शिक्षण के मुख्य सिद्धान्त (Main Principles of Teaching)
शिक्षण के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest)
शिक्षण के समय छात्रों में विषय के प्रति रुचि विकसित करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। विषय के प्रति रुचि विकसित हो जाने पर विद्यार्थी ज्ञानार्जन में तल्लीन हो जाता है, विषय से सम्बन्धित पुस्तकों को पढ़ता है, सम्बन्धित समस्याओं पर विचार विमर्श करता है तथा प्रकरण के विभिन्न पक्षों पर लेख लिखता है। यही कारण है कि शिक्षण से पूर्व शिक्षक को छात्रों की विषय के प्रति रुचि विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। वस्तुतः रुचिहीन विषयवस्तु को हृदयंगम करना कठिन होता है यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि जिस शिक्षक की विषय के प्रति प्रगाढ़ रुचि होती है वह विषयवस्तु को छात्रों तक पहुँचाने में समर्थ होता है। अतः शिक्षकों को अपने विषय में अपनी व छात्रों दोनों की रुचि विकसित करने पर ध्यान अवश्य देना चाहिए।
2. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)
आधुनिक शिक्षा-मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अधिगम के लिए अभिप्रेरित शिक्षार्थी ही प्रभावी अधिगम अर्जित कर सकता है। अतः शिक्षार्थियों को अधिगम अर्जित करने के लिए अभिप्रेरित करना शिक्षक के लिए अत्यन्त आवश्यक है। विद्यार्थियों की बातों पर ध्यान देकर, उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का लाभ उठाकर उनके प्रति उचित व सहयोगात्मक व्यवहार करके, पुरस्कार एवं दंड का बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से प्रयास करके तथा तरह-तरह की स्वस्थ प्रतियोगिताएँ आयोजित करके छात्रों को अधिगम के प्रति अभिप्रेरित किया जा सकता है।
3. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)
आधुनिक मनोविज्ञान वैयक्तिक विभिन्नताओं पर अत्यन्त जोर देता है। यद्यपि शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को सम्पूर्ण कक्षा की दृष्टि से आयोजित करता है परन्तु कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी की मानसिक क्षमता, रुचि व गति अलग-अलग होती है तथा वे तदनुसार ही ज्ञानार्जन कर पाते हैं। ऐसा वैयक्तिक भिन्नता के कारण होता है। अतः शिक्षक के द्वारा अपने शिक्षण कार्य को आयोजित करते समय विद्यार्थियों को वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए जिससे सभी विद्यार्थियों की अधिम आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाये।
4. चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection)
विगत शताब्दी के अन्तिम कुछ दशकों में हुए तथा अभी भी हो ज्ञान के विस्फोट के फलस्वरूप विभिन्न विषयों में ज्ञान की मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि किसी व्यक्ति के लिए सभी विषयों या किसी एक विषय के सभी पक्षों का विस्तारपूर्वक अध्ययन करना सम्भव नहीं है। अतः शिक्षक को विद्यार्थियों के मानसिक स्तर, शिक्षण उद्देश्यों, पाठ्यवस्तु का विस्तार, उपलब्ध संस्थान भावी उपयोगिता आदि को ध्यान में रखकर विषयवस्तु का चयन करना होता है। पाठ्यक्रम में चयन की चकिया में कम समय में विद्यार्थियों को अधिक से ज्ञानार्जन शिक्षण को प्राथमिकता दी जाती है जो छात्रों के भावी जीवन में उपयोगी सिद्ध हो सके।
5. मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Recreation)
मनोरंजन के सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण के द्वारा अपने शिक्षण कार्य को इस ढंग से सम्पन्न किया जाना चाहिए कि शिक्षार्थीगण शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में स्वभाविक आनन्द व लगाव का अनुभव करे । इसके लिए शिक्षक के द्वारा खेल विधि, समूह-विमर्श विधि, भूषण विधि, प्रयोजन विधि जैसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति वाली विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। वस्तुतः इस प्रकार की शिक्षण विधियों का प्रयोग किये जाने पर विद्यार्थी ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में लगाव महसूस करते हैं, निरन्तर क्रियाशील रहते हैं तथा उन्हें अभिव्यक्ति के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं जिसके फलस्वरूप वे शिक्षण-अधिगम में आनन्द का अनुभव करते हैं। परिणामतः वे अधिक शीघ्रता, सहजता व स्थायित्व से सीखते हैं।
