हड़प्पा सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ
हड़प्पा सभ्यता भारत की अब तक की ज्ञात सबसे प्राचीन सभ्यता है। यह सभ्यता 20वीं सदी के प्रारम्भ में ज्ञात हुई। यह एक नगरीय सभ्यता थी और विशाल भू-भाग पर फैली थी। हड़प्पा अथवा सिन्धु घाटी सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक जीवन एवं वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
हड़प्पा कालीन वास्तुकला
(1) नगर-योजना- सिन्ध प्रदेश के प्रमुख नगर मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हुद्डो, लोहमजूदड़ो आदि सरिताओं के तटों पर स्थित थे। प्रदेश की सरितायें समय-समय पर अपनी दिशायें परिवर्तन करती रहती ची, समय-समय पर उनमें बाढ़ भी आती रहती थी। उत्खनन में निकली तहों की परीक्षा से प्रकट होता है कि इन नगरों में कम से कम 2 बार बाढ़ आई थी। मोहनजोदड़ो एक योजनानुसार निर्मित नगर प्रतीत होता है, यहाँ की सड़कों की चौड़ाई 137 फुट से 33 फुट तक हैं।
(2) भवन निर्माण- नगर के भवन सांदी के लिए प्रसिद्ध हैं, घरों में प्रवेश स्थान तंग गलियों में हैं, उनमें खिड़कियाँ बिल्कुल नहीं हैं। कुछ कमरों को सुरक्षा की दृष्टि से बनाया गया है। नगर के खण्ड में एक निश्चित योजना के अनुसार भवनों का निर्माण होता था। छोटे भवन की नाप 30′ x 26′ होती थी। इनमें 4 x 5 मीटर के कमरे होते थे, मोहन जोदड़ों के भवन हड़प्पा की अपेक्षा अधिक विशाल, थे, रथूल रूप से ध्वंसावशेषों को विद्वानों ने तीन कालों में बाँटा है—(1) प्राचीनतम, (2) मध्य (3) नवीनतम, प्राचीनतम और मध्य काल में नवीनतम अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित शासन था।
(3) जल-विसरण- मोहनजोदड़ो के निवासियों ने जल वितरण का अति उत्तम ढंग अपना रखा था, कुएँ तो वहाँ अत्यधिक संख्या में पाये गये हैं, किन्तु इन कुओं की मुँडेर फर्श से कुछ इंच ऊँची है।
(4) विशाल स्नानागार- खुदाई में विशाल स्नानागार भी मिला है। उसकी ल. 39 फीट, चौड़ाई 23 फीट तथा गहराई 8 फीट है। इस स्नानागार का प्लास्टर बहुत चिकनाई के साथ किया गया है। इसमें प्रवेश करने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, इसका पानी निकालने के लिए मोरी भी बनाई गयी हैं।
(5) धान्यागार- मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा दोनों नगरों में ही बड़े धान्यागार या कोठरे मिले हैं। इनका आकार 150 x 75. फुट है, यह पक्की ईंटों द्वारा बना हुआ भवन था, इसमें कोठे थे, इन कोठी में अन्न भरा जाता था इनमें हवा के आने-जाने के लिए भी व्यवस्था थी। कोठार में सामान रखने तथा निकालने के लिए एक मंच भी बना हुआ है।
(6) राजकीय सभा भवन– इस भवन का आधार 85 x 85 फुट है उसमें 25 फुट ऊंचे 20 खम्बे 5-5 की चार पंक्तियों में थे, सम्भवतः इसका प्रयोग पौर परिषद की
(7) राजप्रसाद- खुदाई में एक विशाल राजप्रसाद भी मिला है, इनमें अनेक कमरे बैठकों के लिए होता था। इस प्रकार यह भवन उस समय संस्थागार का कार्य देता था। हैं। कुछ विद्वानों ने उसको एक महाविद्यालय भी कहा है। इसके अतिरिक्त भवन भी मिले हैं जिनके निकट कुछ भट्टियाँ मिली हैं, जो इस बात की परिचायक हैं कि यहाँ धातुएँ गलाई जाती होंगी।
हड़प्पा कालीन सामाजिक व्यवस्था
(1) समाज का संगठन– ध्वंसावशेषों से यह पता चलता है कि समाज को उस समय चार भागों में विभक्त किया गया था। विद्वान, योद्धा, व्यवसायी तथा श्रमजीवी, विद्वानों के अन्तर्गत पुजारी, वैद्य तथा ज्योतिषी आते थे।
(2) भोजन- अनुमान है कि इस नगर के निवासी दूध से बनी बस्तुयें, गेहूँ, जौ, मछली, मांस, भेड़ का. मांस इत्यादि खाते होंगे, सिन्धु घाटी के निवासियों ने भी इस क्षेत्र में काफी उन्नति कर ली थी।
