B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

शिक्षक के व्यावसायिक विकास में आवश्यकता और अवसर की विवेचना करें

शिक्षक के व्यावसायिक विकास में आवश्यकता और अवसर
शिक्षक के व्यावसायिक विकास में आवश्यकता और अवसर

शिक्षक के व्यावसायिक विकास में आवश्यकता और अवसर

शिक्षक के व्यावसायिक विकास में दक्षताओं की आवश्यकता होती है जिससे शिक्षक को विकास के अवसर प्राप्त होते हैं। ये दक्षताएँ निम्न प्रकार हैं

1. विषयवस्तु सम्बन्धी दक्षताएँ (Content Related Competencies)- किसी भी अध्यापक को अपने पढ़ाये जाने वाले विषय में पूरा अधिकार हो। यही नहीं, उसे सम्बन्धित विषयों का भी ज्ञान हो। सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिए। अध्यापक जितना ही विषय पर अधिकार रखता होगा वह छात्रों के लिए उतना ही प्रिय बन जाता है। विषय में मास्टरी रखने वाला व्यक्ति ही अधिगम कराने में समक्ष होगा। यह क्रिया उसके लिए आनन्द की क्रिया हो जाती है। इस हेतु अध्यापक को एक अच्छा पाठक, एक अच्छा अधिगमकर्त्ता होना चाहिए। पाठ्य-योजना बनाते समय भी छात्राध्यापकों/छात्राध्यापिकाओं को सन्दर्भ पुस्तकों का उल्लेख करने से आधुनिक एवं परिवर्द्धित ज्ञान का विकास होता है।

2. सम्प्रेषण सम्बन्धी दक्षता (Transactional Competency)- शिक्षक कार्य के लिए सबसे मुख्य कार्य जो अध्यापक को करना होता है वह है विषयवस्तु (ज्ञान) का सम्प्रेषण करना अर्थात ज्ञान को छात्रों तक पहुँचाना, जिससे वे ज्ञान को आत्मसात् कर सकें। तभी अधिगम (सीखना) का स्तर भी बढ़ता है। ज्ञान स्मृति पटल से चिन्तन-पटल तक ले जाता है, जहाँ सम्प्रेषण विधियों को लगाने पर अध्यापक को मनोवैज्ञानिक विधियों का भी ज्ञान होना जरूरी है। उसे अपनी योग्यता, क्षमता के अलावा छात्र की रूचि, योग्यता, पूर्वज्ञान एवं उन परिस्थितियों को जानना भी आवश्यक होता है, जो सम्प्रेषण को बढ़ाती हैं। अध्यापक का सम्प्रेषण उसकी प्रभावशीलता के द्वारा परखा जा सकता है। कक्षा में यही अवयवों पर निर्भर करता हैं, जैसे-

(1) अधिगमकर्त्ता की गुणात्मक स्थिति।

(2) कक्षागत वातावरण।

(3) अध्यापक की संलिप्तता।

(4) अधिगमकर्त्ता का प्रतिउत्तर।

(5) व्यक्तिगत विकास एवं बालक की मनःस्थिति, रूचि, वातावरण, ध्यान इत्यादि।

3. अन्य शैक्षिक क्रियात्मक दक्षताएँ (Competencies related to other educational activities) – विषयवस्तु का सम्प्रेषण करने के लिए पाठ्येतर क्रियाओं की आवश्यकता होती है। हाथों द्वारा बनाये गये उपकरण, इधर-उधर संसाधनों का उपयोग, वैज्ञानिक विधियों का उपयोग, सामाजिक पर्वों का आयोजन, जिससे हम भ्रमण, श्रमदान, सहयोग, विचार-चिन्तन, आपसी भाईचारा सीखते हैं, वहीं छात्राध्यापक/ छात्राध्यापिकाएँ अन्य गुणों को भी सीखते हैं जो भावात्मक प्रशिक्षण के रूप में उपयोगी होता है।

