भारत में भाषा के विषय में संवैधानिक व्यवस्था (Constitutional Provisional About Language in India)
भारतीय संविधान और हिन्दी भाषा (Indian Constitution and Hindi Language) :
संविधान में स्वीकृत भारतीय भाषाएँ :
भारतीय संविधान के अध्याय 3, अनुच्छेद 344 (i), 351 के अनुसार ये 15 भारतीय भाषाएँ ‘भारत में स्वीकृत हो गयी हैं-
(i) असमिया, (ii) उड़िया, (iii) उर्दू, (iv) कन्नड़, (v) कश्मीरी, (vi) गुजराती, (vii) तमिल, (viii) तेलुगू, (ix) पंजाबी, (x) मराठी, (xi) मलयालम, (xii) बंगला, (xiii) संस्कृत, (xiv) सिन्धी, (xv) हिन्दी ।
ये सभी भाषाएँ पर्याप्त मात्रा में विकसित हैं। संस्कृत, सिन्धी और उर्दू को छोड़कर इन भाषाओं के बोलने वाले करोड़ों लोग हैं और इनका क्षेत्र तथा राज्य भी क्षेत्रफल की दृष्टि से पर्याप्त विस्तृत है। हिन्दी भाषा बोलने और समझने वालों की संख्या सबसे अधिक है। इनका क्षेत्र भी अन्य भाषा-भाषियों की अपेक्षा बहुत अधिक विस्तृत है; यथा- (i) उत्तर प्रदेश (ii) मध्य प्रदेश (iii) बिहार (iv) राजस्थान (v) दिल्ली (vi) हिमाचल प्रदेश (vii) हरियाणा। यद्यपि इन विस्तृत क्षेत्रों में कई बोलियाँ या उपभाषाएँ हैं जो हिन्दी भाषा-भाषी ही माने जाते हैं। शताब्दियों से भारतवर्ष में कश्मीर से कन्याकुमारी तक, द्वारका से कामाख्या तक आने-जाने वाले तीर्थयात्री, साधु-सन्त महात्मा हिन्दी के माध्यम से ही अपना काम चलाते आए हैं। भारतीय रेलों में यात्रा करने वाले भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी भी हिन्दी भाषा में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत की अधिकांश जनता ने हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में अपनी मौन स्वीकृति दे दी थी। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में, अहिन्दी भाषियों का अमूल्य योगदान रहा है।
पंजाब में गुरु नानक देव हिन्दी के अच्छे कवि और ज्ञाता रहे हैं। गुरु गोविन्द सिंह के दरबार में हिन्दी कवियों का समूह था जिन्होंने गोबिन्द रामायण (काव्य) तथा विचिन्तर नाटक आदि ग्रंथ हिन्दी में ही लिखे हैं। बाबा फरीद और बुल्ले शाह हिन्दी के अच्छे ज्ञाता रहे हैं।
गुजरात के दादूदयाल, महात्मा प्राणनाथ, स्वामी दयानन्द सरस्वती, गाँधी आदि ने हिन्दी की अच्छी सेवा की है।
महाराष्ट्र के मुकुन्दराज, संत नामदेव, संत समर्थ रामदास से लेकर लोकमान्य तिलक तथा अनेक कवियों, साधु-संतों, समाज-सेवकों, राजनीतिज्ञों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपूर्व योगदान किया है।
कर्नाटक में टीपू सुल्तान के जमाने से पहले ही वहाँ हिन्दी गद्य-पद्य साहित्य उपलब्ध था।
केरल के तिरुविन्तपकुर के राजा हिन्दी के प्रेमी थे और हिन्दी के विद्वान का सम्मान, किया करते थे।
तमिलनाडु में प्रचलित हरिकथा के मध्य में कबीर, तुलसी, सूरदास, मीरा के गीत गाये जाते थे।
आन्ध्र प्रदेश में ‘दक्खिनी हिन्दी’ का बोलबाला था। पंद्रहवीं शताब्दी से ही वहाँ हिन्दी का व्यवहार होने लगा था।
उत्कुल प्रदेश में उड़िया की पुस्तक ‘समर-तरंग’ का चौथा अध्याय हिन्दी में ही लिखा हुआ है।
बंगाल के अनेक वैष्णव कवियों ने अवधी, मैथिली, ब्रजभाषा आदि में कविताएँ लिखी हैं।
राजा राममोहन राय ने सबसे पहले कहा था- “भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही हो सकती है।” हिन्दी का प्रथम मुद्रणालय कोलकाता में ही स्थापित हुआ था। ‘बंगदूत’ नागरी लिपि में भी मुद्रित होता था।
मणिपुर तथा असम के वैष्णव राजाओं ने अपने धार्मिक साहित्य तथा राजकाज में हिन्दी को भी स्थान दिया था।
ये क्रम स्वतंत्रता से पूर्व आधुनिक काव्य में भी जारी रहा-
1. दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार- इसकी स्थापना 1918 ई. में गाँधीजी की प्रेरणा से डॉ. रामास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में डॉ. ऐनी बेसेण्ट ने की थी। तभी की ये चार शाखाएँ हिन्दी का प्रचार-प्रसार और शिक्षण कार्य कर रही हैं-
(i) हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) (ii) धारवाड़ (कर्नाटक) (iii) तिरुचनापल्ली (तमिलनाडु) (iv) कर्णाकुलम (केरल) ।
सभा एक मासिक पत्र ‘हिन्दी समाचार’ द्विमासिक पत्र ‘दक्षिण भारत’ प्रकाशित करती है। सभा प्रथमा, मध्यमा, प्रवेशिका, प्रवीण, हिन्दी प्रचारक परीक्षाएँ चलाती है। सभा के बड़े दिल्ली कार्यालय में हिन्दी के माध्यम से दक्षिण भाषाएँ सिखलाई जाती हैं। सभा छोटी-बड़ी लगभग पाँच सौ पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है। सभा ने 1964 ई. में एक स्नातकोत्तर अध्ययन तथा अनुसंधान विभाग स्थापित किया है।
2. हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) – इसकी स्थापना 1935 ई. में हुई थी। सभा ने अब तक लगभग 300 पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं-
