छात्र अधिगम से क्या आशय है? भाषा के शैक्षणिक निर्णय पर प्रकाश डालिए।
अधिगम का अर्थ है- सीखना। अनुभव तथा प्रशिक्षण के कारण व्यक्ति के व्यवहार में आया परिवर्तन तथा परिवर्धन ‘अधिगम’ कहलाता है। भाषा के कौशलों पर अधिकार हासिल करके, उनका परिस्थितियों के अनुसार प्रयोग या व्यवहार करना भाषा अधिगम कहलाता है और छात्र जब इस अधिगम का प्रयोग करते हैं तो इसे छात्र अधिगम कहते हैं।
छात्र अधिगम छात्रों के व्यवहारों में परिवर्तन लाता है। प्रायः यह परिलक्षित किया जाता है कि छ: या सात वर्ष के छात्र एक से अधिक भाषाएँ सीखकर सुगमतापूर्वक अधिगम कर लेते हैं क्योंकि इस आयु के छात्रों में सीखने और अनुकरण करने की प्रवृत्ति अधिक होती है और उनकी स्मृति भी तीव्र होती है। भाषा विज्ञान के आचार्यों का एक वर्ग कहता है कि बालकों में भाषा को ग्रहण करने की सहज प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक बालक जिस भाषा के परिवेश में रहता है, वह उसी भाषा को, सहज रूप से अनुकरण द्वारा सीख लेता है।
सीखी जाने वाली भाषा का जो स्वरूप होता है वह उसी को ग्रहण करने या सीखने के लिए विवश होता है, छात्र अधिगम में भी व्यक्तिगत भेद दिखलाई देते हैं। आमतौर पर बालकों की अपेक्षा बालिकाएँ बोलने की दृष्टि से, भाषा को शीघ्र सीख लेती हैं।
छात्र अधिगम में कठिनाइयाँ (Difficulties in student learning)
छात्र अधिगम में प्रायः ये कठिनाइयाँ आती हैं-
1. सीखने वाले की पृष्ठभूमि (परिवेश),
2. शारीरिक अस्वस्थता या विकृति,
3. मानसिक अस्वस्थता,
4. संकोची स्वभाव,
5. भयभीत रहना,
6. आत्मविश्वास की कमी,
7. शब्दों के शुद्ध अर्थ का ज्ञान न होना।
बाल्यकाल में बच्चों में अधिगम की शक्ति स्वाभाविक होती है, स्वतः स्फूर्ति होती है तथा विशेष रूप से सक्रियता तथा जागरूकता होती है। भाषा अधिगम को आदत निर्माण की प्रक्रिया कहा जा सकता है, भाषा सीखने में क्रियाशीलता का विशेष महत्त्व है। भाषा सीखना कौशल सीखने की भाँति होता है। इसमें अभ्यास तथा आवृत्ति का विशेष महत्त्व है। कौशल सीखने के समान भाषा सीख लेने पर, छात्र द्वारा उसका प्रयोग यंत्रवत् हो जाता है।
शैक्षणिक निर्णय (Pedagogical decision)
भाषा सीखने में अधिगम प्रक्रिया का विशेष महत्व होता है। भाषा की शैक्षणिक प्रवृत्ति में कई बातों में भिन्नता पायी जाती है; जैसे – छात्र की आयु, छात्र की शारीरिक तथा मानसिक अवस्था, अध्यापक और अध्यापन विधि, अध्ययन का स्थान, प्रथम भाषा एवं द्वितीय भाषा संबंधी संस्कृतियों में समानता तथा भिन्नता की मात्रा आदि। बाल्यावस्था में शैक्षणिक प्रक्रिया तीव्रता से चलती है। छात्र के अंदर विषय के अनुसार धारा-प्रवाह बोलने की क्षमता का पूरा-पूरा विकास होता है। उसके अंदर धारा प्रवाह रूप से सुनते हुए तथा अधिगम करते हुए अर्थ ग्रहण करने की योग्यता भी पूरी तरह विकसित होती है। छात्र में प्रसंगानुसार विषय को उपयुक्त गति के साथ शुद्ध वर्तनी तथा शुद्ध रचना में लिखकर अभिव्यक्त करने की पूरी-पूरी क्षमता का विकास होता है। छात्रों में शैक्षणिक रूप से लेखन, मुद्रण, टंकित, चित्रांकित सामग्री को समुचित गति से पढ़ते हुए, समझने की योग्यता का पूरा-पूरा विकास होता है। छात्र में शैक्षणिक अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग में लायी जानेवाली लिपि में अपने विचारों तथा भावों को प्रकट करने की क्षमता का भी विकास होता है। छात्रों में शैक्षणिक रूप से निर्णय लेने, वाचन करने की, श्रवण करने की तथा लेखन की प्रवृत्तियों का विकास हो सके। वह भाषा की ध्वनियों का शुद्ध उच्चारण कर सके। वाक्यों को सुनते हुए अर्थ ग्रहण कर सके। बोलते समय मुख चेष्टा आदि हाव-भावों का स्वाभाविक रूप से प्रयोग कर सके। इस प्रकार की प्रवीणताओं का विकास होना आवश्यक है।
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