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जल प्रदूषण का अर्थ, कारण, वर्गीकरण तथा जनजीवन पर प्रभाव

जल प्रदूषण का अर्थ
जल प्रदूषण का अर्थ

जल प्रदूषण का अर्थ

वह जल जिसमें अनेक प्रकार के खनिज कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ एवं गैसें एक निश्चित अनुपात से अधिक मात्रा में घुल जाते हैं, प्रदूषित जल कहलाता है।

ग्रोवका के अनुसार जल प्रदूषण का अर्थ है मनुष्य द्वारा बहती नदी में ऊर्जा या ऐसे पदार्थ का निस्तारण जिससे जल के में हास हो जाय।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल प्रदूषण की परिभाषा निम्नलिखित प्रकार से दी है-

“प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाह्य पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता तथा वह विषाक्तता एवं सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारक जीवों के लिए घातक हो जाता है तथा संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है।”

सन् 1978 में अमान गिलपिन ने जल प्रदूषण को परिभाषित करते हुए बताया, “मुख्यतः मानवीय क्रिया-कलापों के द्वारा जब जल के रासायनिक भौतिक तथा जैविक गुणों में ह्रास पैदा कर दिया जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है।”

जल प्रदूषण को मापने के लिए जल प्राचलों की सहायता ली जाती है उनमें जल का तापमान, रंग, गन्ध, गंदलापान, संचालकता, घनत्व, घुले रसायन तथा ठोस पदार्थों की मात्रा मुख्य है। जल में घुले नमक की मात्रा तथा प्रकृति, जल की कठोरता, अम्लता तथा खारापन, घुली ऑक्सीजन, जैवकीय ऑक्सीजन माँग, पी-एच मान, अमोनिया, नाइट्रेट तथा नाइट्रेट्स की मात्रा, भारी धात्विक पदार्थों की मात्रा, पारा, सीसा, क्रोमियम, क्लोराइड्स, कीटनाशक, शाकनाशक तथा रोगनाशक रसायनों की मात्रा, अपमार्जकों की मात्रा आदि प्राचलों से जल का रासायनिक विश्लेषण किया जाता है। सामान्यतः जल की गुणवत्ता का निर्धारण जैव ऑक्सीजन माँग, रासायनिक ऑक्सीजन माँग घुली ऑक्सीजन तथा पी-एच मान के आधार पर किया जाता है। जलीय जीवाणु कॉलिफर्म, शैवाल वायरस आदि जैविक प्राचल है।

जल जीवन की आवश्यकता है। जल के दो स्रोत हैं-

(1) धरातलीय स्त्रोत– समुद्र, नदी, झील आदि।

(2) भूमिगत स्त्रोत – कुएँ, ट्यूबवैल, नल आदि के जल प्रदूषण से जीवों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अवांछित पदार्थों के जल में विद्यमान होने से जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में परिवर्तन होता है तथा जल की सामान्य उपयोगिता नष्ट हो जाती है। इसी को जल प्रदूषण कहते हैं।

जल प्रदूषण के मुख्य कारण

(1) औद्योगिक रसायन – विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले जल में अनेकों प्रकार के कार्बनिक, अकार्बनिक रसायन हो सकते हैं। इनकी प्रकृति स्रोत पर निर्भर होती है।

(2) वाहित मल- नगरों से निकला मल-मूत्र, कूड़ा-करकट आदि की मात्रा जनसंख्या में वृद्धि के कारण सतत् रूप से बढ़ रही है। ये सभी पदार्थ नाले, नालियों द्वारा तालाब या झील में आकर प्रदूषण फैलाते हैं। इनमें मुख्य रूप से कार्बनिक पदार्थ, नाइट्रोजन प्रदूषक, निलम्बित ठोस, भारी धातु, तैलीय पदार्थ आदि हो सकते हैं।

(3) घरेलू अपमार्जक– घर में उपयोग किये जाने वाले अपमार्जक कपड़े धोने, बर्तन साफ करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, विम आदि अपमार्जक होते हैं। ये अपमार्जक घरों से नालियों, तालाबों तथा नंदियों तक पहुँचकर प्रदूषण फैलाते हैं।

ये पदार्थ निम्न प्रकार के हो सकते हैं— धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, फीनोल, साइनाइड, पारा, जिंक, कॉपर, फेरस लवण, कागज, रबड़, रेशे, गरम पानी, तेल आदि। पारा, क्लोरीन तथा कास्टिक सोडा उद्योगों के जल से आता है। इसके कारण तंत्रिका तन्त्र पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। जापान के मिनामाटा खाड़ी में पारे (30-100ppm) से प्रदूषित मछली खाने से अनेकों लोगों की जानें गईं। यह दुर्घटना बहुत प्रसिद्ध है।

लेड से मनुष्य का पाचन तन्त्र, तंत्रिका तन्त्र पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। कैडमियम, जिंक, क्रोमियम तथा कॉपर भी जीव जन्तुओं तथा पौधों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।

