तन होता रहता है। बालक बाल्यावस्था से ही विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ करता रहता है। उन्हीं कल्पनाओं को पत्रों द्वारा सजीव भाषायी वर्णन कहानी का स्वरूप धारण कर लेता है। कहानी कला का प्रारम्भिक अवस्था में विकास चित्रों की सहायता से वर्णन करवाकर या बातचीत करके प्रेरित किया जा सकता है। फिर अनुभव की गयी घटनाओं के आधार पर कहानी रचना को विकास की ओर अग्रसर किया जा सकता है।

माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर दी हुई रूपरेखा के आधार पर कहानी रचना का अभ्यास कराया जा सकता है। अंत में बालकों को काल्पनिक स्थितियों पर भी कहानी रचना के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

बालकों में कहानी द्वारा रचनात्मक कौशल का विकास किया जाना भाषा की सबसे उत्कृष्ट सेवा होगी। कहानी कला में बालकों की रचनात्मकता के साथ कल्पना-शक्ति एवं संवेदनाओं की भी अच्छी अभिव्यक्ति होती है। अच्छे कहानी लेखन के लिए बालकों को समय-समय पर प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन देते रहना आवश्यक है, जिससे बालकों का मनोबल ऊँचा होता रहता हैं इसके उपरान्त उनकी रचनात्मक क्षमता में और अधिक निखार आता है। प्रारम्भिक अवस्था से ही अच्छे मार्गदर्शन और प्रोत्साहन के मिलने से बालक को भविष्य में अच्छे कहानीकार के रूप में स्थापित किया जा सकता है।

(3) कविता कला- कविताएँ बालकों को आसानी से याद हो जाती हैं। साथ ही यदि। कविता छोटी और गाने में आसान है तब बालक उसे बहुत मन लगाकर पढ़ता है। कविता कला के द्वारा भी बालकों में रचनात्मक कौशल का विकास किया जा सकता है। कविता करना आसान कार्य नहीं है किन्तु अनवरत अभ्यास और उचित मार्गदर्शन द्वारा सीखा भी। जा सकता है। प्रारम्भिक अवस्था में बालक को कोई दृश्य दिखाकर या बताकर चार-चार पंक्तियों में तुकबन्दी करना सिखाया जाये। उसके उपरान्त शनैः-शनै: साहित्यिक भाषा का विकास करते हुए बालक को आगे बढ़ाया जाये। कभी-कभी बालक छोटी अवस्था में ही अच्छी कविता करना सीख जाते हैं। यदि किसी बालक में ईश्वर-प्रदत्त कविता करने का गुण है तो सही मार्गदर्शन और प्रोत्साहन द्वारा उसके रचनात्मक कौशल का और अच्छा विकास किया जा सकता है। रचनात्मक कौशल का विकास कविता द्वारा अच्छी प्रकार से हो सकता है।

(4) पत्र-लेखन कला- पत्र – लेखन द्वारा रचनात्मक कौशल का विकास करना अत्यन्त आसान कार्य है, क्योंकि पत्र लेखन में किसी बहुत लम्बे-चौड़े लेख की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें सीमित शब्दों द्वारा अपने भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। यह जीवन की वास्तविक स्थिति से सम्बन्धित विधा है। पत्र लेखन विधा में अत्यधिक कल्पनाओं की आवश्यकता नहीं होती है। पत्र – लेखन में निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। अतः पत्र रचना का भाषायी विकास के साथ एक उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि उद्देश्यपूर्ण सम्प्रेषण की कुशलता का विकास भी छात्रों में हो सकें। प्रारंभिक अवस्था में बालकों को सीधे-सीधे पत्र लेखन सिखाया जाये, जब वह सम्बोधन आदि लिखना सीख जाये, तत्पश्चात् उनको साहित्यिक, रचनात्मकतापूर्ण पत्र लेखन सिखाना चाहिए। रचनात्मक कौशल के विकास में पत्र-लेखन कला भी महत्त्वपूर्ण सहायक है।

संवेदनशीलता का विकास

संवेगात्मक विकास बालक के विकास का महत्त्वपूर्ण आधार है। क्रोध व ईर्ष्या करने वाला बालक दूसरे की घृणा का पात्र बन जाता है। इसके विपरीत प्रेम और विनोद से परिपूर्ण बालक सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। जब बालक का संवेगात्मक विकास ठीक से नहीं होता तब उसका विकास विकृत और कुण्ठित हो जाता है।

रॉस के अनुसार- “संवेग चेतना की वह अवस्था है, जिसमें रागात्मक तत्त्व की प्रधानता रहती है।”

प्रेम, हर्ष, भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि संवेग हैं जो समय-समय पर बालक को प्रभावित करते हैं। भाषा द्वारा बालक के संवेगात्मक विकास को एक दिशा प्रदान की जा सकती है। भाषा द्वारा बालक को संवेदनशीलता के कौशल का विकास किया जा सकता है।

