विद्यालयी पाठ्यक्रम पर दर्शन के प्रभाव
एच. डी. जॉनसन ने अपनी पुस्तक (Foundations of Curriculum) में दर्शनशास्त्र को जीवन की आधारभूत समस्याओं के समाधान हेतु अध्ययन योग्य विषय के रूप में परिभाषित किया है। अतः दर्शन जिसका सम्बन्ध जीवन-बोध तथा जीवन मूल्यों से है, पाठ्यक्रम का एक मुख्य आधार भी है। पाठ्यक्रम का संगठन शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। शिक्षा के उद्देश्य हमें ‘दर्शन’ द्वारा ही प्राप्त होते हैं, अतः किस विषय विशेष की उपयोगिता व अनुपयोगिता भी समाज व व्यक्ति के दर्शन के आधार पर ही निश्चित की जा सकती हैं। महान दार्शनिक प्लेटो ने कहानियों को न पढ़ाने की वकालत की थी, क्योंकि वह छात्रों को सत्य और केवल सत्य से परिचित कराना चाहता था। दूसरी तरफ महान शिक्षाशास्त्री मैडम मारिया मॉण्टेसरी ने कहानियों को बहुत उपयोगी बताया है। इसी प्रकार कुछ भारतीय शिक्षाशास्त्री प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन को बेकार समझते हैं जबकि आर्य समाजी शिक्षाशास्त्री इस अध्ययन को अनिवार्य मानते हैं। यह सब मत भिन्नता इसी कारण है कि प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा का दृष्टिकोण अलग है। अतः पाठ्यक्रम का मुख्य आधार दर्शन ही है जिसके अभाव में पाठ्यक्रम निष्प्राण हो जाता है।
(1) आदर्शवाद (Idealism)
यह विचारधारा शाश्वत मूल्यों एवं आदर्शों पर बल देती है तथा इसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य उस सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाते रहना है जो सम्बन्धित समाज द्वारा युगों से जाँचे-परखे लक्ष्यों को परिलक्षित करती है। इसके अनुसार शिक्षा का लक्ष्य मानव जीवन को समझने और उसके द्वारा पूर्ण जीवन जीने का आदर्श प्राप्त करना होता है। अतः आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यक्रम का मुख्य आधार मानव के विचार व आदर्शों की पूर्णता है। अतः आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यक्रम में साहित्य, कला, संगीत, भाषाएँ, भूगोल, इतिहास, विज्ञान तथा गणित रखे जाने चाहिए।
(2) प्रकृतिवाद (Naturalism)
यह विचारधारा बालक की वैयक्तिकता (Individuality) पर बल देती है। इसके अनुसार बालक की वैयक्तिकता के स्वतन्त्र विकास को शिक्षा का ध्येय माना गया है। इस कारण प्रकृतिवादी बालक को आत्म प्रकाशन के लिए अनियन्त्रित स्वतन्त्रता देने के समर्थक हैं। अतः प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं का समावेश चाहते हैं जिनके द्वारा बालक की सम्भावित प्रवृत्तियों का विकास हो सके। अतः प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम में व्यायाम, खेल-कूद, तैरना, भूगोल, प्राकृतिक विज्ञान आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
(3) प्रयोजनवाद या प्रयोगवाद (Pragmatism)
यह विचारधारा भी बालक को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है तथा बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु मानने के साथ-साथ उपयोगिता के सिद्धान्त पर भी बल देती है। प्रयोगवादी पाइयक्रम का निर्माण बालक की अभिरुचियों के अनुसार करते हैं। वे जिज्ञासा, रचनात्मक अभिरुचि, कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि तथा विचारों के आदान-प्रदान की रुचि के आधार पर एक प्रारम्भिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं साथ ही वे उपयोगिता के सिद्धान्त को भी आधार बनाते हैं जिसमें वे अपनी भावी जीवन में सफलतापूर्वक व्यवस्थित हो सकें। इस कारण वे पाठ्यक्रम में कला, भाषा, गणित काष्ठकला, कताई-बुनाई, दुकानदारी, सामाजिक क्रियाओं, व्यवसायों आदि को स्थान प्रदान करते हैं। डीवी ने बालक की चार स्वाभाविक रुचियों को माना है