6. क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity)
क्रियाशीलता के सिद्धान्त को शिक्षण का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने के लिए शिक्षक तथा विद्यार्थियों का क्रियाशील होना आवश्यक होता है। वस्तुतः यदि शिक्षण व अध्ययन के समय शिक्षक व विद्यार्थी क्रियाशील नहीं होते हैं तो शिक्षण-अधिगम के उद्देश्य समुचित ढंग से प्राप्त नहीं हो पाते हैं परन्तु यहाँ क्रियाशीलता से तात्पर्य माँसपेशियों तथा आंगिक क्रियाशीलता तक ही सीमित नहीं है वरन् मानसिक क्रियाशीलता भी परम आवश्यक होती है । कक्षा में शिक्षक की बातों को सुनना, वाचनालय में पुस्तक को पढ़ना तथा किसी समस्या पर विचार विमर्श करना भी क्रियाशील अवस्था होती है । परिस्थितियों में शिक्षार्थी अधिक क्रियाशील रहते हैं तथा कुछ परिस्थितियों में वे कम क्रियाशील प्रतीत होते हैं परन्तु शिक्षण को प्रभावोत्पादन बनाने के लिए शिक्षक को छात्रों को क्रियाशील रखने वाली शिक्षण विधियों का ही अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।
7. जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Linking with Life)
शिक्षा के द्वारा बालकों को भावी जीवन के लिए तैयार किया जाता है इसलिए कक्षा शिक्षण को जीवन की वास्तविक परिस्थतियों से सम्बन्धित होना चाहिए। निःसन्देह विद्यार्थी द्वारा कक्षा में विभिन्न विषयों का अध्ययन करने का उद्देश्य अर्पित ज्ञान को जीवनोपयोगी बनाना है । विषयवस्तु को छात्रों के वर्तमान व भावी जीवन की वास्तविकताओं से जोड़कर शिक्षण करने पर विद्यार्थी विषयवस्तु की सार्थकता व उपयोगिता को समझकर उसके अध्ययन करने की आवश्यकता महसूस करने लगते हैं।
8. नियोजन का सिद्धान्त (Principle of Planning)
नि:संदेह प्रभावी शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया का संचालन योजनाबद्ध ढंग से नियोजन करके ही सम्भव हो सकता है योजनाबद्ध शिक्षण द्वारा विद्यार्थियों के सभी पक्षों का सन्तुलित ढंग से विकास करना सम्भव होता है। शिक्षक नियोजित ढंग से विभिन्न शिक्षण विधियों का सटीक ढंग से प्रयोग कर सकता है, उपलब्ध समय एवं संसाधनों का समोचित उपयोग कर सकता है, आत्मविश्वासपूर्वक शिक्षण कार्य कर सकता है तथा शिक्षार्थियों में अच्छी आदत का विकास कर सकता है। वास्तव में योजनाबद्ध ढंग से शिक्षण कार्य करने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण उद्देश्यों को सहजता से प्राप्त कर सकता है।
9. बाल मनोविज्ञान का सिद्धान्त (Principle of Child Psychology)
आधुनिक युग में मनोविज्ञान, विशेषक बाल मनोविज्ञान व किशोर मनोविज्ञान के सम्प्रत्ययों, सिद्धान्तों व अनुप्रयोगों का शिक्षा के क्षेत्र में व्यापकता के साथ उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक नियमों व सिद्धान्तों की उपादेयता को देखते हुए शिक्षण कार्य में शिक्षक के द्वारा बाल मनोविज्ञान का ध्यान रखना परमावश्यक माना जाता है। शिक्षण का बाल मनोविज्ञान का सिद्धान्त शिक्षण के दौरान बाल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का अनुसरण करके शिक्षण कार्य को नियोजित व क्रियान्वित करने पर जोर देता है। अतः शिक्षक को शिक्षण कार्य करते समय बालकों की रुचि, योग्यता, क्षमता, जरूरत, सृजनात्मकता आदि विशेषताओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
10. अभ्यास का सिद्धान्त (Principle of Practice)
अभ्यास का क्रियात्मक व संज्ञानात्मक अधिगम करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व होता है। क्रियात्मक अधिगम में माँसपेशीय व आंगिक गतियों की प्रधानता वाली क्रियाओं को सीखा जाता है जैसे गीत गाना लेख लिखना, टंकन करना, सिलाई करना, व्यायाम करना, वाद्य यंत्र बजाना, कम्प्यूटर कार्य करना आदि । संज्ञानात्मक अधिगम से अभिप्राय व्यवहार को ऐसी प्रक्रियाओं के अधीन से होता है जिसमें विचार पक्ष अधिक प्रबल होता है। इन दोनों प्रकार के अधिगम में शिक्षार्थी द्वारा अनुकरण एवं अभ्यास करने की विशेष आवश्यकता होती है। इस हेतु शिक्षक के लिए शिक्षार्थियों को उचित निर्देशन प्रदान करना, त्रुटि संशोधन करना, व ज्ञान को प्रबलीकृत करना जरूरी होता है। शिक्षण के समय शिक्षक को अभ्यास के सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिए। अतः अभ्यास एवं बारंबार आवृत्ति कराने को शिक्षण कार्य में समुचित स्थान दिया जाना चाहिए।
