भाषा की उत्पत्ति से क्या आशय है? भाषा की प्रकृति एवंविशेषताओं की विवेचना करें।
भाषा की उत्पत्ति से आशय यह है कि व्यक्ति का ध्वनन् की शक्ति कब प्राप्त हुई और उच्चरित ध्वनि एवं उसके अर्थ में संसर्ग-स्थापन करना उसने कब और कैसे सीखा? ध्वनन् के संबंध में इतना तो कहा जा सकता है कि अन्य प्राणियों के समान मानव ने भी जन्म से ही ध्वनन् की शक्ति प्राप्त की होगी और धीरे-धीरे यह क्रम बढ़ा होगा।
वर्तमान समय में सशक्त भाषा मानव की आवश्यकता बन गयी है। इसके लिए एक निश्चित तिथि का उल्लेख करना कठिन है किन्तु इतना सत्य है कि जिस दिन मनुष्य ने ‘काका’ ध्वनि से ‘काक’, ‘कू-कू ध्वनि से कोयल तथा ‘झर-झर’ ध्वनि से ‘निर्झर’ शब्द का बोध प्राप्त किया होगा भाषा उसी दिन से आकारित हो गयी होगी।
भाषा की प्रकृति (Nature of language)
भाषा की प्रकृति यदि देखा जाये तो इसमें निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-
1. ध्वनि- भाषा का ऐतिहासिक अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि भाषा का मूल रूप ध्वनि से संबंधित होता है। ध्वनियाँ सदैव जटिलता से सरलता की ओर अग्रसर होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक भाषाओं की अपेक्षा प्रारंभिक स्थिति में ध्वनियों का उच्चारण जटिल रहा होगा। अफ्रीका की असभ्य जातियों की भाषा में आज भी क्लिष्ट ध्वनियाँ हैं जिनका उच्चारण आज कठिन माना जाता है। निश्चित रूप से आरंभ में क्लिष्ट ध्वनियों का बाहुल्य रहा होगा। प्राचीन तथा आदिम जातियों की भाषा में गीतात्मक स्वराघात के प्रयोग का बाहुल्य था, परंतु शनैः-शनैः आधुनिक भाषाओं तक पहुँचते-पहुँचते यह स्वतः ही समाप्त होने लगा। वैदिक संस्कृत एवं हिन्दी की तुलना के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दी में अपेक्षाकृत गीतात्मक स्वराघात में न्यूनता आयी है। इसके साथ ही वैदिक भाषा की अपेक्षा शब्दों का आकार भी हिन्दी में छोटा हो गया है। अतः निश्चित रूप से आधुनिक भाषाओं में प्राचीन युग की भाषाओं की अपेक्षा ध्वनियाँ सरल हुई हैं तथा शब्दों के आकार भी छोटे हुए हैं।
2. व्याकरण – भाषा की प्रकृति का दूसरा मूल रूप व्याकरण है। ऐसा माना जाता है। कि भाषा आरंभिक अवस्था में संश्लेषणात्मक अथवा संयोगात्मक रही होगी, जो बाद में वियोगात्मक हो गयी होगी; जैसे- संस्कृत संयोगात्मक भाषा थी किन्तु आजकल वियोगात्मक हो चुकी है। प्रारंभ में शब्दों के अनेक रूप होंगे जिनमें सादृश्य एवं ध्वनि परिवर्तन के कारण धीरे-धीरे कमी आयी होगी। अपवादों का बाहुल्य रहा होगा। आज की तुलना में लोगों का मस्तिष्क अव्यवस्थित रहा होगा, जिसके कारण भाषा में भी व्यवस्था का अभाव रहा होगा। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आज के समान आदिम व्यवस्था की भाषा में भाषिक नियम या व्याकरणिक व्यवस्था का अभाव रहा होगा। इस प्रकार की कठिनाई का वातावरण रहा होगा।
3. शब्द समूह – भाषा के विकास तथा अभिव्यंजन क्षमता में अन्योन्याश्रय संबंध होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभिक अवस्था की भाषा में अभिव्यंजन क्षमता अत्यन्त कम होगी। अतः सूक्ष्म तथा सामान्य भावों को व्यक्त करने हेतु शब्दों का अभाव रहा होगा। आज भी विश्व की अनेक असभ्य तथा अविकसित भाषाओं की यही स्थिति है।
