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भाषा शिक्षण (उपार्जन) प्रक्रिया | भाषा शिक्षण (उपार्जन) तथा भाषा अधिगम में अन्तर

भाषा शिक्षण (उपार्जन) प्रक्रिया
भाषा शिक्षण (उपार्जन) प्रक्रिया

भाषा शिक्षण (उपार्जन) प्रक्रिया

भाषा शिक्षण (उपार्जन) प्रक्रिया- बालक के भाषायी उपार्जन के विवेचन में उपार्जन प्रक्रिया एवं उनकी प्रकृति का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके आधार पर ही अध्येता बालक उसकी प्रतिक्रियाओं तथा भाषा उपार्जन में सहायक विविध कारकों की प्रकृति से अवगत होना सम्भव हो सका है।

भाषा उपार्जन प्रक्रिया से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन निम्न उपशीर्षकों में करना उचित है-

(1) बालक की क्षमताएँ तथा प्रयुक्त युक्तियाँ,

(2) उपार्जन प्रक्रिया की प्रकृति,

(3) पर्यावरण का योगदान।

बालक का भाषायी विकास उसके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण निर्धारक है परन्तु इसे बालक के समग्र विकास से भिन्न, एकांगी तथा एकाकी विकास नहीं माना जा सकता। भाषा विकास अन्य विकासों से सम्बद्ध प्रक्रिया है।

1. बालक की क्षमताएँ तथा प्रयुक्त युक्तियाँ- भाषा उपार्जन मानव शिशु की अभूतपूर्व विशेषता है । इसमें उसकी अपनी क्षमताएँ तथा उसके द्वारा प्रयुक्त युक्तियों का विशेष महत्व है। बालक के भाषायी विकास में भाषा वैज्ञानिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने अनेक मानसिक शक्तियों तथा योग्यताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है । भाषा उपार्जन के क्रम में बालक द्वारा प्रयुक्त युक्तियों के विवेचन में इन शक्तियों तथा योग्यताओं का महत्वपूर्ण योगदान है।

(i) उत्प्रेरण- भाषायी प्रयोग मूलतः उत्प्रेरण का परिणाम है। शिशु द्वारा कुछ ध्वनियों का सहज उच्चारण तथा क्रमशः भाषायी प्रयोगों पर अधिकार वस्तुतः सम्प्रेषण की आवश्यकता के अद्भूत हैं। भाषा उपार्जन में उत्प्रेरण का एक स्रोत बौद्धिक क्रीड़ाजन् आनन्द अथवा सन्तोष है । जेस्पर्सन ने भी भाषायी विकास के प्रारम्भिक स्तरों पर वस्तुओं के अभिज्ञान एवं उसके लिए प्रयुक्त नामों को याद करने से उत्पन्न प्रसन्नता व्यक्त की है।

भाषायी विकास के उत्प्रेरण का एक दूसरा स्रोत बालक में चतुर्दिक परिवेश में प्रत्यक्षीकरण एवं उसके संज्ञानात्मक परिचय की विकासशील प्रवृत्ति है। शिशु अपने निकटवर्ती परिवेश से परिचित होने तथा उसको समझने की तीव्र आकांक्षा के फलस्वरूप व्यवहृत भाषायी प्रतीकों के माध्यम को अपनाता है।

उत्प्रेरण का एक महत्वपूर्ण स्रोत परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने की सामाजिक प्रवृत्ति भी है। दूसरों से सम्बद्ध होने की आवश्यकता भाषा उपार्जन का केन्द्रीय तत्व है। यह आवश्यकता जीवन पर्यन्त बनी रहती है।

(ii) प्रत्यक्षात्मक एवं संज्ञानात्मक विकास- भाषा उपार्जन प्रत्यक्षात्मक योग्यता एवं संज्ञानात्मक शक्तियों के विकास से सम्बद्ध है। वस्तुओं, प्राणियों, पदार्थों तथा कार्य व्यापार के प्रत्यक्षीकरण की कुशलता विकसित होने तथा चिन्तन एवं स्मृति आदि संज्ञानात्मक शक्तियों के विनाश क्रम के साथ बोधन एवं अभिव्यक्ति की कुशलता विकसित होती है।

