राजपूतों की सामाजिक और सांस्कृतिक उपलब्धियां
भारत के स्वतन्त्र राजवंशों की शासन व्यवस्था पूर्णतः निरंकुश थी परन्तु ये शासक अपने मन्त्रियों से सलाह भी लेते थे। सामन्त प्रथा प्रचलित थी जो स्वतन्त्र रूप से शासक के अधीन रहते हुए कार्य करते थे। आज की तरह ग्राम पंचायतें भी थीं जो राजकीय हस्तक्षेप से मुक्त थी। इस काल में संस्कृत भाषा में विभिन्न विषयों पर ग्रन्थ लिखे गये जिनमें माघ का शिशुपाल वध, भारवि का किरातार्जुनियम, कल्हण का राजतरंगिणी और जयदेव का गीत गोविन्द प्रमुख हैं। इस काल में स्वतन्त्र राजवंशों के शासकों ने अनेक सुन्दर भवनों एवं मन्दिरों का निर्माण कराया जिनमें भुवनेश्वर का लिंगराज मन्दिर, कोणार्क का सूर्य मन्दिर, पुरी का जगन्नाथ मन्दिर, ग्वालियर, चित्तौड़, रणथम्भौर के दुर्ग, राजस्थान के आबू पर्वत पर सफेद संगमरमर के जैन मन्दिर आदि बनाये गये। चित्रकला के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। दीवारों पर पशु-पक्षियों एवं वृक्ष लताओं के सुन्दर चित्र बनाये। सम्राट हर्ष के बाद उत्तर और दक्षिण भारत के इन स्वतन्त्र राजवंशों का काल वीर गाथाओं का काल था। राजनीतिक अस्थिरता होते हुए भी इस काल में भारतीय कला, संस्कृति एवं साहित्य की बहुत उन्नति हुई।
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