(1) बातचीत एवं विचारों के आदान-प्रदान की अभिरुचि, (2) कौतूहल व जिज्ञासा की अभिरुचि, (3) रचनात्मक अभिरुचि, (4) कलात्मक अभिरुचि। डीवी ने इन रुचियों को ही प्रारम्भिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम का आधार बनाया। इसलिए पाठ्यक्रम में कला, भाषा, कताई, बुनाई, दुकानदारी, बागवानी, गणना, काष्ठकला आदि को स्थान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त इस विचारधारा ने पाठ्यक्रम का आधार सामाजिक जीवन तथा उसकी क्रियाओं को माना। इस बाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक कुशलता माना गया ।
(4) यथार्थवाद (Realism)
शिक्षा में यथार्थवाद विचारधारा का उदय संकुचित, काल्पनिक एवं साहित्यिक शिक्षा के विरोध में हुआ जिसमें शिक्षा में बुद्धि एवं विवेक का महत्त्व बढ़ने लगा। गैलीलियो कॉपरनिकस, न्यूटन तथा बेकन आदि विद्वानों ने विज्ञान के प्रयोगों की सहायता से सत्य को खोजने का प्रयत्न किया जिसमें प्रयोगात्मक सत्य की ओर अग्रसरित होने की भावना को बल मिला। यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा वास्तविक जगत् की परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए तथा शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य बनाना होना चाहिए न कि देवता। अतः इस यथार्थवादी दृष्टिकोण ने शिखा के सम्पूर्ण स्वरूप को प्रभावित किया तथा इसके परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम में भी उन्हीं क्रियाओं को स्थान देने की सिफारिश की गई जिनके द्वारा वास्तविक जीवन की परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त हो सके। अतः यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों पर बल दिया जाता है जो बालक को वास्तविक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से पूर्ण रूप से अवगत करा सकें। इसके अनुसार पाठ्यक्रम को विस्तृत भी रखा जाता है ताकि छात्र उस विस्तृत पाठ्यक्रम में से अपनी योग्यता के अनुसार विषयों को चयनित करने हेतु स्वतन्त्र हो । विद्यार्थी को जीवन के लिए उपयोगी उन्हीं विषयों को पढ़ाने की संस्तुति की जाती है जिनकी उपयोगिता जीवन में होती है।
(5) अस्तित्ववाद (Existentialism)
अस्तित्ववाद के अनुसार हमें विद्या के अस्तित्व के बारे में सोचना चाहिए न कि उसके सार तत्त्व के बारे में, क्योंकि ‘अस्तित्व तत्त्व से पूर्व होता है।’ अतः बालक को सामाजिक कुशलता का पाठ पढ़ाने की जरूरत नहीं है। अस्तित्ववाद, व्यक्तित्ववाद के प्रबल समर्थक हैं। इसके अनुसार बालक स्वयं अपना स्वामी है। वह अपनी क्रियाओं तथा उनकी सफलताओं का स्वयं ही निर्णायक है। अतः शिक्षा बाल केन्द्रित होनी चाहिए। इस वाद के अनुसार बालक में समूह प्रवृत्ति जैसी कोई वस्तु नहीं होती है इसलिए सामूहिक शिक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः उसके व्यक्तित्व की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उस पर कोई सामाजिक स्वीकृति थोपी न जाए तथा उसे स्वतन्त्र निर्णय लेने के अवसर सुलभ कराये जायें। इस प्रकार अस्तित्ववाद विद्यार्थी को शिक्षा दर्शन के विषय में स्वतन्त्र चुनाव करने तथा पूर्ण अन्तःशक्ति के साथ अपने व्यक्तित्व का विकास करने पर बल देता है।
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