(iii) उपार्जन युक्तियाँ – भाषा के वयस्क प्रारूप के उपार्जन में बालक अनेक युक्तियों का स्वतः प्रयोग करता है। यद्यपि वह इन युक्तियों का सचेतन रूप में प्रयोग नहीं करता, परन्तु ये स्वतः अन्तर्भूत युक्तियाँ भाषायी विकास में सहायक हैं। कुछ प्रमुख युक्तियाँ निम्नलिखित है-

(1) सन्दर्भगत अधिगम-भाषा का प्रयोग विशिष्ट स्थितियों एवं सन्दर्भों में होता है । बालक इन सन्दर्भों में ही भाषायी प्रयोगों को सुनता है । उसकी भाषायी प्रतिक्रियाएँ इन्हीं सन्दर्भों से जुड़ी होती हैं ये स्थितियाँ एवं सन्दर्भ उद्दीपन के रूप में काम करते हैं। वह इनके प्रत्यक्षीकरण में सम्बद्ध सार्थक पक्षों को समझने एवं उनके प्रति भाषायी प्रतिक्रिया करने में समर्थ होता है । फलस्वरूप निरन्तर किसी सन्दर्भ में ही भाषा का प्रयोग करना सीखता है। यह उसके तथा भाषायी विकास का केन्द्रीय तत्व है ।

(2) अनुकरण – भाषा उपार्जन में सामान्यतः अनुकरण की प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है अनुकरण की जन्मजात प्रवृत्ति के फलस्वरूप बालक निकटवर्ती परिवेश में प्रयुक्त भाषा को सीखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार भाषा उपार्जन में दो प्रमुख संकल्पनाएँ काम करती हैं-

(1) बालक जब नवीन व्याकरणिक रूपों से उद्भासित होता है, तो उनका अनायास अनुकरण करता है।

(2) इन नवीन रूपों के सहज अभ्यास द्वारा वह उनको अपने व्यवहार में प्रतिष्ठित कर लेता है।

अनुकरण वस्तुतः सामाजिक सम्पर्क सापेक्ष प्रक्रिया है। बालक वयस्कों द्वारा किए गए भाषायी नमूनों का अनुकरण करता है, परन्तु उसका भाषायी प्रयोग स्वगठित व्याकरणिक नियमों से नियन्त्रित रहता है। अतः अनुकरण को भाषा विकास में सहायक सामान्य जन्मजात प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

(3) उपार्जन प्रक्रिया में सरलता एवं जटिलता- भाषा उपार्जन में शब्दों को सन्दर्भों में जोड़ने की क्रिया के साथ अमूर्तीकरण एवं सामान्यीकरण की प्रक्रियाएँ भी समाहित रहती हैं। शब्दों को सन्दर्भों से जोड़ने की प्रक्रिया के साथ ही भाषा प्रयोग के नियमों की जानकारी उसके अन्वेषण एवं नियम निर्धारण की प्रक्रिया स्वतः गतिशील रहती है । भाषा के द्वारा व्यक्त आर्थिक संकल्पनाएँ एवं वाक्यीय संरचनाओं की जटिलता तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध भाषा विकास के महत्वपूर्ण निर्धारक है। एक ओर वस्तुओं तथा पदार्थों के नामों को वह रटकर सरलता से याद कर लेता है तो दूसरी ओर उनके प्रयोगगत विशिष्टताओं की जटिलताओं से भी उसे अवगत होना पड़ता है।