4. शिक्षण-अधिगम सामग्री निर्माण में दक्षताएँ (Competencies to Develop Teaching Learning Material) – अधिगम के सम्प्रेषण के लिए आवश्यक है कि छात्राध्यापक/ छात्राध्यापिकाएँ ऐसे उपकरण बनाने में दक्ष हों, जिससे बालक विषयवस्तु को शीघ्रता से सीखें, जैसे-घड़ी न होने पर नाड़ी की धड़कन से समय का मापन करना।

भास्मिक एवं अम्लीय मूलकों के गुणात्मक परीक्षण हेतु किप के उपकरण की आवश्यकता होती है। उपकरण काफी बड़ा होता है । प्रायः एक ही कक्षा के लिए एक उपकरण में इतनी भीड़ हो जाती है कि अनावश्यक समय इन्तजार में ही लग जाता है । लेखक ने एक Handy kipp’s apparatus विकसित किया था, जिसे प्रत्येक सीट पर रखा जा सकता है। वह पूरी तरह बड़े किप की तरह ही कार्य करता है। कार्य के पश्चात् वह स्वतः ही बन्द हो जाता है।

“अर्द्धसूक्ष्म विधि द्वारा, जो हायर सेकेण्डी एवं इण्टरमीडिएट कक्षाओं के लिए विकसित की गयी, उसमें परखनली के स्थान पर टाइल्स में परीक्षणीय पदार्थ की एक बूँद रखकर ड्रॉपर से Reagent की एक बूँद द्वारा अवक्षेप देखते हैं।

हस्त निर्मित सौर ऊर्जा सेल, विद्युतीय उपकरण, वाटर हीटर (जो पानी गर्म करता है) तथा हीटर आदि देखे जा सकते हैं।

एक दक्ष अध्यक्ष अपने छात्रों को हाथ से बनाये गये अनेक उपकरण बनाने की प्रेरणा दे सकता है । घरेलू सामग्री से मोटर आदि के मॉडल बनाये जा सकते हैं। जल विश्लेषण या जल-अपघटन का उपकरण आसानी से बन सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में सब्जियों, फलों एवं खाद्य सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए देशी कूलर बनाये गये हैं जो बिना बिजली के आवश्यक ठण्डक देकर खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखते हैं।

अध्यापन के समय बाजार निर्मित उपकरणों की जगह पर अध्यापक या छात्रों द्वारा स्वनिर्मित उपकरण अधिक प्रभावी रहते हैं।

लेन्स पर आधारित दूरबीन, सौर ऊर्जा के उपयोग सम्बन्धी उपकरण, गुरूत्वाकर्षण सम्बन्धी खिलौने छात्रों को प्रेरणा द्वारा बनवाये जा सकते हैं। छात्र निर्मित विज्ञान कॉर्नर में छात्र निर्मित उपकरणों, चार्टो एवं संगृहीत वस्तुओं को रख सकते हैं।

विद्यालय में विज्ञान मेले का आयोजन, विज्ञान प्रदर्शनी एवं संग्रहालयों का अवलोकनार्थ भ्रमण वैज्ञानिक सोच उत्पन्न करने हेतु लाभदायक होता है।

5. सन्दर्भगत दक्षताएँ (Contextual Competencies) – सभी विषय, परन्तु विशेष रूप से विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाते समय मूलभूत या आधारभूत प्रत्यय स्पष्ट करने हेतु सन्दर्भगत दक्षता प्राप्त करना आवश्यक है।

यह दक्षता इस बात पर जोर देती है कि हम जबतक पाठ्यवस्तु के सन्दर्भ बिन्दुओं को समझ नहीं लेते, तब तक विषयवस्तु भी समझ में नहीं आती। किसी घटना को तब ही हम भली-भाँति समझ सकते हैं जब हम उस सन्दर्भ की परिस्थितियों (आर्थिक, सामाजिक या सांस्कृतिक) को समझ लेते हैं, जैसे वैदिक काल में अध्यापक ब्राह्मण ही हुआ करते थे। अब हर जाति और धर्म के व्यक्ति अध्यापकीय कार्य में लगे हुए हैं । लोकतन्त्र में सभी को अध्यापकीय व्यवसाय में आने का हक है। देश, काल, पात्र आदि के परिवर्तन से तथ्य एवं अर्थ भी बदल सकते हैं।