भाषा शिक्षण द्वारा निम्न संवेग कौशल का विकास जा सकता है-

जिज्ञासा – बालकों में विषय-वस्तु के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करनी चाहिए। यदि बालक जिज्ञासु नहीं है तब उसको विषय-वस्तु को नहीं सिखाया जा सकता इसलिए विभिन्न उदाहरण देकर बालकों में सबसे पहले जिज्ञासा कौशल का विकास करना आवश्यक है।

हर्ष (आनन्द)- बालकों को विभिन्न प्रकार की साहित्यिक विधाओं से अवगत कराकर आनन्दित करना किन्तु यदि बालक उसके आशय को नहीं समझ रहा है तब सम्पूर्ण साहित्य उसमें छिपे हुए रस का आनन्द लेना सिखाना आवश्यक है। साहित्य का उद्देश्य है-हृदय को उसके लिए नीरस और व्यर्थ हो जायेगा। साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए उसके (बालक) अन्दर हर्ष कौशल का विकास आवश्यक है। जब बालक को साहित्य में आनन्द आने लगेगा तब बालक का रुझान साहित्य की ओर बढ़ेगा और पठन एवं अध्ययन करना वह सीख जायेगा। साहित्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने के लिए बालक में हर्ष (आनन्द) नामक संवेदना कौशल का विकास करना ही पड़ेगा, अन्यथा बालक को साहित्य से अरुचि हो जायेगी। अनेक हास्य और मनोरंजन पुस्तकों द्वारा आनन्द कौशल का विकास किया जा सकता है।

स्नेह (प्रेम, आदर) – भाषा शिक्षण द्वारा बालकों में प्रेम, स्नेह, आदि के संवेदनशीलता कौशल को विकसित किया जा सकता है। अनेक उदाहरणों द्वारा कहानियों, नाटकों, चलचित्र, दृष्टान्त द्वारा बालकों में इन संवेगात्मक कौशलों का विकास किया जा सकता है। साथ ही बालकों को इन संवेगों का जीवन में महत्व एवं आवश्यकता के विषय में बताना होगा कि यदि जीवन में यह संवेग नहीं है तब मानव को जीवित रहना ही व्यर्थ है। मानव जीवन के लिए यह सभी संवेग अत्यन्त आवश्यक हैं। निरन्तर प्रयास करके बालकों में इन संवेदनाओं को उत्पन्न किया जा सकता है।

करुणा एवं दया– भाषा शिक्षण द्वारा बालकों में दया एवं करुणा कौशल का विकास किया जा सकता है। दूसरों के प्रति हृदय में करुणा एवं दया होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि बालक को प्रारम्भ से ही दया एवं करुणा के महत्त्व को नहीं समझाया या बताया गया तब बालक स्वभाव से क्रूर एवं निर्दयी बन सकता है, जो समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है इसलिए बालक के समाज उत्तम समायोजन के लिए उसमें दया और करुणा संवेग कौशल को उत्पन्न करना ही होगा। इसके लिए बालकों को महात्मा बुद्ध एवं अन्य करुणामय महापुरुषों के जीवन चरित्र से अवगत कराकर और उनसे सम्बन्धित कहानियाँ पढ़ाकर करुणा एवं दया नामक संवेदनशीलता को बढ़ाया जा सकता है।

क्रोध, ईर्ष्या, लज्जा आदि का मार्गान्तरीकरण- क्रोध, ईर्ष्या, लज्जा आदि संवेदनाओं को दमन करके उनके स्थान पर प्रेम, दया, करुणा आदि का विकास करना। उपर्युक्त संवेग समाज के लिए उचित नहीं। इन संवेगों का मार्गान्तरीकरण उचित दिशा में करना चाहिए।

बालकों में संवेदनशीलता कौशलों का विकास करने के लिए पहले उसमें विभिन्न संवेगों को उत्पन्न करना होगा। प्रारम्भ से ही उसमें संवेगों का उचित प्रयोग एवं प्रकटीकरण कराकर उसे संवेदनशील बनाया जा सकता है। प्रारम्भ में बालक में जहाँ अनेक दैवीय गुण पाये जाते हैं, वहीं पर उसमें कुछ असुरी प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं। इन असुरी प्रवृत्तियों का दमन करके उसमें दैवीय गुणों को उत्पन्न करना ही संवेदनशीलता कौशल का विकास करना है। समाज तथा विद्यालय में अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए बालक को संवेदनशील बनाना ही पड़ेगा। संवेदनशीलता के अभाव बालक का स्वभाव समाज के प्रतिकूल भी बन सकता है जो समय-समय पर समाज को हानि पहुँचाता रहेगा। एक शिक्षित व्यक्ति से समाज यह आशा रखता है कि उसमें वे सभी गुण विद्यमान होंगे जो एक आदर्श नागरिक में आवश्यक हैं। भाषा शिक्षण एक सशक्त साधन है जिसके द्वारा बालक में संवेदनशीलता कौशल का विकास किया जा सकता है।

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