औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालिए। अथवा उपनिवेशवाद राजनीतिक विचारधारा के रूप में उत्तर-उपनिवेशवाद की विवेचना
राज्य का उत्तर-औपनिवेक परिप्रेक्ष्य कोई नया राज्य-सिद्धांत प्रस्तुत नहीं करता। परंतु वह राज्य-प्रणाली के कुछ नए पक्षों को समझने में सहायता देता है जिन पर परंपरागत सिद्धांत कोई प्रकाश नहीं डालते। संक्षेप में, उत्तर-औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य उन राज्यों की समस्याओं के विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करता है जो उपनिवेशवाद (Colonialism) के पंजे से नए नए स्वाधीन हुए हैं, और जो उपनिवेशवादी शोषण की विरासत के साथ-साथ नव उपनिवेशवाद की चुनौतियों का सामना भी कर रहे हैं।
राज्य का उत्तर- औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य स्वयं उत्तर- औपनिवेशिक देशों के अनुभव पर आधारित होना चाहिए। ये मुख्यतः एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमरीका के वे देश हैं जो अतीत में उपनिवेशवाद का शिकार रह रहे हैं। इनमें से एशिया और अफ्रीका के देश बीसवीं शताब्दी के मध्य से स्वाधीन हुए हैं। जबकि लैटिन अमरीकी देश औपचारिक दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में ही स्वाधीन हो गए थे। परंतु बीसवीं शताब्दी के मध्य तक ये देश पश्चिमी देशों के प्रभाव क्षेत्र बने रहे थे; इसलिए अपना विकास नहीं कर पाए थे। अब ये सारे नवेदित देश अपना आर्थिक और राजनीतिक विकास करने के इच्छुक हैं, और इस मामले में एक जैसे अनुभव से गुजर रहे हैं। वे अल्पविकसित क्यों रह गए ? पश्चिमी राष्ट्रों ने उन्हें पराधीन क्यों बनाया ?
वे अब भी अपना विकास करने में असमर्थ क्यों है? उन्हें देश के भीतर और बाहर से किन-किन बाधाओं का सामना करना पड़ा रहा है, और वे इन बाधाओं को कैसे दूर कर सकते हैं ? राज्य के उत्तर- औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य का सरोकार इन सब प्रश्नों से है।
राज्य-प्रणाली के अंतर्गत प्रभुत्व के सामान्य ढांचे को समझने के लिए उपनिवेशवाद के इतिहास और इसके प्रभाव को परखना होगा, और उन शक्तियों का विश्लेषण करना होगा जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों को बढ़ावा दिया, और उपनिवेशवाद की समाप्ति में योग दिया। इससे पता चलता है कि पश्चिमी यूरोप के जिन देशों ने सत्रहवीं शताब्दी तक अपने-आपको राष्ट्रों के रूप में संगठित कर लिया था, उन्होंने औद्योगीकरण और शहरीकरण के माध्यम से अपने आधुनिकीकरण का प्रयत्न किया। उन्हें वैज्ञानिक अन्वेषणों और आविष्कारों का लाभ पहले ही प्राप्त हो चुका था। उन्हें अपने विकास के लिए सस्ते कच्चे माल, सस्ते श्रम और बहुत बड़े बाजार की जरूरत थी। उन्होंने देखा कि वे अफ़्रीका, एशिया और दक्षिण अमरीका के देशों की आसीन से अपने जाल में फँसा सकते हैं। ये देश प्राकृतिक संसाधनों और श्रम शक्ति से संपन्न थे, परंतु उन्हें न तो आधुनिक शिक्षा प्राप्त हो पाई थी, न वे अपने-आपको राष्ट्रों के रूप में संगठित कर पाए थे। इनमें से कुछ देश प्राचीन काल में महानू सभ्यताओं के केंद्र रहे थे, परंतु मध्य युग के दौरान वे सम्भ्यताएं छिन्न-भिन्न हो चुकी थीं। उदाहरण के लिए, भारत और मिस्र अपने गौरवशाली अतीत के लिए विख्यात थे, परंतु अठारहवीं शताब्दी के मध्य में न तो वे राष्ट्रों के रूप में संगठित होने में सक्षम थे, न वे अपना आधुनिकीकरण करने की क्षमता रखते थे। तत्कालीन यूरोप के देशों को इन पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई। इस तरह अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमरीका के बहुत बड़े हिस्से पश्चिमी यूरोप के देशों के उपनिवेशवाद के पंजे में फँस गए।