अध्यापकीय शिक्षा समाज से सम्बन्धित होती है, जिसका काम समाज के उच्चतर मूल्यों को स्थापित करना है इसलिए समाज के मूल्य, सामाजिक-आर्थिक स्थिति एवं सांस्कृतिक मूल्यों का जानना जरूरी है।

विज्ञान के मामले में भी ऐसा ही है। लेखक ने कुछ विज्ञान के छात्राध्यापकों से प्रश्न किया कि शक्कर पानी में घुल जाती है, रेत क्यों नहीं ? इसका उत्तर केवल घुलनशील एवं अघुलनशील मात्र कहने से पूरा नहीं हो जाता। घुलनशीलता से सम्बन्धित निहित बिन्दुओं का जानना जरूरी है। हाइड्रोजन बॉण्ड से सम्बन्धित कर उत्तर की पूर्ति होती है न कि केवल घुलनशील कह देने से प्रश्न का उत्तर कक्षा 11 की विज्ञान की पुस्तकों में मिल जायेगा। तात्पर्य यह है कि अध्यापक को पाठ्यवस्तु के बिन्दुओं को समझना जरूरी है।

आजादी प्राप्ति के समय हमारे देश में जो शिक्षा पद्धति चल रही थी वह अभी भी चल रही है वैज्ञानिक प्रगति के साथ नये-नये विषय आ रहे हैं, मूल्य भी बदल रहे हैं। एक अध्यापक को नवीनतम जानकारी तथा मूल भावना से परिचित होना चाहिए। आधुनिक काल में कम्प्यूटर विषय के सम्बन्ध में जानकारी होना हमारी आवश्यकता हो गयी है।

इसलिए सन्दर्भगत दक्षता प्राप्त करना प्रत्येक अच्छे एवं सफल अध्यापक/ अध्यापिका को जानना जरूरी है। वैश्वीकरण, उदारीकरण, ज्ञान के प्रसंग तथा परिवर्तन सम्बन्धी चुनौतियों के बारे में अध्यापक को जानना जरूरी है।

सफल अध्यापक वही है जो लगातार अध्ययनरत रहता है और अपने ज्ञान की क्षुधा को शान्त करने में लग जाता है। 

6. संकल्पना को स्पष्ट करने की दक्षता – अध्यापक के लिए आवश्यक है कि उसमें जटिल संकल्पनाओं को सरल ढंग से स्पष्ट करने की दक्षता होनी चाहिए। रॉकेट एवं मिसाइल चलाने सम्बन्धी संकल्पना को स्पष्ट करने के लिए दीपावली में चलाये जाने वाले आकाशबाण (जिन्हें बच्चे पटाखों के रूप में छुड़ाते हैं) से न्यूटन की गति के तृतीय नियम से प्रारम्भ करते हुए रॉकेट के चालन सिद्धान्त को स्पष्ट करें।

अध्यापन कार्य प्रारम्भ करने पहले हमें छात्र की आवश्यकतओं को समझ लेना चाहिए और यह भी कि उसको पूर्व ज्ञान कितना है, तभी प्रभावकारी ढंग से अध्यापन प्रारम्भ हो सकेगा। केवल विषयवस्तु की संकल्पनाओं में दक्षता प्राप्त कर लेने से काम नहीं चल पाता, बल्कि शिक्षण विधियों की संकल्पनाओं में भी दक्षता होनी चाहिए। कभी-कभी केवल व्याख्यान विधि उबाऊ साबित हो सकती है, जबकि अवलोकन एवं प्रायोगिक विधियाँ अधिक शीघ्रता से सीखने को प्रेरित करती हैं। व्याख्यान विधि को ही प्रश्नों द्वारा, प्रभावी भाषा द्वारा, प्रायोगिक विधि द्वारा तथा स्वयं करके सीखने की विधि से प्रभावकारी अधिगमन का काम करता है।

किसी बालक को यदि गणित के आधारभूत सिद्धान्त ही स्पष्ट न हों तो वह आगे चलकर जटिल गणितीय संक्रियाओं को हल नहीं कर सकेगा।