(3) वस्त्र- सूत कातने के चरखों तथा सूती कपड़े के एक टुकड़े की जानकारी मिलती है। वे सूती, ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। अनेक वस्त्र सम्बन्धी ज्ञान के लिए सौभाग्यवश एक पुरुष की मूर्ति प्राप्त हुई है, जो शाल ओढ़े है।
(4) श्रृंगार – स्त्री तथा पुरुष दोनों श्रृंगार करते थे। कुछ मनुष्य छोटी-मोटी मूछे तथा दाढ़ियाँ रखते थे और कुछ मनुष्यों के सिर के बाल छोटे रखे होते थे।
(5) आभूषण– सिन्धु घाटी के प्री-पुरुषों को आभूषणों से विशेष प्रेम था। धनी एवं निर्धन समान रूप से इस ओर आकृष्ट थे। कुछ आभूषण ऐसे थे जो स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। इन आभूषणों में हार, भुजबन्ध, कंगन और मुद्रिका हैं, स्त्रियों के आभूषणों में नथुनी, करधनी, बाली आदि प्रचलित थीं।
हड़प्पा कालीन आर्थिक जीवन
(1) कृषि– सिन्ध प्रदेश में जल की अधिकता थी, इससे वहाँ का कृषि कार्य उन्नत था। खुदाई में प्राप्त अवशेषों तथा चित्रों के आधार पर विद्वानों ने इस प्रदेश की कृषि सम्बन्धी अनेक बातों का पता लगाया है। ये लोग गेहूँ, जौ, कपास, तिल, चावल, मटर आदि की खेती करते थे। इसके अलावा ये लोग केला, अनार, खजूर तथा नींबू आदि फलों की खेती से भी परिचित थे।
(2) पशुपालन– सिन्ध प्रदेश के निवासी कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी कार्य करते थे। इनके बर्तनों तथा मुहरों आदि पर अनेक पशुओं के चित्र अंकित मिलते हैं। बैल का इन लोगों के धार्मिक जीवन में बहुत महत्व था। आध बैल के अनेक सुन्दर चित्र अनेक सीलों पर ‘अंकित मिलते हैं। गाय, भैंस, भेड़ आदि पशुओं को वे लोग दूध प्राप्त करने के लिए पालते थे।
(3) शिकार– सिन्धु घाटी के निवासी मांसाहारी थे, अत- वे मांस की प्राप्ति के लिए पशुओं का शिकार करते थे। पशुओं से प्राप्त हड्डियों से तथा चमड़े से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण किया करते थे मछली को वे बहुत प्रेम से खाते थे और अण्डे का भी प्रयोग करते थे।
(4) वस्त्र व्यवसाय- खुदाई में कुछ तकलियाँ मिली हैं, खुदाई में कपड़े तथा रात के कुछ अवशेष भी मिले हैं। बहुत सी प्रतिमायें वस्त्र धारण किए हुए दिखाई गयी हैं, इससे सिद्ध होता है कि सिन्ध प्रदेश के लोग वस्त्र-निर्माण व्यवसाय से परिचित थे।
(5) कुम्भकार व्यवसाय- सिन्ध प्रदेश की खुदाई में मिट्टी के बने अनेक प्रकार के कलश, घड़े प्याले, तस्तरियाँ तथा खिलौने आदि मिलते हैं। इन बर्तनों का निर्माण चाक द्वारा होता था और खुदाई में बर्तन पकाने के बहुत से भट्टे भी (आग) मिले हैं।
(6) धातु तथा खनिज पदार्थ- सिन्ध प्रदेश में ताँबे का प्रयोग बहुत अधिक मात्रा में होता था। इसके अलावा ये लोग चाँदी तथा सोने के प्रयोग से भी परिचित थे। खुदाई में चाँदी के पात्र भी कुछ मिले। हैं जिन पर इस काल में शीशे का प्रयोग भी किया जाता था। खुदाई में ताम्बे की कुछ तलवारें, कटारें चाकू आदि प्राप्त हुए हैं।
(7) घरेलू वरतुयें- ये लोग अन्य घरेलू वस्तुयें बना कर उनका व्यवसाय करते थे। कुर्सियाँ तिपाई तथा चौकियाँ भी मिली हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मिट्टी के बने हुए दीपक प्राप्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग मोमबत्ती या अन्य किसी ऐसी ही वस्तु का प्रयोग करते थे।
हड़प्पा कालीन धार्मिक व्यवस्था
सिन्धु घाटी में पाये गये अवशेषों में से किसी के बारे में यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता है इनमें से कोई देव मन्दिर भी था, परन्तु कुछ मूर्तियों और मुख्यतया विभिन्न मुहरों पर अंकित आकृतियों से हमें यहाँ के निवासियों के धर्म का अनुमान होता है। सिन्धु प्रदेश के ध्वंसावशेषों, मूर्तियों, मुहरों तथा ताबीजों आदि के आधार पर विद्वानों ने सिन्धु निवासियों के धर्म की रूपरेखा निश्चित की है, परन्तु किसी लिखित साक्ष्य के अभाव में यह सम्भव है कि विद्वानों के अनेक निष्कर्ष सन्देहपूर्ण प्रतीत हों।