4. वाक्य- भाषाओं के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि वाक्य में अलग-अलग शब्दों का अस्तित्व बहुत बाद में विकसित हुआ है। आरंभ में एक ही शब्द में पूरे शामिल रहता होगा। मानव में जैसे-जैसे विचारों का विकास होता गया वैसे-वैसे विभिन्न अर्थ वाक्य का भाव तथा भाव को प्रकट करने के लिए वाक्य में विभिन्न अवयवों का विकास होता गया। उदाहरणार्थ अमेरिका की कुछ पिछड़ी भाषाओं में कुछ समय पूर्व तक पृथक्-पृथक् शब्दों की कल्पना तक नहीं की गयी थी किंतु शोध के साथ अब परिवर्तन हुए हैं।
5. विषय एवं साहित्य- प्राचीन काल में मानव संवेदनशील रहा होगा बाद में वह विचारों की श्रृंखला में बँधा होगा। मानव जैसे-जैसे भाव प्रधान होता गया वैसे-वैसे उसमें अभिव्यंजन क्षमता का भी विकास होता गया। चूँकि प्रारंभिक काल में वह भाव प्रधान था इसी कारण भाषा का स्वरूप मूलतः पद्यात्मक होगा। अतः विचारों में वृद्धि के साथ ही पद्यात्मकता से गद्यात्मक भाषा का विकास हुआ होगा। आरंभिक गीतों में प्रकृतिगत भाव जिनका विकास जन्मजात होता है, की प्रधानता रही होगी। अतः प्रेम, क्रोध, घृणा तथा भय के चित्र ही भाषा में प्रकट होते होंगे। निष्कर्षतः आदिम काल में भावाभावों के पूर्ण अभिव्यंजन में असमर्थ भी और ध्वनियाँ जटिल थीं। स्थूल एवं विशिष्ट हेतु शब्द तो थे किन्तु सूक्ष्म तथा सामान्य की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का अभाव था। वाक्यहीन भाषा थी इसी कारण व्याकरण का भी अभाव था। अतः भाषा में सर्वत्र अपवाद रहा होगा किंतु भाषा संगीतात्मक रही होगी।
भाषा की विशेषताएँ (Qualities of language)
ये निम्नलिखित हैं-
1. परम्परागत सम्पत्ति- भाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह परम्परागत सम्पत्ति है। शिशु जन्म से ही बोलने की परम्परागत प्राकृतिक शक्ति लेकर आता है और अपने अभिभावकों के संसर्ग से अपनी मातृभाषा में बोलना सीखता है। जब तक बालक सीखने में तर्क तथा ज्ञान का प्रयोग नहीं करता है तब तक उसे बता दिया जाता है कि यह बाबा है, यह पानी है।
2. अर्जित सम्पत्ति- भाषा परम्परागत सम्पत्ति के साथ-साथ अर्जित सम्पत्ति भी है। मानव भाषा की क्षमता यद्यपि परम्परा से लेकर उत्पन्न होता है परंतु वह समाज में ही उसे अर्जित करता है और उसे सीखता है। अर्जित होने की प्रवृत्ति के कारण ही भाषा का परिष्कार होता है। अर्जन की प्रवृत्ति के कारण ही भारतीय लोगों ने विदेशी भाषा सीखी तथा विदेशियों ने भारतीय भाषा सीखी।
3. विकासशील एवं परिवर्तनशील- विकास अथवा परिवर्तन भाषा का अनिवार्य गुण है। समाज के वातावरण तथा शिक्षा के संस्कार के कारण मानव अपनी भाषा में निरंतर विकास तथा परिष्कार करता रहता है।
4. सामाजिक निधि- मानव समाज में रहकर ही भाषा का अर्जन करता है। समाज में परम्परा से जिस भाषा का प्रचलन तथा प्रसार होता है, मानव भी उसी भाषा को अपनाता है और उसका प्रयोग करता है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि भाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि भाषा सामाजिक निधि है।
5. जटिलता से सरलता की ओर विकास- भाषा के विकास की धारा सदैव जटिलता से सरलता की ओर बहती है। सभी भाषाओं के विकास में यही प्रवृत्ति होती है। हिन्दी भी इसका अपवाद नहीं है। भाषा में सर्वप्रथम जटिल अक्षर सिखाये जाते हैं फिर सरल अक्षर सिखाये जाते हैं।
6. अनुकरण द्वारा अर्जन- भाषा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अनुकरण से आती है। अनुकरण करना मानव का स्वभावोचित गुण होता है। मानव का अधिकांश अधिगम अनुकरण पर आधारित होता है। वह दूसरों को देखकर अधिक सीखता है। भाषा सीखने में भी वह इसी प्रवृत्ति का सर्वाधिक प्रयोग करता है।
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