(4) संज्ञानात्मक बाध्यताएँ – भाषा उपार्जन में बालक सहज रूप से इस प्रकार की युक्तियों का प्रयोग करता है जिसके फलस्वरूप उपार्जन प्रक्रिया में संज्ञानात्मक एवं स्मृत्यात्मक तनाव अपेक्षाकृत कम हो जाता है। भाषा उपार्जन में बालक की सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि वह भाषा के प्रयोग में स्थिरता एवं जड़ता को प्रश्रय नहीं देता। भाषायी ‘अभ्यास एवं योग्यताओं के विकास के साथ वह भाषा के जटिलतम रूपों के व्यवहार की कुशलता भी अर्जित कर लेता है और क्रमशः भाषा के वयस्क प्रारूपों से मिलते-जुलते भाषायी प्रयोगों के व्यवहार का प्रयत्न करता है। उसका मुख्य उद्देश्य सम्प्रेषण है। अतः भाषा व्यवहार में प्रारम्भिक त्रुटियाँ भाषायी विकास तथा सम्प्रेषण में बाधक नहीं बनती।

(5) अभ्यास- भाषा उपार्जन में अभ्यास की महत्वपूर्ण भूमिका है । परिवार में माता-पिता तथा अन्य सदस्यों के बीच शिशु भाषायी प्रयोगों को सहज रूप से दोहराने की प्रक्रिया में संलग्न रहता है। इससे भाषायी रूपों के अभ्यास में विशेषकर ध्वन्यात्मक कुशलता के विकास में सहायता मिलती है।

(6) बारम्बारता एवं संक्षिप्तता- भाषा उपार्जन में भाषायी प्रयोगों की बारम्बारता बालक की भाषायी प्रतिक्रिया के विकास में सहायक है। जिन प्रयोगों की आवृत्ति निरन्तर होती रहती है, उन प्रयोगों से बालक इस सीमा तक परिचित हो जाता है कि वह सहज रूप से भाषायी व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। उसमें भाषायी नियमों के आत्मीकरण, शब्दों के सन्दर्भगत अर्थ आदि के उपार्जन में प्रयोगों की बारम्बारता मूल रूप से विद्यमान रहती है।

भाषायी प्रयोग में छोटे और सरल प्रयोग जल्दी सीखे जाते हैं। लम्बे प्रयोगों को सीखने में कुछ समय लगता है। भाषा उपार्जन के क्रम में शिशु छोटे एवं प्रचलित प्रयोगों को पहले सीखता है। वस्तुओं एवं पदार्थों के नामों को सीखने में इसी क्रम में संकेत मिलता है। इस प्रकार भाषा उपार्जन में बारम्बारता एवं संक्षिप्तता में आन्तरिक सम्बन्ध है।

भाषा शिक्षण (उपार्जन) तथा भाषा अधिगम में अन्तर

भाषा उपार्जन और भाषा अधिगम की प्रक्रियाओं का तुलनात्मक विवेचन करने के पूर्व इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है कि भाषा अधिगम में क्या वे ही मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ सन्निहित हैं जो भाषा उपार्जन की प्रक्रिया में वर्तमान रहती है अथवा ये दोनों भिन्न प्रक्रियाएँ हैं?

भाषा उपार्जन तथा भाषा अधिगम की प्रक्रियाओं में आधारभूत भिन्नता नहीं पाई जाती है। मातृभाषा के उपार्जन तथा अधिगम में परिलक्षित होने वाली विशिष्टताओं का विवेचन निम्नलिखित दृष्टिकोणों से किया जा सकता है-

(1) उद्भासनगत अन्तर- भाषा उपार्जन तथा भाषा अधिगम में मुख्य अन्तर उद्भासन के आधार पर किया जा सकता है। मातृभाषा का उद्भासन शिशु को जन्म देने से ही उपलब्ध होता है वह चतुर्दिक भाषायी परिवेश के बीच विकसित होता है, अत: मातृभाषा को सहज रूप से आत्मसात् करता है।

