भारत में भाषा की विभिन्नता (Diversity of Language in India)
भारत में विभिन्न प्रकार की भाषाएँ हैं। भाषा के विविध रूप हैं-
1. मातृभाषा- भाषा का एक रूप मातृभाषा है। मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है-माता से ग्रहण की गई भाषा, किन्तु हम जननी जन्मभूमिश्च कहकर माँ के विशाल रूप में, मातृभूमि को देखते हैं। अतः जन्मभूमि में व्यवहृत भाषा को मातृभाषा कहते हैं। कभी-कभी माँ की भाषा और मातृभूमि की स्वीकृत भाषा में भी अंतर होता है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश छात्र प्रारम्भ में अपनी माता के मुख से अवधी, ब्रज, भोजपुरी भाषाएँ सुनते हैं, किन्तु उत्तर प्रदेश की मातृभाषा हिन्दी है । अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि हिन्दी की बोलियाँ हैं। ये स्वतंत्र भाषाएँ नहीं हैं। इन्हें जनपद भाषा भी कहा जाता है। संसार के सभी देशों में स्वीकृत भाषाओं की अपनी-अपनी बोलियाँ भी हैं। अंग्रेजी इंग्लैण्ड की मातृभाषा है किन्तु वेल्श जैसी समृद्ध भाषा को भी बोली का स्तर मिल सका है। जनपद भाषाओं को मातृभाषा के समकक्ष नहीं रखा जा सकता है। बैलार्ड के घर की बोली को माता की भाषा (मदर्स टंग) और समाज द्वारा स्वीकृत भाषा को मातृभाषा (मदर ढंग) कहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा के अनादर के विरुद्ध गाँधीजी की चेतावनी पढ़िए। उन्होंने 20 अक्टूबर सन् 1917 के अपने भाषण में कहा था- “माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इस संबंध को तोड़ने वालों का हेतु पवित्र ही क्यों न हो फिर भी वे जनता के दुश्मन हैं। हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने अन्य हानियाँ भी होती हैं। लिखित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अंतर बढ़ जाता है। हम जन साधारण को नहीं पहचानते, जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं, वे हम पर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही तो एक दिन लॉर्ड कर्जन का आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है। हम मातृभाषा का जो अनादर करते हैं उसका हमें भारी पश्चाताप करना पड़ेगा। इससे जनसाधारण का बड़ा नुकसान हुआ है।”
2. क्षेत्रीय भाषाएँ – भारत के संदर्भ में यदि भाषा का रूप देखा जाए तो दूसरा रूप क्षेत्रीय भाषाओं का है। भारत में अनेक बोलियाँ हैं किंतु क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या लगभग बारह है। इन भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में लिखा गया है- असमिया, बंगला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगू और उर्दू। संस्कृत निजी क्षेत्र की भाषा नहीं है। राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् इन क्षेत्रीय भाषाओं को प्रादेशिक भाषा भी कहा जा सकता है। क्योंकि ये किसी-न-किसी राज्य की मातृभाषाएँ हैं।
3. राष्ट्रभाषा- राष्ट्रभाषा वह होती है जो देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाती है और जिससे राष्ट्र के निवासी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हों। स्वतंत्रता के पूर्व भी भारत की राष्ट्रभाषा सही मायने में हिन्दी ही थी। हिन्दी में ही धुर दक्षिण में स्थित रामेश्वरम् के आस-पास के लोग भारतीयों का स्वागत करते थे। भारत में अनेक तीर्थों में लोग इसी भाषा का व्यवहार करते थे। कलकत्ता (कोलकाता), बम्बई, कराची, लाहौर, दिल्ली आदि। नगरों में यह भाषा अपरिचित नहीं थी। हमारे राष्ट्र भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण। दिन था -14 सितम्ब, 1949 ई.। उस दिन भारतीय संविधान सभा ने सर्वसम्मति से स्वतंत्र भारत गणतंत्र संघ की राजभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकारा था। उस दिन तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती, पंजाबी, हिन्दी, बांग्ला, असमिया और उड़िया को राज्यों की राजभाषा के रूप में स्वीकारा था। इसी राज्य की राजभाषा वर्ग में कोंकणी, नेपाली मणिपुरी को भी सम्मिलित किया गया। संविधान में इसी राजभाषा वर्ग में संस्कृत, उर्दू तथा सिन्धी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा गया है।
