अनुकरणीय शिक्षण अथवा अनुरूपित शिक्षण (Simulated Teaching)
अध्यापक शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण अभ्यास (Teaching Practice) से पूर्व पाठ-प्रदर्शन (Demonstration Lesson) की परम्परा है। छात्राध्यापकों को एक या दो पाठों का प्रदर्शन किया जाता है और उन्हें कक्षा-शिक्षण के लिये भेज दिया जाता है। छात्राध्यापक पाठ-प्रदर्शन का ही अनुकरण करने का प्रयास करते हैं और अपनी मौलिक क्षमताओं का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। उन्हें कक्षा के सामाजिक व्यवहारों का बोध नहीं होता है, इसलिये उन्हें कक्षा शिक्षण में अधिक कठिनाइयाँ होती हैं और अपेक्षित शिक्षण व्यवहार का विकास नहीं होता है।
अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षणार्थियों (Apprentices) को पूर्व-अभ्यास में रखा जाता है तब उन्हें अपने व्यवसाय में कार्य करने की अनुमति दी जाती है। शिक्षण व्यवसाय में पूर्व-अभ्यास का अवसर नहीं दिया जाता है जबकि व्यावसायिक कुशलता से यह अधिक आवश्यक है। इसी पूर्व अभ्यास को अनुकरणीय शिक्षण कहते हैं।
अनुकरणीय शिक्षण की धारणाएँ (Assumptions of Simulated Teaching)
इस प्रविधि का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में हुआ है। इसका विकास क्रुश शैन्क (1968) ने अध्यापक प्रशिक्षण प्रणाली के लिये किया था। इसे नाटकीय प्रविधि (Role Playing) भी कहते हैं। ‘कार्ल अपिनशा’ तथा उनके साथियों ने, शिक्षक व्यवहार क्रम (Taxonomy of Teacher Behaviour) का विकास किया है।
इस प्रविधि की प्रमुख धारणा (Assumption) यह है कि प्रभावशाली शिक्षक के लिये शिक्षक व्यवहार के कुछ प्रारूप आवश्यक होते हैं। इन शिक्षक व्यवहार के प्रारूपों का अभ्यास किया जा सकता है।
अनुकरणीय शिक्षण का प्रारूप (Structure of Simulating Teaching)
इस प्रविधि को छात्राध्यापकों के शिक्षण के प्रशिक्षण के लिये प्रयुक्त किया जाता है। कक्षा-शिक्षण अभ्यास से अनुकरणीय – शिक्षण का अभ्यास कराया जाता है। यह एक नाटकीय (Role Playing) प्रविधि मानी गयी है। छात्राध्यापक इसके अभ्यास में शिक्षक तथा छात्र दोनों का कार्य करते हैं। एक छात्राध्यापक शिक्षक का कार्य करता है और अन्य छात्राध्यापक उस स्तर के छात्रों का कार्य करते हैं। एक छोटे प्रकरण (Topic) का शिक्षण किया जाता है। अन्य छात्राध्यापक छात्रों के समान ही व्यवहार करते हैं। शिक्षक-कालांश दस अथवा पन्द्रह मिनट का होता है। उसके बाद पाँच मिनट शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में वाद-विवाद होता है, प्रशंसा भी करते हैं, सुझाव भी दिये जाते हैं। इसके बाद एक अन्य छात्राध्यापक शिक्षक का कार्य करता है। पहले जिसने शिक्षक का कार्य किया है वह शेष के साथ बैठकर छात्रों के समान व्यवहार करता है। वाद-विवाद छात्राध्यापक को उसके शिक्षण के सम्बन्ध में जानकारी देता है जो पृष्ठपोषण का कार्य करता है और जिससे अपेक्षित व्यवहार का अनुसरण किया जाता है।
प्रथम सोपान में छात्राध्यापकों को शिक्षक के पद का कार्य एक क्रम में सौंपा जाता और शेष अवसरों पर छात्र तथा निरीक्षक का कार्य सौंपा जाता है।
द्वितीय सोपान में उस शिक्षण-कौशल को निर्धारित किया जाता है जिसका अभ्यास करते और विकास के लिए सुझाव दिये जाते हैं। छात्राध्यापक अपने शिक्षण के प्रकरण का चयन करते हैं और पाठ का नियोजन करते हैं।
तृतीय सोपान में शिक्षण के आरम्भ करने तथा अन्त करने के लिये कार्यक्रम की रूपरेखा निश्चित की जाती है।
चतुर्थ सोपान में शिक्षण व्यवहार की क्रियाओं के मापन की विधियों को निश्चित किया जाता है।
पंचम सोपान में अनुकरणीय शिक्षण (SST) का अभ्यास किया जाता है और उन्हें पृष्ठपोषण दिया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर अभ्यास की विधि को दूसरे सूत्र में बदल लिया जाता है।
षष्ठम सोपान में शिक्षण की विधियों को बदल लिया जाता है जिससे शिक्षण के आगामी कौशल का अभ्यास किया जा सके। परिवर्तन आवश्यक समझा जाता है जिससे छात्राध्यापक की शिक्षण के प्रति रुचि बनी रहे।
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