11. परीक्षण का सिद्धान्त (Principle of Testing)
परीक्षण का सिद्धान्त इंगित करता है कि शिक्षण के दौरान समय-समय पर शिक्षक को अपने विद्यार्थियों द्वारा अर्जित किये जा रहे ज्ञान, बोध व कौशल का परीक्षण भी करते रहना चाहिए। दूसरे शब्दों में शिक्षक का कार्य कक्षा में पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत कर देने मात्र से समाप्त नहीं हो जाता है। वरन् शिक्षक के लिए यह जानना भी जरूरी व महत्त्वपूर्ण होता है कि उसके शिक्षण से विद्यार्थियों क्या सीखा है तथा नहीं सीख पाये हैं। इसके लिए उसे छात्रों के ज्ञान का परीक्षण करना होता है। अतः शिक्षक को परीक्षण के सिद्धान्त को भी ध्यान में रखना चाहिए।
12. पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of Reinforcement)
पुनर्बलन का सिद्धान्त कहता है कि कक्षा में शिक्षण कार्य को करने के उपरान्त शिक्षक को विद्यार्थियों द्वारा अर्जित ज्ञान, बोध व कौशल आदि को बार-बार पुनर्बलित अवश्य करना चाहिए। मनोविज्ञान ने सीखने की प्रक्रिया में पुनर्बलन तथा प्रतिपुष्टि के महत्त्व व आवश्यकता को भली भाँति स्थापित कर दिया है। पुनर्बलन व प्रतिपुष्टि से त्वरित व स्थायी अधिगम की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं इससे विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ता है, वे नवीन अनुभवों में दृढ़ रुचि लेते हैं तथा अधिगम स्थायी होती है अतः शिक्षक को अपने शिक्षण कार्य को नियोजित व क्रियान्वित करते समय पुनर्बलन के सिद्धान्त को उचित महत्त्व देना चाहिए।
13. प्रजातांत्रिकता का सिद्धान्त (Principle of Democracy)
शिक्षा संस्थाओं का प्रजातांत्रिक वातावरण निःसन्देह नियंत्रण तथा स्वच्छता का ऐसा अनोखा सम्मिश्रण होता हैं जिसमें व्यक्ति का सन्तुलित व सर्वांगीण विकास सम्भव हो पाता है । प्रजातांत्रिक शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक छात्रों के साथ एक मित्र, एक दार्शनिक एवं एक मार्गदर्शक के रूप में व्यवहार करता है एवं उसके व्यवहार का परिशोधन करता है । अतः शिक्षक को अपने शिक्षण कार्य का नियोजन करने व कक्षागत शिक्षण करते समय प्रजातांत्रिक के सिद्धान्त का अनिवार्य रूप से अनुसरण करना चाहिए। इसके फलस्वरूप विद्यार्थियों में स्वावलम्बन, उत्तरदायित्व बोध, स्वतंत्र चिन्तन, मनन व तर्क तथा निर्णय क्षमता विकसित होती है । प्रजातांत्रिक वातावरण में विद्यार्थियों में जहाँ एक ओर स्वावलम्बन, आज्ञाकारिता, सहनशीलता, सहकारिता, विनम्रता, उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास होता है, वहीं दूसरी ओर उनमें पहल करने, नेतृत्व करने, निर्णय करने तथा समस्याओं को हल करने जैसी योग्यताएँ भी विकसित होती हैं।
14. समवाय का सिद्धान्त (Principle of Correlation)
समवाय का सिद्धान्त ज्ञान की समग्रता व परस्पर सम्बन्ध के उपयोग पर जोर देता है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक को किसी विषय वस्तु स्पष्ट कर दूसरे विषयों के पूर्व ज्ञान व बोध का प्रासंगिक रूप से उपयोग करना चाहिए जिससे विषय वस्तु को समग्रता के साथ ग्राह्य कर सके इसे विषयों को अलग-अलग कालांश में पढ़ाने से उत्पन्न बनावटीपन समाप्त हो जाता है परन्तु समवाय का यह आशय कदापि नहीं है कि शिक्षक को अपने विषय को छोड़कर अन्य विषयों के शिक्षण पर जोर देना चाहिए। समवाय का सिद्धान्त केवल शिक्षक के द्वारा अपने विषय को परिपूर्णता के साथ पढ़ाने पर जोर देता है। यदि अन्य विषयों सन्दर्भ प्रासंगिक होता है तब शिक्षण का नियोजन व क्रियान्वयन करते समय अध्यापक को आवश्यकतानुसार व अवसरानुकूल समवाय के सिद्धान्त पर ध्यान देना चाहिए।
शिक्षण के सिद्धान्तों सम्बन्ध में प्रस्तुत उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि यदि शिक्षक के द्वारा अपने शिक्षण कार्य का नियोजन व क्रियान्वयन करते समय इन सिद्धान्तों का अनुसरण किया जायेगा तो शिक्षक कार्य अधिक प्रभावी बनकर शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध हो सकेगा। अतः शिक्षक को शिक्षण कार्य करते समय आवश्यकता व परिस्थिति के अनुरूप एक या अनेक शिक्षण सिद्धान्तों का अनुपालन करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
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