भारतीय संविधान परिषद् की राजभाषा प्रारूप आलेखन समिति ( राजभाषा मसौदा ड्राफ्टिंग कमिटी) ने संवैधानिक विधि नियमानुसार वितरण कर तथा संशोधनों को आमंत्रण कर पुन: अंतिम रूप से राजभाषा प्रारूप आलेखन तैयार कर विचार-विमर्श के लिए भारतीय संविधान सभा के पटल पर 12 सितम्बर, 1949 को रखा था। उस दिन अपराह्न चार बजे केन्द्रीय संसद भवन कक्ष में बैठक शुरू हुई। सभापति पद से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने विषय परिवर्तन करते हुए कहा-“यह एक ऐसा विषय है, जो कुछ समय से सदस्यों के विचारों में आंदोलन पैदा करता रहा है। इस कारण इस विचार-विमर्श में जो वक्ता भाग लेंगे, उनमें मैं एक निवेदन करूँगा। मेरा निवेदन किसी विशिष्ट प्रस्थापना के पक्ष में नहीं है, वरन् वह उन भाषणों के प्रकार के संबंध हैं, जो सदस्यों द्वारा इस सभा में भारत संघ तथा भारत के राज्यों की राजभाषा के संदर्भ में विचार-विमर्श के दौरान दिये जाएँगे। हम सब यह न भूलें कि हमारे देश भारत-संघ की राजभाषा तथा राज्यों के लिए राजभाषाओं का प्रश्न बहुत ही महत्व का है। यह एक ऐसा निर्णय होगा, जिसका पालन समूचे देश द्वारा किया जाएगा।”
इस भारतीय संविधान में सबसे अधिक महत्वपूर्ण विनिश्चय होगा। ऐसा अन्य कोई पद अर्थात् धारा या अनुच्छेद नहीं है, जिसका वास्तविक व्यवहार द्वारा प्रतिदिन, प्रति घण्टा और तो यहाँ तक कहूँगा कि प्रतिक्षण पालन किया जाना अपेक्षित होगा। जिस तरह प्राणियों को जीवित रहने, जीवित रहकर सोचने-विचारने, कार्य करने के लिए प्रतिपल प्राणवायु ऑक्सीजन की जरूरत होती है, इसी तरह हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिए यह राजभाषा का अध्याय है।
स्वतंत्र भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी है। अभी भी चेन्नई, हैदराबाद, बंगलौर, मैसूर, त्रिवेन्द्रम, औरंगाबाद, पूना, मुम्बई, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, कोलकाता, पुरी, भुवनेश्वर, कटक, चण्डीगढ़, जालंधर, श्रीनगर आदि नगरों में हिन्दी विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में ही नहीं, सड़क पर भी समझी जाती है। अभी भी देश या परदेश- सभी जगह अनेक भाषा-भाषी स्वाभिमानी भारतीय नागरिकों के मध्य वही सम्पर्क भाषा का काम करती है। जिन पण्डित नेहरू के आश्वासन के नाम पर भारतीय लोकसभा में बड़ी चर्चा हुई, उन्हीं ने नई दिल्ली में संसदीय हिन्दी परिषद् के द्वितीय वार्षिकोत्सव पर कहा था-“मेरा सिर शर्म से झुक जाता है, जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से विदेशी भाषा अंग्रेजी में बातें करता है और खासकर विदेश में मैंने पिछले पच्चीस वर्षों से विदेशों में किसी भारतीय विद्यार्थी अथवा अन्य भारतीय से या किसी भारतीय संस्था से अंग्रेजी में भाषण नहीं किया, चाहे वे लोग हिन्दी समझते हों या न समझते हों। हम जितनी जल्दी अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को बैठा दें, उतना ही अच्छा है। उसमें देर लगाने से देश में और विदेश में हमारी बदनामी होती है।” पण्डित नेहरू ने राज्य सभा में अपने भाषण में कहा था-” अंग्रेजों की छत्रछाया में 19वीं शताब्दी में हमारे देश में अंग्रेजी जानने वालों की एक नई जाति पैदा हुई थी। इस जाति ने देश के राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में निहित स्वार्थी बनकर भारत को हानि पहुँचाई। मैं भी कुछ हद तक इस बुराई का शिकार रहा। मेरा दृढ़ मत है कि अंग्रेजी के प्रति लोगों का मनोवैज्ञानिक लगाव अब खत्म होना चाहिए, जिससे लोगों के चरित्र पर इसका बुरा प्रभाव न पड़े।”
