प्रयोजनवाद के आधारभूत सिद्धान्त
प्रयोजनवाद के आधारभूत सिद्धान्त अग्रलिखित हैं-
1. सत्य मानव निर्मित होता है- प्रयोजनवादी सत्य को पूर्व से उत्पन्न वस्तु नहीं मानते। उनके अनुसार सत्य वही है जो प्रयोग करने पर खरा उतरता हो अर्थात् समस्या का सही हल, जिससे सन्तोष मिले, वही सत्य है। ये ईश्वर को चरम सत्य नहीं मानते। रसेल के अनुसार- “स्मृति सम्बन्धी सत्य सदैव व्यावहारिक रूप से उपयोगी नहीं होता।”
2. मानवीय शक्ति पर बल- प्रयोजनवाद मानवीय शक्ति पर बल देता है क्योंकि वह अपनी आवश्यकता के अनुरूप वातावरण का सृजन कर अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करता है। मानवीय गुणों के विकास के लिये सुन्दर वातावरण बनाता है। तर्क मानवीय ज्ञान का साधन है।
3. सत्य की परिवर्तनशीलता- प्रयोजनवादियों के अनुसार सत्य परिवर्तनशील है तथा यह देशकाल एवं परिस्थिति के अनुरूप बदलता रहता है। प्रयोजनवाद के जन्मदाता विलियम जेम्स ने कहा है-“सत्यता किसी विचार का स्थायी गुण-धर्म नहीं है, वह तो अकस्मात् विचार में निर्वासित होता है।”
4. उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रयोजनवादी केवल उन्हीं विचारों को श्रेष्ठ समझते हैं जो उपयोगी होते हैं। इसीलिये रसेल ने व्यावहारिक उपयोगिता का पक्ष समाज के समक्ष रखा था। उन्होंने कहा कि जीवन में व्यावहारिक उपयोगिता को हमें भुला नहीं देना चाहिये।
5. आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा- प्रयोजनवाद आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा करता है। हीगल ने कहा है कि हम अमूर्त ब्रह्मवाद या ईश्वर के चक्कर में व्यावहारिक जीवन को भूल जायें तो जीवन में सफलता कैसे मिलेगी। अत: अमूर्त्त विचार आदर्श जीवन के लिये उपयोगी नहीं कहे जा सकते।
6. सामाजिक तथा प्रजातान्त्रिक दृष्टिकोण पर बल – ड्यूवी के अनुसार, “प्रजातन्त्र परिवर्तन के आधार पर आगे बढ़ता है। ये परम्परागत रूढ़ियों, बन्धनों तथा अन्ध-विश्वासों में विश्वास नहीं रखते, ये ‘ विचार’ क्रिया को परिणित करते हैं तथा उसे परिवर्तन एवं विकास की ओर बढ़ाते हैं।”
7. बहुत्ववाद का समर्थक- प्रयोजनवाद ने चरम सत्ता या अन्तिम सत्ता को तीन वादों में परिभाषित किया है- (1) एकत्ववाद, (2) द्वैतवाद एवं (3) बहुत्ववाद। प्रयोजनवाद बहुत्ववाद का समर्थक है। मीमांसा सूत्रकार जैमिनी आत्मा को शरीर, इन्द्रिय और बुद्धि से भिन्न मानकर आत्म- बहुत्ववाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। कुमारिल के अनुसार, आत्मा को कर्ता, भोक्ता, ज्ञान-शक्तिसम्पन्न, नित्य बिन्दु और परिणामी मानकर अहं प्रत्यय का विषय माना गया है। रस्क के अनुसार-“प्रयोजनवाद इस बात की आवश्यकता ही नहीं समझा कि संसार का किसी एक तत्व या सिद्धान्त के आधार पर स्पष्टीकरण करे। प्रयोजनवाद अनेक सिद्धान्तों को स्वीकार करने में सन्तोष अनुभव करता है। इस तरह वह बाहुल्यवादी है ।”
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