अतः एक अध्यापक को संकल्पनाओं में दक्षता-प्राप्ति आवश्यक है, बिना इसके वह सफल अध्यापक नहीं हो सकेगा।

विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों (जैसे मन्दबुद्धि बालक) को अलग से संकल्पना स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है, क्योंकि वे कक्षा के औसत छात्रों से भी पीछे रह जाते हैं। उन्हें यदि संकल्पनाएँ स्पष्ट नहीं हुई तो वे आगे चलकर भी कमजोर बने रहेंगे।

दक्षतामूलक पाठ्य-पुस्तक, दिशा निर्देशक पुस्तक जैसे कार्य N.C.T.E. एवं N.C.P. (National Curriculums Framework, 2005) एवं N.C.F., 2009 में इस हेतु साहित्य सामने आने लगे हैं जो बताते हैं कि बालकों को किस प्रकार से उनको विषय की संकल्पनाएँ स्पष्ट की जाये ।

7. मूल्यांकन आधारित दक्षताएँ (Evaluation Based Competencies) – शिक्षण मूल्यांकन का अति महत्त्व है। बिना इसमें दक्षता प्राप्त किये अध्यापकीय दक्षता प्राप्त नहीं कर सकता। मूल्यांकन परिमाणात्मक भी होता है और गुणात्मक भी। गुणात्मक मूल्यांकन को परिमाणात्मक रूप देना बिना दक्षता प्राप्त किये नहीं हो सकता। अधिगम की सीमा का उल्लेख किया जाना चाहिए। बालक होशियार है, वह कमजोर है, इसका कोई अर्थ नहीं बनता जब तक कि उसकी सीमा दर्शायी न गयी हो । प्रथम श्रेणी प्राप्त बालक से इतना तो पता लगता है कि उसने 60% या उससे अधिक अंक प्राप्त किये हैं, परन्तु कितने 70,80 या 90%, और वह कितना होशियार है। मूल्यांकन से प्राप्त अंकों द्वारा परीक्षा में प्राप्त अंकों का पता लगता है । उसका I.Q. कितना है, व्यक्तित्व कितना एवं कैसा है, उसकी रूचि, अभिवृत्ति आदि क्या है, इसके लिए अलग से मूल्यांकन परीक्षण लिये जाते हैं। अध्यापक को इन सभी प्रकार की मूल्यांकन विधियों का पता होना चाहिए।

एक सफल अध्यापक/ अध्यापिका को मूल्यांकन की आधुनिक विधियों का पता होना चाहिए। वह उनकी सांख्यिकीय गणना से परिचित हो । मूल्यांकन करते समय मूल्यांकन किये गये प्रश्न, उनके प्रकार व मापन के उद्देश्य से भी अध्यापक को अवगत होना चाहिए। दीर्घ उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय प्रश्न, वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के अलावा ज्ञानात्मक, बोधात्मक प्रश्न, इण्टरव्यू, प्रश्नावली, सर्वे ? अनुसंधान विधियों की तकनीक का ज्ञान होना भी आवश्यक है । निश्चित ही केवल बुद्धि परीक्षण (IQ.) से व्यक्तित्व का मापन नहीं हो सकता। वर्तमान परीक्षा प्रणाली से क्रिएटिविटी का मापन नहीं हो सकेगा।

अध्यापक को विभिन्न प्रकार के मूल्यांकन, दक्षता, परीक्षण तकनीक, बालक के स्तर, उसके पूर्व ज्ञान, मनोविज्ञान एवं परीक्षण की परिस्थितियों के ज्ञान में दक्ष होना चाहिए।

8. समुदाय एवं अन्य संगठन सह कार्य दक्षताएँ (Competencies Ralated to Working with Community and Other Agencies) — ब्रिटिश काल में शिक्षा का उद्देश्य था ब्रिटिशकालीन कार्यालयों में क्लकों एवं कर्मचारियों की पूर्ति करना। उस काल में अंग्रेजी शिक्षायुक्त व्यक्ति प्रायः समाज से ज्यादा लगाव नहीं रखता था । लोकतन्त्रीय शासन में शिक्षा का कार्य समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी है समाज को जिस वस्तु की आवश्यकता है, शिक्षा उसकी पूर्ति करती है। इसी प्रकार समाज भी विद्यालय की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संसाधन समाज ही जुटाता है। विद्यालयों को लघु समाज का रूप दिया जाता है। विद्यालय समाज में होने वाली क्रियाओं का प्रतिमान है।