इससे यह सिद्ध होता है कि उद्यमी लोग अपने देश को राष्ट्र के रूप में संगठित करने के बाद अन्य दशों के प्राकृतिक मानवीय संसाधनों का दोहन करने के उददेशय से उन पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं। फिर वे वहां अपना प्रशासन स्थापित करके अपनी संस्कृति को उस देश की मूल संस्कृति से उत्कृष्ट सिद्ध करने जुगाड़ करते हैं। ताकि वे वहां के लोगों की प्रशंसा, सम्मान और निष्ठा के पात्र बन सकें। वे यह दावा भी करने लगते हैं कि वे तथाकथित असम्भ्य जातियों को सभ्य बनाने का महान कार्य संपन्न कर रहे हैं, हालांकि वस्तुतः वे उनका शोषण करते रहते हैं। वे उस देश की मूल निवासियों में से ऐसा विशिष्ठ वर्ग पैदा करने और ऐसी संस्थाएं स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं जिनसे उन्हें अपना प्रशासन चलाने में सुभीता हो।
उपनिवेशवादियों ने यह प्रचार किया कि यूरोप समस्त प्रगति और आधुनिकता का केंद्र था। वह अपने इतिहास, भाषा, साहित्य और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से विश्व में सर्वश्रेष्ठ था। उसकी संस्कृति, कला-कौशल, राजनीतिक संरचनाएं और सामाजिक प्रथाएं इतनी महान् थीं। कि जहां जहां यूरोपवासियों ने अपने उपनिवेश बनाए, वहां के लोगों को सभ्यता का पाठ पढ़ाने के लिए इनका संपर्क ही पर्याप्त था। यूरोपीय जातियां भी विश्व की अन्य जातियों में श्रेष्ठ थीं। उपनिवेशवादी राष्ट्र आदिवासी लोगों को सभ्यता का लाभ पहुँचाने का महान् दायित्व पूरा कर रहे थे जिसे उन्होनें ‘श्वेत जाति के भार’ की संज्ञा दी। उन्होंने अपना दावा इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया कि उपनिवेश बनाए गए देशों के लोगों के मन में इस पर संदेह करने की कोई गुंजाइश न रह जाए।
उपनिवेशवादी शक्तियां जिन देशों को अपना उपनिवेश बनाती हैं, वहां वे अपनी असुविधा के लिए शिक्षा, उद्योग, परिवहन, संचार, इत्यादि को बढ़ावा देती हैं, और अपने प्रशासनिक एवं राजनीतिक ढांचे भी स्थापित करती हैं। इस तरह वे वहां की प्रगति में भी योग देती है। परंतु ये सब कार्य उनके शासन को सुविधा और स्थिरता प्रदान करने के ध्येय से किए जाते हैं। लार्ड मैकॉले ने 1935 में भारतीय शिक्षा के स्वरूप के बारे में प्रस्ताव तैयार किया था, उसका उद्देश्य हिंदुस्तानियों के ऐसे शिक्षित वर्ग का सृजन करना था जो यूरोपीय संस्कृति को अपनी संस्कृति से ऊँचा स्थान देते हों। भारतीय रेल-व्यवस्था, इत्यादि भी ब्रिटिश प्रशासन को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से स्थापित किए गए थे।
यह भी सच है कि उपनिवेशवादी शक्तियां अपने उपनिवेशों में जो शैक्षिक और प्रशासनिक ढांचे स्थापित करती हैं, वे वहां के लोगों के मन में सजगता और चेतना को बढ़ावा देते हैं। ये उनकी जड़ता को दूर करते हैं, अन्धविश्वासों को मिटाते हैं, और उन्हें तर्कसंगत ढंग से सोचने की प्रेरणा देते हैं। ये उनके मन में समाज-सुधार की अभिलाषा पैदा करते हैं जिससे कभी-कभी वे अपने अतीत के गौरव के प्रति सजग हो जाते हैं, और यह भी अनुभव करने लगते हैं। कि उपनिवेशवादी राष्ट्र उनका शोषण कर रहे हैं। ये सब तत्व बहुधा वहां राष्ट्रीय आंदोलन को जन्म देते हैं जो स्वाधीनता-संग्राम के रूप में अपने तर्कसंगत परिणाम पर पहुँचता है। तब तक उपनिवेशवादी राष्ट्र भी उनका पर्याप्त शोषण कर चुका होता है। जब उपनिवेशवादी राष्ट्र पराधीन बनाए गए देश की राष्ट्रीय पराधीन बनाए गए देश की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को दबा नहीं पाता, तब वह स्थानीय विशिष्टिवर्ग को सत्ता सौंपने का निर्णय कर सकता है, क्योंकि उसे यह आशा रहती है कि उसके चले जाने के बाद यह वर्ग उसका समर्थन करता रहेगा। फिर, जब उपनिवेशवादी राष्ट्र अपने लंबे शासन का पूरा लाभ उठा चुका हो, उसे कायम रखना एक खर्चीला धंधा लगने लगता है। अतः वह अपने उपनिवेश को स्वाधीनता प्रदान कर देता है। और उसके शोषण के नए तरीकों का आविष्कार कर लेता है जिन्हें ‘नव-उपनिवेशवाद‘ (New-coloniation) की संज्ञा दी जाती है।
