दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश कौन-कौन से थे?
दक्षिण भारत में 1200 ई. के अन्त में अनेक स्वतन्त्र राजवंश थे। नर्मदा के दक्षिण में महाराष्ट्र में चालुक्यों का शासन था। चालुक्य नरेश धर्म, संस्कृति और साहित्य के आश्रयदाता थे। इनके काल में वास्तुकला और स्थापत्य कला की बड़ी उन्नति हुई। चालुक्यों के पतन के बाद देवगिरि में यादव राजवंश का राज्य स्थापित हुआ। महाराष्ट्र के दक्षिण-पूर्व में द्वार समुद्र प्रदेश पर होयसल राजवंश का राज्य था। सुदुर दक्षिण में उस समय चोल राजवंश का राज्य था, जो कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के किनारे दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला हुआ था। इस राजवंश को चोल राजवंश भी कहते हैं। सुदुर दक्षिण में पूर्वी समुद्र तट से लगा पाण्ड्य राज्य था और पश्चिम समुद्र तट से लगा चेर राज्य था।
दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश (Important Dynasties of South India)
- पल्लव वंश
- राष्ट्रकूट वंश
- चालुक्य वंश (कल्याणी)
- चालुक्य वंश (वातापी)
- चालुक्य वंश (वेंगी)
- यादव वंश
- होयसल वंश
- कदंब वंश
दक्षिण भारत के कुछ प्रमुख राजवंशों को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है-
1. चालुक्य – राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय को परास्त कर चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अपने राज्य की स्थापना कर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। इसलिये ये कल्याणी के चालुक्य कहलाये । तैलप द्वितीय ने लगभग 24 वर्षों तक शासन चलाया। इस वंश के अन्य प्रमुख शासक पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन, मंगलेश, पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य, विष्णुवर्द्धन, सत्याश्रय, सोमेश्वर प्रथम, विक्रमादित्य पंचम एवं जयसिंह हुए।
2. पल्लव – चौथी शताब्दी में पल्लवों का उदय कृष्णा नदी के दक्षिण प्रदेश (आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु) में हुआ। पल्लव राजाओं ने लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। नरसिंह वर्मन प्रथम और नरसिंह वर्मन द्वितीय इस वंश के प्रतापी शासक हुए। नरसिंह प्रथम ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय को युद्ध में पराजित कर वतापीकोंड (वातापी को जीतने वाला) की उपाधि धारण की तथा काँचीपुरम् को अपनी राजधानी बनाया। कालान्तर में चालुक्य, पाण्डय और राष्ट्रकूटों से पल्लवों के संघर्ष चलते रहे। इस वंश के अन्तिम शासक अपराजित वर्मन को ‘चोलों ने हराकर इस राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार पल्लव वंश का अन्त हो गया। पल्लवों का शासन प्रबन्ध सुव्यवस्थित था। जैन एवं बौद्ध धर्म के लिये यह अवनति का काल था। अधिकांश पल्लव नरेश वैष्णव धर्मावलम्बी थे। उत्तरी भारत की भाँति दक्षिणी भारत में भी भक्ति सम्प्रदाय, मूर्ति पूजा, अवतारवाद, यज्ञ तथा अन्य कर्मकाण्ड आदि की स्थापना हुई। पल्लव नरेशों ने विष्णु और शिव के भी अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने तमिल भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की। प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य तिरमंगई और प्रसिद्ध शैव आचार्य सुन्दरमूर्ति इसी काल में हुए। इसी समय हिन्दू धर्मशास्त्र दक्षिण भारत में लोकप्रिय हुए।
3. चोल – 9वीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी तक तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश के कुछ भागों एवं कर्नाटक पर शासन करने वाला चोल वंश दक्षिण क्षेत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली रहा। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की। उसने तन्जौर के पल्लवों को हराकर तन्जौर पर अधिकार किया। इस वंश का सर्वाधिक पराक्रमी राजा राजराज प्रथम हुआ, जिसने अपनी योग्यता, पराक्रम एवं राजकौशल से एक विशाल चोल साम्राज्य का निर्माण किया। उसने चेर राजाओं को हराकर केरल पर और पाण्डय राजा को हराकर मदुरै पर अधिकार किया तथा श्रीलंका के उत्तरी भाग को जीतकर उसे अपने साम्राज्य का प्रान्त बनाया। इस प्रान्त का नाम उसने ‘मुम्मादी’ चोलमण्डलम’ रखा। राजराज ने वैंगी के चालुक्यों को भी हराया तथा समुद्री साम्राज्य के निर्माण एवं अपने वाणिज्य व्यापार को बढ़ाने तथा उस पर नियन्त्रण रखने हेतु कलिंग एवं लक्षद्वीप के पुराने द्वीपों एवं मालद्वीपों को जीतकर एक बड़े साम्राज्य का निर्माण किया। राजराज प्रथम के बाद उसका यशस्वी पुत्र राजेन्द्र प्रथम गद्दी पर बैठा जिसने समस्त श्रीलंका को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। केरल एवं पाण्डय राज्य पर पुनः अधिकार किया। उसने पूर्व के पाल राज्य में गंगा नदी तक अपना वर्चस्व स्थापित किया और ‘गंगईकोड’ (अर्थात् गंगा क्षेत्र को जीतने वाला) की उपाधि धारण की। राजेन्द्र प्रथम ने कावेरी नदी के मुहाने पर अपनी नयी राजधानी ‘गंगई कोडा चोलपुरम’ बनायी। राजेन्द्र प्रथम के पास एक शक्तिशाली जलबेड़ा था, जिसकी सहायता से उसने बंगाल की खाड़ी के पार विजय प्राप्त की ।
4. राष्ट्रकूट – चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन के सामन्त दतिदुर्ग ने राष्ट्रकूट वंश्या की नींव डाली थी । राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में अपनी शक्ति तथा साम्राज्य विस्तार के लिये जाने जाते हैं। कृष्ण प्रथम, गोविन्द द्वितीय, राजा ध्रुव, धारावर्ष, गोविन्द तृतीय, अमोघवर्ष एवं कृष्ण द्वितीय “इस वंश के प्रमुख शासक हुए। इनकी राजधानी ‘मान्यखेट’ थी। कन्नौज तथा उत्तर भारत पर अधिकार करने के लिये राष्ट्रकूटों को गुर्जर प्रतिहार एवं पाल वंश से सतत् संघर्ष करना पड़ा, जिससे उनकी शक्ति कमजोर हो गयी थी। सन् 973 में चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय को परास्त कर राष्ट्रकूटों की शक्ति का दमन किया एवं उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया। प्रशासनिक व्यवस्था में राजा सर्वोच्च अधिकारी होता था तथा वह मन्त्रियों की सहायता से अपना शासन सुचारु रूप से चलाता था। राष्ट्रकूट राजा शिक्षा एवं कला के संरक्षक थे। अमोघवर्ष प्रथम एक उच्च कोटि का लेखक था। इस वंश के शासकों ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा अपने इष्ट देवताओं (शिव एवं विष्णु) की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित कीं ।
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