अध्यापक-पालक संघ, विद्यालयों में आयोजित राष्ट्रीय एवं सामाजिक पर्व, शाला विकास समिति, समाज एवं विद्यालय में रिश्तों को उद्घाटित करता है।

विद्यालय को भवन चाहिए, लाइब्रेरी, जल-व्यवस्था, समुचित कार्यकर्त्ता एवं अध्यापक चाहिए। इन्हें समाज उपलब्ध कराता है। समाज को चरित्र, पढ़े-लिखे संस्कारित व्यक्ति चाहिए जो समाज का विकास कर सके, चेतना दे सकें तथा सामाजिक परिवर्तन प्रदान कर सकें।

यदि अध्यापक अपने कर्त्तव्यों की पूर्ति नहीं करते तो निश्चित ही उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पायेगी। जिसकी वह आस लगाये बैठे हैं ।

9. प्रबन्ध सम्बन्धी दक्षताएँ (Management Related Competencies) विद्यालयों में अच्छे ढंग की पढ़ाई अच्छे अध्यापक, अनुशासन एवं व्यवस्थित प्रबन्धन के कारण ही सम्भव है। अध्यापन कार्य के साथ-साथ अध्यापक सामाजिक मूल्यों को बालकों में प्रेषित कर देता हैं। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, सामाजिक गुण उसे विभिन्न कक्षा-अध्यापन एवं सामूहि आयोजन द्वारा बताये जाते हैं। राष्ट्रीय पर्वों में राष्ट्रीय ध्वज की मर्यादा, सम्मान तथा राष्ट्रगाण के प्रति सम्मान, इन्हीं आयोजनों से बालक सीखता है। विद्यालय में आयोजित पर्वों में अतिथियों का स्वागत, उनके प्रति उचित व्यवहार करने की ट्रेनिंग अध्यापकों द्वारा ही सिखायी जाती है।

खेलकूद में स्वस्थ प्रतियोगिता, कैप्टन के प्रति आदर्शों का सम्मान, समानता, भाईचारे की भावना, लोकतन्त्रीय मूल्यों का ग्रहण करना विद्यालयों में सीखे जाते हैं। साफ-सफाई, समाज-सेवा, सामूहिक क्रियाकलाप में स्वयं एवं पात्रों की भागीदारी तथा उनमें उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करना अध्यापकों का ही कर्त्तव्य हैं ।

इतना ही नहीं, वे कार्यालय के कार्यों में, प्रबन्ध सम्बन्धी अन्य कार्यों में भी योगदान करते हैं। किसी शैक्षिक संस्थागत विविध क्रियाकलापों के कुशल संगठन और प्रबन्ध के लिए टाइम-टेबिल बनाने से लेकर कक्षा प्रबन्धन तक अनेक क्रियाकलापों का आयोजन एवं संचालन करना एक कुशल अध्यापक/अध्यापिका का दायित्व होता है। इसलिए विद्यालय के प्रबन्धन कौशलों में दक्ष होना अनिवार्य है। यह विद्यालयी व्यावहारिक प्रशिक्षण द्वारा ही सीखा जाता है।