राष्ट्रपति ने कहा कि अहिन्दी भाषा नेता की महत्ता से परिचित थे इसलिए इसके विकास में सभी ने योगदान दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती, लोकमान्य तिलक, सुब्रह्मण्यम भारती, सुभाषचन्द्र बोस, विनोबा भावे के योगदान से हम सब परिचित हैं। राष्ट्रपति ने इन विचारों से असहमति व्यक्त की कि हिन्दी अक्षम भाषा है तथा इसमें विधि, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी जैसे आधुनिक त्रिषयों की शब्दावली की कमी है। उन्होंने कहा कि दरअसल यह अक्षमता भाषा की नहीं, बल्कि उसके प्रयोग करने वालों की है। जब तक आवश्यकतानुसार शब्द गढ़े नहीं जाएँगे, तब तक भला कोई भाषा कैसे सक्षम हो सकती है।” भारत में अंग्रेजी को जानने कले केवल दो प्रतिशत हैं। छियानवे करोड़ की आबादी में कठिनाई से लगभग एक करोड़ व्यक्ति अंग्रेजी को शायद समझ सकते हों जबकि हिन्दी के विषय में प्रसिद्ध कवि एवं विचारक डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का सन् 1967 में दावा था कि- ” सारे भारतवर्ष में हिन्दी समझने वालों की संख्या पचास करोड़ का सत्तर प्रतिशत यानी पैंतीस करोड़ से कम नहीं है। यह आँकड़ा लोगों को स्फीत मालूम हो सकता है, मगर वह स्फीत नहीं है, इसका प्रमाण मेरे पास है।” राष्ट्रभाषा को भी राजभाषा का पद मिलना चाहिए। समस्त स्वतंत्र देशों में राष्ट्रभाषाएँ ही वहाँ की राजभाषाएँ भी हैं। भारत में भी राष्ट्रभाषा को ही राजभाषा होना चाहिए, किंतु इस समय दुर्भाग्य से दोनों में अंतर है। इस अंतर को शीघ्र समाप्त होना चाहिए। इस संदर्भ में वे शैलेश मटियानी का निम्नलिखित कथन दृष्टव्य है-“संविधान में राजभाषा के सारे अधिकार बिना शर्त अंग्रेजी को दिये गये हैं, लेकिन राजभाषा का पद घोषित रूप से नहीं दिया गया। हिन्दी को राजभाषा का पद दिये गये होने की घोषणा की गई, लेकिन अधिकारों के नाम पर उसे अंग्रेजी के जूठन पर पलने को मोहताज रखा गया। पद का घोषणा के बाद सिर्फ अवधि का प्रश्न ही बाकी रह जाता है। लेकिन संविधान के अनुच्छेद 43 (खण्ड 1) में संघ की भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। घोषित करने के बाद अनुच्छेद 351 में भारत सरकार को ये निर्देश दिये गये कि वह हिन्दी को राजभाषा के पद के योग्य बनाने का काम भारत सरकार को सौंपने की यह कितनी अभूतपूर्व, उतनी ही अवैध और शर्मनाक व्यवस्था है, संविधान में सिर्फ हिन्दी के लिए की गई और अंततः अवधि की सारी । झंझटें ही समाप्त कर देने के पक्के इरादे में, जब तक एक भी अहिन्दी भाषी राज्य असहमत होगा, यह बहुमत (संसदीय प्रणाली) की शासन व्यवस्था में अल्मत का चोर दरवाजा थी, भाषा के मामले में, सिर्फ हिन्दी के लिए ही खोला गया। ……लेकिन राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त, राष्ट्रकवि दिनकर, महाकवि पंत और महीयसी महादेवी जी से लेकर जैनेन्द्र, यशपाल, बच्चन, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, नरेश मेहता, डॉ. रामविलास शर्मा, पं. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह आदि तक हिन्दी के साथ किये गये इस संवैधानिक मखौल को लेकिन किसी भी शिखर हिन्दी लेखक ने कभी कोई सवाल कतई नहीं उठाया। ‘हिन्दी दिवस’ के पाखण्ड पर्वों पर, राजनेताओं की तर्ज में इन लोगों ने चाहे जितनी दूर की हाँकी हो, लेकिन राष्ट्र की राजधानी दिल्ली में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की प्रेतच्छाया अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी की संवैधानिक और व्यावहारिक हैसियत किस शर्मनाक हद तक हास्याप्रद बना दी गई, इस दुरभि संधि के विरुद्ध हिन्दी के किसी भी मूर्धन्य ने अपनी निष्ठा के बंध कभी नहीं खोले।”
