कल्पना का अर्थ (Meaning of Imagination)
कल्पना का अर्थ (Meaning of Imagination)– कल्पना का अभिप्राय उस मानसिक प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा अतीत की अनुभूतियों को पुनर्संगठित करके एक नया रूप दिया जाता है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि कल्पना एक मानसिक जोड़-तोड़ है। रेबट ने कल्पना को इस प्रकार परिभाषित किया है-गत अनुभूतियों की यादों और गत प्रतिमाओं को पुनर्गठित कर एक नई संरचना करने की प्रक्रिया को कल्पना कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कल्पना एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिससे पूर्व अनुभूति के आधार पर व्यक्ति कुछ नये विचारों का सृजन करता है। जब व्यक्ति अपनी ओर से किसी नये विचार की रचना करता है, तो इस प्रकार की कल्पना को सृजनात्मक कहा जाता है। साथ ही व्यक्ति जब किसी ऐसे विचार को सामने प्रस्तुत करता है जिसे वह वास्तव में दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त किये होता है तो इस प्रकार की कल्पना को अनुकूल कल्पना कहा जा सकता है।
कल्पना का विकास (Development of Imagination)
कल्पना का विकास निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
1. भाषा (Language) – भाषा का ज्ञान कल्पना के विकास में एक प्रमुख सहायक कारक है। एक बालक में भाषा का ज्ञान जितना अधिक बढ़ता है, उसमें कल्पना करने की क्षमता का विकास भी तेजी से होता है। भाषा के ज्ञान के अभाव में बालक की कल्पना शक्ति भी अत्यधिक विकसित नहीं हो पाती है। लगभग 5 से 6 वर्ष की आयु के बालक कल्पना के आधार पर थोड़ा-थोड़ा दूसरों का अनुकरण करना सीख जाते हैं, क्योंकि इस अवस्था तक के बालकों का शब्द ज्ञान और भाषा ज्ञान इतना विकसित हो जाता है कि वह भाषा द्वारा अपनी सभी आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति कर लेता है।
भाषा द्वारा बालक की विचार क्षमताओं को विकसित किया जाता है और विचारों द्वारा बालक के कल्पना कौशल का विकास किया जाता है। इसलिए बालक के शब्द ज्ञान और भाषा ज्ञान द्वारा उसमें कल्पना कौशल को भली-भाँति विकसित किया जा सकता है।
2. कहानियाँ (Stories) – बालकों में कल्पना कौशल के विकास में कहानियाँ भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करती हैं। कहानियों से नये-नये शब्दों का ज्ञान, भाषा-शैलियों का ज्ञान और साथ-साथ कहानियों से कल्पनाशीलता का भी विकास होता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर जब अपनी दादी से कहानी सुनते थे तब वे खाने-पीने की सूध भूल जाते थे। उन्होंने कहा है-“सत्य का दर्शन तो केवल काल्पनिक जगत् में ही हो सकता है।” पंचतन्त्र, हितोपदेश और अलिफ लैला की कहानियाँ अधिक रोचक ही नहीं, बल्कि बालकों की कल्पना-शक्ति को विकसित करने का श्रेष्ठ माध्यम हैं। दु:ख-सुख, हास्य, वीरता, साहस, जादूगर, राजा-रानी और परी लोक की कहानियाँ बालकों में कल्पना कौशल के विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायक साबित हो सकती हैं।
3. नाटक, अभिनय, कार्य-भूमिका (Drama or Role playing) – बालकों में कल्पना-कौशल के विकास को अभिनय भी महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अभिनय के पात्र से बालक साहस, वीरता, नैतिकता, हास्य, उच्च मनोबल आदि सीखकर पात्रों के समान अपने जीवन को ढालता है, वह स्वयं में पात्र की कल्पना करता है, इससे उसका अनुभव और कल्पना-शक्ति का विकास होता है। गाँधीजी के जीवन पर श्रवणकुमार नाटक और हरिश्चन्द्र नाटक का प्रभाव पड़ा था। ऐसा उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है। बालक जब गुड्डे-गुड़िया, चोर-सिपाही, डॉक्टर मरीज, हाथी-घोड़ा जैसे खेल व खिलौने के साथ खेलते हैं, उस समय उनकी जो कार्य भूमिकाएँ होती हैं, उसे करने से बालकों के कल्पना-कौशल का विकास किया जा सकता है।
4. कविताएँ (Poetries) – बालकों में कल्पना कौशल के विकास में कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाती है। जिन कविताओं में कल्पना का पुट जितना अधिक होता है, वे कविताएँ कल्पना-कौशल के विकास में उतनी ही अधिक महत्त्वपूर्ण साधन होती हैं। सूर के बाल-वर्णन के पद आज भी बालक के समक्ष कृष्ण के बालरूप का चित्र उपस्थित कर देते हैं।
5. साहित्य, चित्रकारी आदि (Literature, Drawings etc.)- बालकों में कल्पना-कौशल को साहित्य, चित्रकारी, शिल्प और संगीत आदि भी महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते इन सभी साधनों द्वारा बालक प्रारम्भ से ही अपने आपको अभिव्यक्त करना सीखता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति जितनी ही अधिक होती है, उसकी कल्पना-शक्ति का विकास उतना ही अधिक होता है।
6. अन्य भाषायी माध्यम- वाद-विवाद, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन, पत्र एवं विभिन्न पत्रिकाओं द्वारा पढ़कर भाग लेकर, कार्यक्रम प्रस्तुत करके भी बालकों में कल्पना कौशल को बढ़ाया जा सकता है। बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रम, कार्टून फिल्में तो बचपन से ही बालकों को कल्पनाशील बनाने में सहायक हैं।
कल्पना-कौशल का विकास करने में अनेक माध्यमों से भाषा अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। भाषा के अभाव में व्यक्ति की कल्पना-शक्ति का विकास करना सम्भव नहीं है।
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