विद्यालयीन व्यावहारिक प्रशिक्षण प्रायः निम्न प्रकार के होते हैं-

(1) विद्यालयीन समय-सारणी बनाना ।

(2) विद्यालयीन अभिलेख का रख-रखाव ।

(3) संचयी अभिलेख निर्माण ।

(4) कक्षा अध्यापकीय दायित्व ।

(5) विषय – अध्यापक के रूप में अनुभव ।

(6) विद्यालय संगठन सम्बन्धी अनुभव ।

(7) विद्यालय सम्बन्धी नियोजन के अनुभव ।

(8) कुशल विद्यालयीन प्रशासन सम्बन्धी अनुभव

(9) वित्तीय योजना निर्माण सम्बन्धी कार्य ।

(10) अनुभव, जैसे-प्रवेश परीक्षा, गृह परीक्षा, वार्षिक परीक्षा ।

(11) राष्ट्रीय पर्वों, वार्षिक खेलकूद, सामाजिक उत्सवों आदि का अनुभव ।

(12) छात्र अनुशासन सम्बन्धी अनुभव इत्यादि ।

10. अभिभावक सह-कार्य दक्षताएँ (Comptencies Related to Working with Parents) – प्राथमिक विद्यालयों और माध्यमिक विद्यालयों में बीच में ही स्कूल छोड़ देने की समस्या रहती है। अध्यापकगण इस समस्या को सुलझाने में सहायक हो सकते हैं। यह केवल बालक/ बालिकाओं के पालकों से मिलकर हल किया जा सकता है। छात्र कक्षा में रूचि नहीं लेता या प्रायः अनुपस्थित रहता है तो बालकों के पालकों को मामले की सूचना देकर बालक को नियमित रूप से विद्यालय भेजने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

विभिन्न राष्ट्रीय कार्यक्रमों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, वार्षिक कार्यक्रमों में पालकों को भागीदारी हेतु निमन्त्रित किया जाने से वे विद्यालय की समस्याओं एवं आवश्यकताओं से अवगत होंगे तथा विद्यालय एवं समाज के प्रति भाईचारा बढ़ेगा।

आजकल विद्यालयों में शाला विकास समिति द्वारा सहयोगी राशि प्राप्त करते हैं। महाविद्यालयों में भागीदारी समिति के द्वारा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। कई जिलों में महाविद्यालयों द्वारा टूर्नामेण्ट आयोजित किये जाते हैं। इनमें पालकों एवं विशिष्ट नागरिकों द्वारा दान के रूप में सहयोग प्राप्त किया जाता है।

पालकों से विद्यालय का सीधा सम्बन्ध होने से उनके बालक विद्यालयों में अनुशासित रहते हैं। बालक का अधिक समय अपने माता-पिता के साथ व्यतीत होता है। यदि बालकों का अध्यापकों से निर्भरता होगी तो बालक अनुशासित ही होगा, वे विद्यालयों के लिए भी निकटता बनाये रखेंगे।

पालकों से निकटता होने पर पालक को अपने कक्षा अध्यापकों एवं विषय- अध्यापकों एवं अपने बालकों के सम्बन्ध में विद्यालयीन रिपोर्ट प्राप्त होती रहेगी। अध्यापक भी बालक की गतिविधियों पर नजर रखेंगे। बालक की पढ़ाई, स्वास्थ्य, खेलकूद सम्बन्धी बालकों को सलाह देते रहेंगे।

11. अधिगमकर्त्ता (सीखने वाले छात्र/छात्राओं) के प्रति प्रतिबद्धता ( Commitment to Learner)— छात्रों के लिए सीखने का कार्य प्रायः विद्यालयों में होता है। बालक सीखता तब है जब सीखने का विषय रूचिकर हो । भावी जीवन के लिए रूचिकर, निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति होती है तथा सिखाने वाले की विधि इस प्रकार की हो जिससे बालक बिना किसी थकावट के कम से कम समय में अधिक से अधिक सीख सकें। अतः अध्यापक का किसी न किसी रूप में उसका दायित्व होता है कि वह बालक को अधिगम प्रदान करे।

बालक को यह महसूस होना चाहिए कि अधिगम कोई कष्टकारी कार्य न होकर रूचिकर क्रिया है। बालक में उत्सुकता का गुण जन्मजात होता है, वह संसार के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता है, उसकी उत्सुकता को शान्त करने के लिए तर्कसम्मत विधि से उसके प्रश्नों का उत्तर दे।