(1) परम पुरुष की उपासना- सिन्ध प्रदेश में मैके महोदय को एक मुद्रा मिली थी, इसके मध्य में एक नग्न शरीर व्यक्ति योग-मुद्रा में बैठा है। इस योगी के तीन मुख हैं। इसके शीश पर त्रिशूल के समान कोई वस्तु है, योगी के बायीं और एक गेंडा और एक भैसा है तथा दाई और एक हाथी और व्याघ्र है। इसके सम्मुख एक हिरन है और योगी के ऊपर 6 शब्द लिखे हैं, यदि ये पढ़ लिये जाते तो कदाचित इस योगी का समीकरण निर्विवाद रूप से हो जाता।।
(2) परमानारी- परम पुरुष के साथ-साथ सिन्धु निवासियों ने परमानारी की भी कल्पना की थी। द्वन्द्व की स्थापना के द्वारा कदाचित उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य समझाया था। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हुदड़ों आदि स्थानों पर मिट्टी की बनी हुई बहुसंख्यक नारी की मूर्तियाँ निकली हैं। इनमें नारी, प्रायः नग रूप में ही प्रदर्शित की गयी है, उसकी कमर में पटका मौर, मेखला तथा गले में गुलूबन्द अथवा हार रहता है। शीश पर कुल्हाड़ी की आकृति की कोई वस्तु रहती है।
(3) लिंग पूजा- हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में बहुसंख्यक लिंग मिले हैं। ये साधारण पत्थर, लाल पत्थर अथवा नीले सैराडस्टोन, चीनी मिट्टी अथवा सीप के बने हैं। ये दो प्रकार के हैं – (1) फैलिक, (2) वीटल्स।
(4) योनि पूजा– हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में बहुसंख्यक छल्ले मिले हैं। आरियल स्टीन ने इस प्रकार के छल्ले बलूचिस्तान में भी पाये हैं, ये छल्ले भी पत्थर, चीनी मिट्टी अथवा सीप के बने हैं। ये आधा इंच से लेकर चार इंच तक बड़े हैं, अधिकांश विद्वान इन छल्लों को योनियों मानते हैं। मैके का कथन है कि समरत छल्ले योनि मूर्तियाँ नहीं हैं। कदाचित कुछ छल्ले स्तम्भों के आधार थे, इनके ऊपर स्तम्भ खड़े किये गये थे।
(5) वृक्ष पूजा- खुदाई में विभिन्न प्रकार के वृक्षों की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। मोहन जोदड़ो से प्राप्त एके मुद्रा पर दो जुड़वाँ पशुओं के शीश पर नौ पीपल की पत्तियाँ दिखाई गई हैं। नग्न् नारी के गर्भ से भी वृक्ष निकलता हुआ दिखाया गया है। सिन्धु प्रदेश में पीपल का वृक्ष सबसे अधिक पवित्र समझा जाता था। अन्य वृक्षों में नीम, खजूर, बबूल और शीशम सरलतापूर्वक पहचाने जा सकते हैं।
(6) पशु पूजा- उपलब्ध सामग्री को देखने से अनुमान होता है कि सिन्धु प्रदेश में पशुपूजा भी प्रतिष्ठित थी। मोहनजोदड़ो में एक ताम्रपत्र पर काट कर बनाया गया कूबड़दार बैल मिला, बैल की पूजा प्राचीन संसार के अनेक देशों में होती थी। क्रीट, उर, ईरान, यूनान, रोम आदि देशों में इस पूजा के उदाहरण मिले हैं। बैल शक्ति का प्रतीक समझा जाता था।
(7) सूर्य तथा अग्नि की पूजा– सिन्धु निवासी अग्नि की पूजा करते थे, प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है कि इस काल में अग्नि शालायें भी थीं, वहाँ अग्नि देवता को बलि दी जाती थी।
(8) जल पूजा- मोहनजोदड़ो में एक जो विशाल स्नानागार मिला है। चारों ओर बरामदे बने हैं उनके पीछे कमरे बने हैं। विद्वानों का अनुमान है कि यह स्नान कुण्ड के कुण्ड धार्मिक स्नानों के काम में आता था। एक अन्य भवन के समीप तीन कुएँ मिले हैं। दीक्षित महोदय का कथन है कि इन कुओं के जल से लोग शुद्धि करते होंगे।
(9) मूर्ति पूजा और मन्दिर- देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, स्तम्भों और प्रतीक चिन्हों के निर्माण और अंकन से प्रतीत होता है कि सिन्धु-निवासी साकार उपासना करते थे।
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