वैसे उपनिवेश बनाए गए देश के लोगों को राजनीतिक स्वाधीनता मिल जाने के मतलब यह नहीं कि उपनिवेशवादी मूल्यों में उनकी आस्था भी समाप्त हो जाती है। कई बार उपनिवेशवादी दौर में प्रचलित राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ढांचे स्वाधीनता के बाद भी बने रहते हैं, और इनके साथ-साथ उपनिवेशवादी मूल्यों में लोगों की आस्था भी बनी रहती है। समकालीन परिदृश्य में, ऐसे कुछ मूल्य और ढांचे भूमंडीय संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं, और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से उनकी पुष्टि हो रही है।
उत्तर-औपनिवेशिक देश विकासशील देशों या नवोदित राष्ट्रों की श्रेणी में आते हैं, परंतु उन्हें राष्ट्र-निर्माण और राज्य-निर्माण की विकट समस्याओं को सुलझाना है। इनमें से बहुत सारे देश स्वाभाविक रूप से राष्ट्रों के रूप में विकसित नहीं हुए हैं, बल्कि वे उन क्षेत्रीय और प्रशासनिक भूभागों के रूप में टिके हैं जो उपनिवेशवादी शक्तियों ने प्रशासिनक सुविधा के लिए बनाए थे। इनका आकार इतना बड़ा है, जनसंख्या इनती विशाल है, और इनमें इतनी सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है कि इनमें राष्ट्र-निर्माण और राज्य निर्माण क कार्य अत्यंत कठिन प्रतीत होता है।
राष्ट्र-निर्माण वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत देश के सब लोगों के लिए निष्ठा का एक ही केंद्र विकसित किया जाता है ताकि वे अपनी निष्ठा को छोटे-छोटे कबीलों, गाँवों, तुच्छ रियासतों या अन्य संकीर्ण समूहों के प्रति सीमित न रखकर पूरे राष्ट्र को अपनी निष्ठा का केंन्द्र बना लें। इसके लिए लोगों के मन में समुदाय भावना, राष्ट्रीय पहचान सामाजिक सुदृढ़ता विकसित करना जरूरी होता है। उनकी राष्ट्रीय पहचान उनमें धर्म, जाति, प्रजाति, भाषा, संस्कृति और क्षेत्रीय सादृश्य पर आधारित विविधताओं को आड़े नहीं आने देती। यह बात महत्वपूर्ण है कि इन देशों में राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान राष्ट्र निर्माण की यथेष्ट भूमिका तैयार हो गई थी, परंतु स्वाधीनता के बाद इनकी राजनीति में विभाजनकारी तत्वों को तूल दंडेकर सत्ता पर अधिकार जमाने की कोशिश की गई जिससे राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को गहरा धक्का लगा है।
‘दूसरी ओर, राज्य निर्माण की प्रक्रिया के अंतर्गत शक्ति का ऐसा केन्द्र विकसित किया जाता है। जो संपूर्ण राज्य में शांति और व्यवस्था कायम कर सके, सब जगह अपने आदेश लागू करा सके, और राज्य की सुरक्षात्मक एवं कल्याणकारी सेवाओं को देश के कोने-कोने तक पहुँचा सके। विभाजनकारी प्रवृत्तियों, भौगोलिक दूरियों, परिवहन और संचार के अपर्याप्त साधनों और आधुनिक की कमी के कारण यह काम कभी-कभी बहुत मुश्किल पड़ता है। अतः उत्तर- औपनिवेशिक देशा में राज्य निर्माण की समस्या की कम गंभीर नहीं है।
वस्तुतः राष्ट्र-निर्माण और राज्य निर्माण परस्पर पूरक गतिविधियां हैं। जब हर तरह के लोग राज्य की सुरक्षात्मक और कल्याणकारी सेवाओं का लाभ उठाने के लिए आश्वस्त होंगे तो वे राष्ट्र राज्य के प्रति अपनी निष्ठा केंद्रित करने में भी देर नहीं लगाएंगे, और अपने-अपने संकीर्ण समूहों के हितों की तुलना में राष्ट्रहित को ऊँचा स्थान देने लगेंगे। दूसरी ओर, यदि सब लोग राष्ट्र-राज्य को अपी सर्वोपरि निष्ठा का केंद्र बना लेंगे तो राज्य के लिए अपनी सुरक्षात्मक एवं कल्याणकारी सेवाओं को देश के सब हिस्सों और सब लोगों तक पहुँचाया सुगम हो जाएगा।