अध्यापक को भी अधिगमकर्त्ता द्वारा पूछे गये प्रश्नों के प्रति सहनशील होना चाहिए तथा उससे एक साथी के रूप में व्यवहार देना चाहिए। इसके लिए आत्म-नियन्त्रण का होना जरूरी है। अध्यापकीय व्यवहार बालक के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। वह छात्रों के लिए मददगार भी हो, पढ़ाई के मामले में ही नहीं, बल्कि खेलकूद, स्कॉलरशिप, लाइब्रेरी, अन्य सुविधाएँ उपलब्ध करने में भी सक्षम हो । तात्पर्य यह है कि अधिगमकर्ता के प्रति बहुत-सी प्रतिबद्धताएँ अध्यापकों में निहित है, बिना इनकी पूर्ति के वे अपने छात्रों के प्रिय नहीं हो सकते।

12. आजीविका के प्रति प्रतिबद्धता ( Commitment to the Profession)— अध्यापन कार्य में, यदि अध्यापक की अपने कार्य में दक्षता नहीं है तो वह व्यावसायिक रूप से सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । इसके लिए उसे अपने कार्य में गर्व का अनुभव होना चाहिए। वह राष्ट्र-निर्माता है, वह संस्कृति का वाहक है, वह बालकों में ज्ञान सम्प्रेषित कराता है। एक अध्यापक समाज में सम्मान पाता है। उच्च पद प्राप्त हो जाने के बाद भी बहुत-से छात्र अपने अध्यापकों को सम्मान करना नहीं भूलते। अपने आदर्श व्यवहार, चरित्र, नैतिकता एवं उत्कृष्ट गुणों के कारण अध्यापक जीवन पर्यन्त छात्रों के हृदय में बसा रहता है अध्यापकीय व्यवसाय में लगे व्यक्ति को अन्य लाभ भी मिल जाते हैं। जैसे— 

(1) वह लाइब्रेरी, साहित्य एवं पढ़े-लिखें लोगों के बीच में रहकर निरन्तर अपने ज्ञान में वृद्धि करता रह सकता है।

(2) पर्याप्त समय से वह अपनी अन्य इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है, वह कवि लेखन, संगीत तथा सामाजिक कार्यों से लिप्त रह सकता है।

(3) समाज में रहकर वह सामाजिक सुधार, परिवर्तन आदि में योगदान दे सकता है।

(4) खाली समय में शिक्षा दान जैसे सत्कर्मों में अपने को व्यस्त रख सकता है।

13. भाषायी प्रतिबद्धता (Linguistic Commitment) – अध्यापक में एक गुण, जो आवश्यक रूप से होना चाहिए, वह है उसका भाषायी ज्ञान एवं मृदुभाषिता । किस समय, काल एवं परिस्थिति में किससे कैसी बात करनी चाहिए, इसका ज्ञान एक अच्छे अध्यापक को होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो कई अध्यापक पालकों के परिवार के मुखिया के रूप में परामर्शदाता के रूप में कार्य करते हैं। कुछ मामलों में तो सरपंच की चौपाल से भी अधिक महत्त्व अध्यापक की बैठक को प्राप्त हो जाता है। भाषायी दक्षता एवं अभिव्यक्ति का गुण सामाजिक क्रियाकलापों एवं नेतृत्व गुणों को व्यावहारिकता प्रदान करता है।

14. मूलभूत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता ( Commitment to Basic Values)— आजकल सामाजिक क्षेत्र में मूल्यों का क्षरण हो रहा है। घोटाला, घूसखोरी, बेईमानी, यौन शोषण जैसी गन्दगी हमारे समाज में तेजी से फैल रही है। ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, सेवाभाव, समयबद्धता का आम जीवन में अभाव हो रहा है ।

अध्यापक को अप्रत्यक्ष रूप से इन गुणों को बालकों में सम्प्रेषित करना चाहिए। इसके लिए जो सबसे जरूरी गुण है वह है समयबद्धता। अध्यापक कक्षा में नियमित रूप से समय पर पहुँचे। तभी छात्र समय पर कक्षाओं में पहुँचेंगे। मूल्यों के सम्बन्ध में प्रशिक्षण अध्यापकों को सेवापूर्व एवं सेवाकालीन दोनों ही स्तरों पर अनिवार्यतः दिया जाये।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment