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रचनात्मकतावाद क्या है? | Constructivism in Hindi

रचनात्मकतावाद क्या है
रचनात्मकतावाद क्या है

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रचनात्मकतावाद (Constructivism )

रचनात्मकतावाद (Constructivism)– ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों’ के अध्ययन का तीसरा दृष्टिकोण है। आदर्शवाद और यथार्थवाद के मुकाबले यह नजरिया विश्व राजनीति की जाँच सामाजिक धरातल पर करने का प्रयत्न करता है। रचनात्मकतावादियों का दावा है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की सही समझ केवल भौतिक सीमाओं के दायरे में होने वाली तर्कसंगत अन्योन्यक्रियाओं से ही नहीं प्राप्त की जा सकती (जैसा कि यथार्थवादियों का आग्रह है) और न ही उन्हें संस्थागत सीमाओं के भीतर परखने से काम चल सकता है (जैसा कि आदर्शवादी कहते रहे हैं) रचनात्मकतावादियों के अनुसार सम्प्रभु राज्यों के बीच बनने वाले सम्बन्ध केवल उनके स्थिर राष्ट्रीय हितों पर ही आधारित नहीं होते। उन्हें लम्बी अवधि के दौरान बनी अस्मिताओं के प्रभाव में उठाये जाने वाले कदमों को प्रारूपों के तौर पर देखकर समझना पड़ता है। रचनात्मकतावादी अपना ध्यान अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के स्तर पर मौजूद संस्थाओं पर केन्द्रित करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय कानून, राजनय और सम्प्रभुता को अहमियत देते हैं। शासन व्यवस्थाएँ भी उनके लिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे भी विनिमयकारी और विधेयक संरचनाएँ पैदा करती हैं। उनके हाथों एक सामाजिक जगत रचा जाता है जिसकी मदद से राज्य के व्यवहार और आचरण तात्पर्यो का अंदाजा लगाया जा सकता है

रचनात्मकतावाद का सिद्धान्त भौतिक आयामों की उपेक्षा नहीं करता, बल्कि वह उनके साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को समझने के लिए सामाजिक आयामों को भी जोड़ देता है। इसके तहत जब संस्थाओं की चर्चा की जाती है तो उसका मतलब केवल संगठित ढाँचा ही नहीं होता। संस्था का तात्पर्य है अस्मिताओं और हितों की एक स्थिर संरचना। एक ऐसी संरचना जिसमें समन्वय की समझ एवं अपेक्षाएँ और सामाजिक ज्ञान अन्तर्निहित है। रचनात्मकतावादी संस्थाओं को मूलतः एक संज्ञानात्मक अस्तित्व की तरह देखते हैं जिन्हें अपने कर्त्ताओं के विचारों की सीमाओं के दायरे में ही रहना पड़ता है। संस्थागत संरचनाओं के मानकीय प्रभाव के साथ-साथ रचनात्मकतावाद बदलते हुए मानकों और अस्मिताओं व हितों के बीच बने सूत्रों की जाँच करता है। चूँकि राज्य और अन्य कर्त्ताओं की गतिविधियों के कारण संस्थाओं में लगातार परिवर्तन होता रहता है, इसलिए रचनात्मकतावाद संस्थाओं और कर्त्ताओं को परस्पर अनुकूलन करते रहने वाले अस्तित्वों की तरह देखता है।

इस विवरण से लग सकता है कि एक सैद्धान्तिक व्यवहार के तौर पर रचनात्मकतावाद पर अमल करना कुछ कठिन ही होगा। दरअसल, राज्यों के व्यवहार का अंदाजा लगाने के लिए किसी एक खास सामाजिक संरचना को चुनने की सिफारिश करने के बजाय यह दृष्टिकोण कहता है कि किसी एक परिस्थिति में मौजूद संरचना की जाँच-पड़ताल करके उसके विशिष्ट दायरे में राज्य के व्यवहार का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर अनुमान गलत साबित होता है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस संरचना को ठीक से समझा नहीं गया है या वह अचानक बदल गयी है। यदि यथार्थवादी कहते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अराजकता व्याप्त है, तो रचनात्मकतावादी कहेंगे कि उनकी यह धारणा हॉब्स द्वारा प्रतिपादित ‘प्रकृत अवस्था’ के दर्पण में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को देखने से उपजी है। इस प्राकृत अवस्था का निष्कर्ष सामाजिक सम्बन्धों की एक विशिष्ट संरचना से निकाला गया है जो अब बदल चुकी है।

संरचनावादियों की मान्यता के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ विनियमन भी करती हैं और विधेयक भूमिका भी निभाती हैं। विनियमनकारी भूमिका का अर्थ है कुछ खास तरह के व्यवहारों और आचरणों को मान्य या प्रतिबन्धित करना। विधेयक भूमिका का आशय है कि किसी व्यवहार या आचरण को परिभाषित करते हुए उसे एक निश्चित तात्पर्य से सम्पन्न करना। राज्य उनकी निगाह में एक समष्टिगत (कॉरपोरेट) अस्मिता है। वह अपने बुनियादी लक्ष्यों ( सुरक्षा, स्थिरता, मान्यता और आर्थिक विकास) का निर्धारण करता है, परन्तु इन लक्ष्यों की प्राप्ति सामाजिक अस्मिताओं पर निर्भर है; अर्थात् राज्य खुद को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के संदर्भ में जिस तरह समझेगा, उसी तरह उसकी सामाजिक अस्मिताएँ बनेंगी। इसी तरह की अस्मिताओं के आधार पर राज्य का राष्ट्रीय हित संरचित होगा।

संरचनावादी यथार्थवादियों द्वारा अराजकता को दिये जाने वाले महत्त्व को पूरी तरह नजरअंदाज नहीं करते, पर उनका कहना है कि अराजकता अपने आप में अहम् नहीं हो सकती। सम्बन्धों की अराजकता दो मित्र राज्यों के बीच भी हो सकती है और दो शत्रु राज्यों के बीच भी। दोनों का मतलब अलग-अलग होगा। इस लिहाज से अराजकता नहीं, बल्कि उसके प्रभाव में बन सकने वाले सामाजिक सम्बन्धों के प्रकार भी महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। इन विभिन्न प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के मुताबिक ही राज्य अपने हितों को परिभाषित करते हैं। उदाहरण, शीत -युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच का रिश्ता भी एक सामाजिक सम्बन्ध था जिसके तहत वे दोनों एक-दूसरे को शत्रु की तरह देखते थे और उसी के मुताबिक उनके राष्ट्रीय हितों की संरचना होती थी। जब उन्होंने एक-दूसरे को उस सामाजिक सम्बन्ध के दर्पण में देखना बंद कर दिया, या उस तरह के सामाजिक सम्बन्ध की परिस्थितियाँ ही नहीं रह गयीं तो उसके परिणामस्वरूप शीत युद्ध खत्म हो गया ।

स्पष्ट है कि रचनात्मकतावाद एक व्याख्यात्मक सिद्धान्त के तौर पर अपनी उपयोगिता बहुत स्पष्ट नहीं कर पाया है। इसके बावजूद उसे एक सैद्धान्तिक ढाँचा प्रस्तुत करने में कामयाबी अवश्य मिली है। रचनात्मकतावाद के प्रचलित होने के पीछे यथार्थवादी और आदर्शवादी दृष्टिकोणों की अपर्याप्तताओं की भूमिका भी है।

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