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भाषा एवं समाज के संबंध | Relationship of Language and Society in Hindi

भाषा एवं समाज के संबंध
भाषा एवं समाज के संबंध

अनुक्रम (Contents)

भाषा एवं समाज के संबंध (Relationship of Language and Society)

किसी भी सामाजिक समूह का अंग बनने में भाषा एक सशक्त माध्यम है। भाषा के माध्यम से व्यक्ति समूह के सदस्यों के मध्य अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं जिससे प्रत्येक व्यक्ति दूसरों की बहुत सी बातों को अपने जीवन में अपनाता है और वह समाज के रीति-रिवाजों, आदर्शों, परम्पराओं एवं नियमों को सीखता है। भाषा के माध्यम से ही प्रत्येक व्यक्ति समाज में व्यक्तियों के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करता है। जो व्यक्ति बहिर्मुखी होते हैं, वे समाज एवं समूह के साथियों के मध्य लोकप्रिय होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति अन्तर्मुखी होते हैं, वे सदैव शान्त रहते हैं, अनेकानेक प्रतिभाएँ होने पर भी वे समाज में लोकप्रिय नहीं हो पाते हैं। भाषा के द्वारा कोई भी व्यक्ति समूह का नेतृत्व प्राप्त कर सकता है क्योंकि वाक् चातुर्य में दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता होती है । अतः भाषा सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण में सहायता प्रदान करती है। एलिस के अनुसार, “भाषा वह प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने समाज को प्रभावित करता है तथा समाज से प्रभावित होता है।”

भाषा एवं समाज का सम्बन्ध तीन रूपों में देखा जा सकता है-

1. पहचान (Identity) – भाषा के माध्यम से ही बहुत से प्रान्त के लोग पहचाने जाते हैं। एक प्रान्त के अधिकांश व्यक्ति जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वहाँ के निवासियों को उसी भाषा से पहचाना जाता है। सिन्धी भाषा से सिन्धियों को पहचाना जाता है तो पंजाबी भाषा से पंजाब के लोगों को, कश्मीरी भाषा से कश्मीर के लोग जाने जाते हैं और मराठी भाषा से महाराष्ट्र के लोग। यही गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तमिल, उड़िया आदि भाषाएं वहाँ के लोगों को एक पहचान प्रदान करती हैं। यद्यपि भौगोलिक दृष्टि से तो देश एक है परन्तु आन्तरिक दृष्टि से यह विभिन्न प्रान्तों, क्षेत्रों, भाषाओं, जातियों के आधार पर विभाजित है। सामान्यतया व्यक्ति जिस स्थान, क्षेत्र, प्रदेश में जन्म लेता है और जो भाषा बोलता है, उनसे वह अधिक स्नेह रखता है और अपने विचारों की अभिव्यक्ति उस भाषा में अधिक सरलता से कर लेता है। वह अपनी भाषा को अच्छा मानता है और दूसरे प्रान्त की भाषा के प्रति हेय दृष्टि रखता है। भाषा के आधार पर ही पूरब पश्चिम में भेद होता है कुछ लोग यह भी मानते हैं कि भाषा के आधार पर ही उनके प्रान्त को पहचाना जाता है और वह अपनी विशिष्टता बनाए रखने के लिए अपनी भाषा को सर्वश्रेष्ठ बनाए रखने का प्रयास करते हैं। राज्य पुनर्गठन आयोग ने प्रमुखतः भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया था परन्तु भाषा आधारित नये राज्यों के गठन की माँगें आज तक पूरी नहीं हुई हैं। अतः प्रान्तीय लोग आपसी वैमनस्य की भावना से भी ग्रसित हो रहे हैं।

2. शक्ति (Power)- विभिन्न प्रान्तों में कितने लोग किसी भाषा को बोलते हैं, इस आधार पर उस प्रान्त की शक्ति पहचानी जाती है। भाषा के आधार पर ही प्रान्तीय आकांक्षाएँ जन्म लेती हैं और अलगाववादी ताकतें उत्पन्न होती। अलगाववादी भावना प्रान्तीय आकांक्षाओं का ही प्रमुख कारण है। इसी आधार पर विभिन्न राज्यों की माँग होती है। एक भाषा-भाषी व्यक्ति पृथक् राज्य की माँग करने लगते हैं जिससे वे शक्ति बन सके और राजनीति में उनका दबदबा कायम हो सके। इसी भावना के कारण खालिस्तान, गोरखालैण्ड, झारखण्ड, उत्तरांचल जैसे राज्य अलग प्रभुसत्ता रखने की आकांक्षाएँ रखते हैं। भाषा के आधार पर कई राजनीतिक दलों का भी उदय होता है जो एक भाषा भाषियों को राजनीति में पृथक् एवं विशिष्ट सत्ता का लोभ दिखाते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ भाषा के माध्यम पर शक्ति केन्द्र बनाने का प्रयास करती हैं और उन्हें एकत्र करने का कार्य करती हैं।

भारत के संविधान में हिन्दी को राजभाषा (ऑफिशियल लैंग्वेज) कहा गया है। लोकतान्त्रिक प्रणाली में जहाँ सत्ता (Power) किसी व्यक्ति या वर्ग के हाथ में नहीं होती, सरकार का समस्त कार्य ऐसी भाषा में होना चाहिए जिसे अधिकांश लोग समझ या बोल लें। इस सार्वजनिक सत्य को ध्यान में रखकर ही हमारे संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो भाषा राजभाषा होती है, उस भाषा भाषियों की स्थिति अधिक सुदृढ़ मानी जाती है । एक बात और स्पष्ट है कि राजभाषा केवल ऑफिसों की फाइलों में टिप्पणियाँ लिखने के लिए ही नहीं है, अपितु वह विविध भारतीय सांस्कृतिक तत्त्वों के आदान-प्रदान का मुख्य माध्यम भी है । निश्चय ही राजभाषा बनने से जहाँ भाषा की शक्ति बढ़ जाती है वहीं उसके दायित्व भी बढ़ जाते हैं। अहिन्दी भाषी छात्र हिन्दी की सम्पन्नता को उसकी राजभाषा से जोड़ते हैं तथा राजभाषा के रूप में हिन्दी का विरोध भी इसी कारण किया जाता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा भी माना जाता है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के व्यक्ति सत्ता में सर्वोच्च पदों तक अधिक पहुँचते हैं। अतः भाषा को शक्ति से जोड़ दिया जाता है।

3. विभिन्नता (Discrimination)- भाषा के आधार पर समाज में विभिन्नता भी उत्पन्न होती है। इससे अलगाववादी ताकतें उत्पन्न होती हैं। किसी राज्य को पृथक् भाषा के आधार पर विशेष अधिकार प्रदान कराने में राजनेताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, विशेषकर कश्मीर को क्षेत्रीय आधार पर विशेष राज्य का दर्जा एवं सुविधाएँ दी गई हैं जो उचित नहीं है। भाषा के आधार पर विभिन्न प्रान्तों को शक्ति सुविधाएँ एवं विशेष दर्जा देने से सभी राज्यों में विभिन्न का जन्म होता है। विभिन्न भाषाओं का एक राष्ट्र में होना राष्ट्रीय एकता के लिए बाधक तत्त्व है क्योंकि सभी प्रान्त अपनी भाषाओं को सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरी भाषाओं को हेय दृष्टि से देखते हैं। इसी आधार पर वे राजभाषा हिन्दी का भी विरोध करते हैं। राष्ट्र के कई प्रान्तों में बँटने के कारण हर प्रान्त की अपनी अलग भाषा तथा संस्कृति हो गयी है तथा एक ही राष्ट्र के लोग अपने को अलग-अलग क्षेत्रवासी मानने लगे हैं। अतः हर भाषा को सम्मान देना चाहिए।

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2 Comments

  • आखिरी भाग में हिंदी के विषय में राष्ट्रभाषा लिख दिया गया है, जहां राजभाषा होना चाहिए। निवेदन है सुधार किया जाए।
    आपका यह आर्टिकल बेहद पसंद आया । धन्यवाद

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