राष्ट्र-निर्माण का कार्य संपन्न करने के लिए बहुधा कई तरह के राष्ट्रीय प्रतीक स्थापित किए जाते हैं, जैसे कि राष्ट्र-ध्वज, राष्ट्र-चिह्न, राष्ट्र-गान, राष्ट्रीय वेषभूषा, राष्ट्रीय पंचांग, राष्ट्रीय पुष्प, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय पक्षी, इत्यादि । राष्ट्रीय भावना को बढ़ावा देने के लिए लिए नए और पुराने राष्ट्र-नायकों की गौरव गाथाएं दोहराई जाती हैं। कभी-कभी इस प्रक्रिया में कुछ पौराणिक चरित्रों की गौरव-गाथाएं भी जोड़ देती हैं।, परंतु अनेकधर्मावलंबी देशों में इस करवाई से कुछ समस्याऐं भी पैदा हो सकती है। भारत-जैसे बहु-संप्रदायिक देशों में धर्म-निरपेक्ष मूल्यों की परिपुष्टि जरूरी है। बहुसंख्यक संप्रदाय के पौराणिक नायकों के गौरव-गान से अन्य संपद्रायों की सद्भावना प्राप्त करने में कठिनाई होगी।
फिर, विस्तृत निर्धन्ता, निरक्षरता, बेरोजगारी, अस्वस्थता, आवास की कमी, इत्यादि की समस्याओं को भी प्रभावशील ढंग से सुलझाना जरूरी है, अन्यथा देश के लोगों में सामुदायिकता की भावना और मेलजोल पैदा करने का कोई भी उपाय सार्थक सिद्ध नहीं होगा।
वस्तुतः उत्तर-औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय आंदोलन और स्वाधीनता-संग्राम के दौरान इनके गण्यमान नेताओं ने राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को पर्याप्त बढ़ावा दिया था। इन अत्यंत प्रतिभाशाली और चरित्रवान् नेताओं ने जनपुंज को गतिमान करके जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से मन में सामाजिक सद्भावना के बीज बो दिए थे। उनहोंनें जनसाधारण को यह विश्वास दिलाया था कि स्वाधीनता का स्वर्णिम प्रभात उनके लिए आशा की नई किरण लेकर उतरेगा। तब यह आशा की जाती थी कि विदेशी शासन की समाप्ति के बाद उत्तर- औपनिवेशिक राज्य जनसाधारण की आवश्यकताएं और आकांक्षाएं पूरी करने का साधन सिद्ध होगा।
परंतु यथार्थ के धरातल पर ये आशाएं झूठी सिद्ध हुई। स्वाधीनता के साथ सब तरह के लोगों की मांगें बहुत बढ़ गईं, और भिन्न-भिन्न समूहों ने नित्य नई मांग उठाना शुरू कर दिया। उपनिवेशवादी दौर का अधिकारितंत्र (Bureaucracy) जन-भावनाओं के प्रति सर्वथा उदासीन था, और पुलिस तो जनसाधारण का दमन करने में अभ्यस्त थी। चूंकि यह अधिकारितंत्र प्रशासन का दमन करने में अभ्यस्त थी। चूंकि यह अधिकारितंत्र प्रशासन के कार्यों के लिए प्रशिक्षित था, इसलिए इसे हटाना संभव नहीं था। परंतु इसके मन में जनसाधारण के प्रति सहानुभूति पैदा करना ‘भी अत्यंत कठिन था। फिर जैसे-जैसे राष्ट्र के कर्णधार बूढ़े होकर सामने से हटते हुए, राजनीतिक नेतृत्व की नई पीढ़ियो में वैसी प्रतिभा, निष्ठा और चरित्र विकसित नहीं हो पाया। राजनीति ऐसा खेल बन गई जिसमें संकीर्ण हितों का समर्थन प्राप्त करके सत्ता में हिस्सेदार बनने की जुगाड़ की जाती है। परिणाम यह है कि सार्वजनिक जीवन के स्तर में चारों ओर गिरावट होती है। फिर भी, नई पीढ़ी के गैर-राजनीतिक, प्रतिभाशाली व्यवसायिक विशिष्टवर्गों ने राष्ट्रीय समृद्धि में अपूर्व योग दिया है, और लोकतंत्रीय आकांक्षाओं, मानव-अधिकारों तथा सामाजिक न्याय की आवश्यकता के प्रति विस्तृत सजगता को बढ़ावा दिया है। इससे लगता है कि उत्तर- औपनिवेशिक एवं विकासशील देश भावी-विश्व व्यवस्था में जल्दी ही महत्वपूर्ण भूमिका संभाल लेंगे।
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