(2) सन्दर्भगत अन्तर- बालक मातृभाषा के प्रत्यक्ष एवं निकटवर्ती परिस्थितियों तथा सन्दर्भों में सीखता है प्रत्येक भाषायी प्रयोग सन्दर्भ विशेष से जुड़ा होता है। उसकी भाषायी अनुभूतियाँ सन्दर्भ में ही गठित होती हैं। भाषा प्रयोग तथा उसके सन्दर्भ के बीच अन्तराल की स्थिति नहीं पायी जाती, परन्तु अन्य भाषा के अधिगम में यह परिवेश सहज एवं स्वाभाविक रूप से गठित नहीं होता।

(3) आवश्यकताजन्य अन्तर- मातृभाषा बालक की आत्मीय भाषा है। उसके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध होता है। एक ओर वह उसमें सामाजिक सुरक्षा की चेतना को विकसित करती है, तो दूसरी ओर वह उसकी सामाजिक अस्मिता का निर्धारण करती है । बालक की प्रबल आकांक्षा समाज से जुड़ने की, सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करने की तथा दूसरों द्वारा समझे जाने की होती है। अतः भाषा उपार्जन के में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष मूल रूप से वे सभी आवश्यकताएँ अन्तर्भूत होती हैं।

(4) पुनर्बलनगत अन्तर- बालक के मातृभाषा उपार्जन तथा अन्य भाषा अधिगम में अन्तर का एक प्रमुख कारक पुनर्बलन की मात्रात्मक और गुणात्मक भिन्नता है। बालक के परिवार में भाषा उपार्जन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध होती हैं। उसे भाषायी पुनर्निवेशन सतत् रूप से प्राप्त होता रहता है। बालक के भाषायी विकास में भाषायी प्रयोगों के रूपों से सम्बन्धित जानकारी का विशेष महत्व है। पुनर्बलन की मात्रात्मक एवं गुणात्मक भिन्नता का एक कारण यह भी है कि अन्य भाषा उसकी आधारभूत आवश्यकताओं से उस रूप में सम्बद्ध नहीं होती जिस रूप में मातृभाषा संयुक्त होती है।

(5) उत्प्रेरणगत अन्तर- भाषा उपार्जन और भाषा अधिगम प्रक्रिया के अन्तर का एक भारख कारण उत्प्रेरेपपात भिन्नता है। भाषा उपार्जन में बालक भाषा को सीखने के लिए स्वयं उत्प्रेरित होता है। उसके लिए भाषा निकटवर्ती परिवेश से सम्पर्क स्थापित करने का साधन है। जिन भाषायी प्रयोगों से उसकी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, जिनके माध्यम से वह सम्प्रेषण स्थापित करने में समर्थ होता है उन्हें वह जल्दी सीख लेता है।

भाषा उपार्जन में विविध भावात्मक घटकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। उत्प्रेरण, तदनुभूति, अहं सन्तुष्टि एवं सांस्कृतिक समुदाय से सम्पर्क स्थापित करने एवं अस्मिता निर्धारण की प्रबल इच्छा आदि के फलस्वरूप बालक मातृभाषा के उपार्जन में एकरूपात्मक सफलता का अनुभव करता है।

(6) प्रकृतिगत अन्तर – भाषा अधिगम की प्रक्रिया वस्तुतः भाषा व्यवहार से ही सन्तुष्ट होती है। भाषा उपार्जन में भाषा व्यवहार के अवसर, यथा-संप्रेषण माध्यम के रूप में भाषा का सतत् प्रयोग, भाषायी क्रीड़ा, स्वतः संभाषण आदि सहज रूप से उपलब्ध होते हैं। भाषा अधिगम में औपचारिक रूप से भाषायी प्रयोग के अवसरों को गठित किया जाता है। अतः दोनों में अन्तर होना स्वाभाविक है। कक्षा की औपचारिकता एवं भाषा के सम्प्रेषणात्मक प्रयोग की अनौपचारिकता के बीच का अन्तराल कम करना वस्तुतः शिक्षण का दायित्व है।

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