(क) हिन्दी इतर भाषाओं का साहित्य तथा इतिहास,
(ख) तेलुगू-हिन्दी शब्दकोश ।
सभा नागरी-बोध (प्राथमिक) से लेकर वाचस्पति (स्नातकोत्तर स्तर) तक की कई परीक्षाओं का संचालन करती है।
3. केरल हिन्दी प्रचार सभा तिरुनन्तपुरम- इसकी स्थापना 1934 ई. में हुई थी। वासुदेवत् पिल्लै ने इसकी स्थापना की। यह निम्नलिखित परीक्षाओं का संचालन करती है-
प्रथमा, मध्यमा, राष्ट्रभाषा प्रवेश, भूषण (दो खण्ड), साहित्याचार्य (दो खण्ड) तथा आचार्य सभा ने अपने मुद्रणालय में कई पुस्तकें प्रकाशित की हैं। सभा एक मासिक पत्रिका ‘केरल ज्योति’ भी प्रकाशित करती है।
4. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा – इसकी स्थापना गाँधीजी की प्रेरणा से 1936 ई. में हुई। समिति का कार्य-क्षेत्र सभी इतर प्रदेश हैं। इसकी मासिक पत्रिका का नाम है-‘राष्ट्रवाणी’। इसने अब तक लगभग तीन सौ पुस्तकें प्रकाशित की हैं, इनमें उल्लेखनीय हैं-
(i) भारत-भारती पुस्तक माला,
(ii) राष्ट्र भाषा कोष ।
देश के भीतर और देश से बाहर भी इसने अपने कई प्रचार विद्यालय स्थापित किए हैं, इसके पास दो बड़े पुस्तकालय हैं। समिति कई परीक्षाएँ संचालित करती है।
5. मैसूर हिन्दी प्रचार सभा बैंगलूर – इसकी स्थापना 1942 ई. में हुई। सभा कई परीक्षाओं का संचालन करती है। इसके पास अपना विशाल पुस्तकालय है। यह अब तक लगभग एक सौ पचहत्तर पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है । ‘राष्ट्रसेवक’ इसका मासिक पत्र है।
हिन्दी संविधान और राजभाषा हिन्दी : भारतीय संविधान में राज या सरकारी के संबंध में ये धाराएँ उपलब्ध होती हैं-
राजभाषा- अध्याय / संघ की भाषा 343 (i) संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर राष्ट्रीय रूप होगा।
2. खण्ड (1) में से किसी बात के होते हुए भी इस संविधान के प्रारम्भ के पंद्रह वर्षों की कालाविधि के लिए संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयुक्त होती रहेगी, जिनके लिए ऐसे प्रारंभ के ठीक पहले वह प्रयोग की जाती थी ।
अध्याय 2. प्रादेशिक भाषाएँ – 345, अनुच्छेद 346 और 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए राज्य का विधान मण्डल, विधि द्वारा उस राज्य के राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयुक्त होती रहेगी, जिनके लिए ऐसे प्रारम्भ के ठीक पहले वह प्रयोग की जाती थी।
अध्याय 3. उच्चतम न्यायालय, न्यायालयों की भाषा 351 – हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि करना, उसका विकास करना, ताकि वह भारतवर्ष की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके तथा उसमें हस्तक्षेप किए बिना हिन्दी और अष्टम सूची में उल्लिखित अन्य भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात् करते हुए तथा जहाँ तक आवश्यक या वांछनीय है, वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत के तथा सौगात ऊपर लिखित भाषाओं में से शब्द ग्रहण करते हुए, उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।
हिन्दी को ही राज (सरकारी) भाषा, सम्पर्क भाषा या राष्ट्रभाषा का स्थान क्यों दिया गया?
इस संबंध में जो बातें कही जा सकती हैं, वे हैं-
1. देश राष्ट्र की आधी से अधिक जनसंख्या इसका मातृभाषा या प्रथम भाषा के रूप में प्रयोग या व्यवहार करती है।
2. हिन्दी उसी मध्य देश की भाषा है, जिसकी भाषाएँ प्राचीन काल से ही भारत की धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एकता का माध्यम रही हैं।
3. हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में पंजाबी भाषी, उर्दू भाषी, फारसी, भारत के ईसाई, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल के अधिकांश लोग, तमिलनाडु के श्रमिक कुली आदि असम के चाय बागान के मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार दशाब्दियों से प्रयोग में लाते रहे हैं।
4. हिन्दी भाषा की सरल, सुबोध तथा नमनीय प्रकृति के कारण, हिन्दी इतर भाषा-भाषियों को सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी सीखने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती।
5. हिन्दी की साहित्यिक वाङ्मय परम्परा अन्य राष्ट्रीय भाषा के समान ही पर्याप्त विकसित हो रही है।
6. स्वतंत्रता के आंदोलन के समय, राष्ट्रीयता की भावना का जागरण और पोषण हिन्दी के माध्यम से ही किया गया।
7. भिन्न-भिन्न प्रदेशों में आवागमन करने वाले यात्री, व्यापारी, साधु-महात्मा आदि अपने दैनिक धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक क्रियाकलापों के लिए हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं।
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