4. संस्कृति भाषा – संस्कृति भाषा वह भाषा होती है, जिसमें किसी देश की प्राचीन संस्कृति विद्यमान रहती है। इसे प्राचीन भाषा भी कहा जाता है। भारत की संस्कृति भाषाएँ संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश हैं। भारत की संस्कृति भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रमुख स्थान है। अंग्रेजी इंग्लैण्ड की भी संस्कृति भाषा नहीं है, तब भारत की संस्कृति भाषा के रूप में तो उसका प्रश्न ही नहीं उठता। आजकल बहुत से विद्वान भारतवंश की संस्कृति भाषा के रूप में अंग्रेजी को स्थान देने लगे हैं और जो व्यक्ति अंग्रेजी बोलने में दक्ष हैं, उसे सुसंस्कृत समझने लगते हैं। इस संबंध में वर्ष 1988 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी कवि भी विष्णु वर्मन शिखाड़कर कुसुमागज द्वारा ज्ञानपीठ समारोह में दिये गये वक्तव्य का निम्नलिखित अंश विचारणीय है-
“हम कल्पना की बाहें खड़ी कर रहे हैं और एक परायी भाषा के पाँवों में माथा रखकर उससे प्रार्थना कर रहे हैं, अब तू ही हमारा उद्धार कर। देश के अधिकांश लोगों की समझ में न आने वाली परायी भाषा की बैसाखियाँ लेकर सामाजिक परिवर्तन और प्रगति का पर्वत हम चढ़ना चाहते हैं। यह सच है कि भाषा की यह समस्या हल करना उतना आसान नहीं है, लेकिन कठिन प्रश्नों को अलमारी में बंद करके रखने से वे और भी कठिन होते जाते हैं और अंततः सभी संभावित उत्तर खो देते हैं।” संस्कृति भाषा के रूप में संस्कृत के बाद हिन्दी उसका स्थान स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर रही है। इस संबंध में न्यायमूर्ति श्री सुरेन्द्र नारायण द्विवेदी का मंतव्य द्रष्टव्य है-” भारतीय संस्कृति का समुज्ज्वल वाङ्मय रूप संस्कृत भाषा है। यह अमृत वाणी है। इस भाषा के कारण ही भारतीय संस्कृति जीवित और जाग्रत है। यह कल्याणी भाषा शांतिदायिनी है। निष्पक्ष भाव से सोचा जाए तो सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत भाषा से संबंध रखती हैं, किंतु हिन्दी भाषा पर सर्वाधिक दायित्व है। करोड़ों भारतवासियों द्वारा बोली जाने वाली, समझी जाने वाली और कार्य व्यापार में व्यवहृत होने वाली हिन्दी भारत की स्वतः सिद्ध राष्ट्रभाषा है, इसका भविष्य उज्ज्वल है। हिन्दी देश की संस्कृति की प्रमुख वाङ्मयी धारा है। यह किसी प्रांत विशेष, जाति या सम्प्रदाय विशेष की भाषा नहीं है, इस पर सबका समान अधिकार है, इसके नाम और काम में राष्ट्रीयता ओत-प्रोत है। हिन्दी भाषा के साहित्य को समृद्ध बनाने में सिंध से बंगाल तक, हिमालय से केरल तक के संतों, कवियों का पूर्ण योगदान रहा है। हम गुरु नानक, गुरु गोविन्द सिंह, बुल्ला साहब, रज्जब, ताज, रसखान, रहीम, जायसी को कैसे अलग कर सकते हैं ? जिस सांस्कृतिक मंच से व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, माघ, वाण, कबीर, सूर, तुलसी, मीरा की वाणी ने समाज को उन्नत बनाया है, उसी मंच पर आज का हमारा हिन्दी का साहित्यकार आसीन है। उस पर बहुत बड़ा दायित्व है, वह एक अखण्ड परंपरा का उत्तराधिकारी है। उसके काम, सहयोग, साहित्य, निर्माण पर हम अत्यधिक भरोसा रखते हैं।
5. विदेशी भाषा- भाषा का एक रूप विदेशी भाषा का भी है। विज्ञान की उन्नति ने दुनिया को छोटा कर दिया और अब कोई भी राष्ट्र अकेला नहीं रह सकता। उसे अन्य राष्ट्रों से सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। इस दृष्टि से प्रत्येक देश में संसार की कुछ समर्थ भाषाओं या पड़ोसी राष्ट्र की भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन होता है। इन भाषाओं का रूप विदेशी भाषाओं का होता है और इसके शिक्षण के उद्देश्य मातृभाषा या राष्ट्रभाषा के शिक्षण के उद्देश्यों से सर्वथा भिन्न होते हैं। भारत में रूसी, जर्मन, चीनी, फ्रेंच तथा अंग्रेजी को भविष्य में भी वरीयता मिलेगी और इसमें हानि की अपेक्षा लाभ अधिक है। अतः भाषा के विविध रूपों में अंग्रेजी का स्थान एक विदेशी भाषा के रूप में ही हो सकता है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा का पद हिन्दी को ही दिया जा सकता है।
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