(4) ईंधनों का जल में मिलना- कोयला, पैट्रोल, डीजल तेल आदि के जलने से जो गैसें निकलती हैं वे वर्षा के जल में घुलकर नदी, तालाब, झीलों आदि को प्रदूषित करती हैं।

(5) कृषि उद्योग के प्रदूषक- कृषि की उपज बढ़ाने में उपयोगी, शाकनाशी, खरपतवारनाशी, कीटनाशी, पेस्टीसाइड्स आदि का प्रयोग अधिक बढ़ गया है। ये खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मनुष्यों तक सतत रूप से पहुँच रहे हैं। इनका कुप्रभाव मनुष्य तथा पौधों पर निरन्तर पड़ रहा है जिससे जीवों, पौधों के जीवन को हानि होने की सम्भावना रहती है।

(6) रेडियोधर्मी पदार्थ – नाभिकीय विस्फोट तथा नाभिकीय ऊर्जा प्रक्रम से निकलने वाले विकिरण जल में घुलकर प्रदूषण फैलाते हैं।

(7) जल शोधन में- अशुद्ध जल को शुद्ध करने में विभिन्न प्रकार के रसायन उपयोग में लाये जाते हैं। अधिक मात्रा में इनके प्रयोग से जल प्रदूषण की सम्भावना रहती है।

जल प्रदूषण का वर्गीकरण

जल प्रदूषण को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(1) भौतिक प्रदूषण

इसके निम्न प्रकार होते हैं—

1. स्वाद तथा गन्ध – शैवाल तथा अन्य रासायनिक पदार्थों के कारण जल का स्वाद अप्रिय हो जाता है तथा कभी-कभी जलाशयों में सड़न के कारण दुर्गन्ध आने लगती है।

2. तापीय प्रदूषण– बिजलीघरों से निकलने वाले गर्म जल से तापमान में वृद्धि होती है जिससे जलीय जन्तुओं को हानि होती है तथा बी ओ डी की आवश्यकता बढ़ जाती है।

3. अपमार्जकों के कारण- इनके कारण जल में झाग मिलते हैं। झागयुक्त जल में ठोस निलम्बित पदार्थ, जीवाणु आदि हो सकते हैं जिससे जल के विषैला होने की सम्भावना रहती है। कभी-कभी पानी गँदला भी प्रतीत होता है।

4. विभिन्न रसायनों के कारण- प्रदूषण की वजह से अशुद्ध जल रंगीन हो सकता है।

(2) रासायनिक प्रदूषण

यह अकार्बनिक तथा कार्बनिक हो सकता है।

1. अकार्बनिक प्रदूषण– अम्ल, क्षार, लवण, कपड़ा तथा चर्म उद्योग से निकलने वाला प्रदूषित जल। इससे जलीय जीवों की मृत्यु हो सकती है। धातु के पात्रों का संरक्षण सम्भव है।

(अ) घुलनशील लवण- पोटेशियम, सोडियम, कैल्शियम तथा मैग्नीशियम के क्लोराइड, नाइट्रेट, नाइट्राइट, कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट, फास्फेट आदि हानिकारक रसायन जल में विद्यमान हो सकते हैं।

(ब) अघुलनशील लवण- कॉपर, जिंक, लेड, निकिल, केडमियम, पारा, चाँदी, एल्यूमिनियम, यूरेनियम, थोरियम आदि के नाइट्रेट, फ्लोराइड आदि। धातु लेपन उद्योग से साइनाइड भी मिलते हैं। ये सभी पदार्थ जीवों के लिए विषैले हैं।

2. कार्बनिक लवण – प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, वसीय, अम्ल, अपमार्जक, पीड़कनाशी आदि के विघटन में अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जिससे जलीय जीवों को ऑक्सीजन कम मिलती है। ये प्रदूषक खाद्य, शराब, चीनी आदि उद्योगों से निकल सकते हैं।

(अ) जैविक प्रदूषण—ये जीवाणु, शैवाल, कवक, परजीवी, मृतोपजीवी आदि रूप में मिलते हैं तथा जल को प्रदूषित करते हैं। यह प्रदूषण वाहित मल, कृषि रसायन या औद्योगिक रसायनों के कारण हो सकता है। प्रदूषित जल से हैजा, पेचिश, डायफाइड, पीलिया आदि बीमारियाँ होना सम्भव है। इसके अलावा बहुत से खरपतवार, कीड़े, मच्छर, मक्खी, परजीवी, वायरस, जीवाणु आदि भी जल को प्रदूषित कर सकते हैं।

(ब) अजैविक प्रदूषक- हमारे देश की प्रमुख नदियों में अत्यधिक मात्रा में जल प्रदूषक मिलते हैं। इनमें से मुख्य हैं- गंगा, गोदावरी, गोमती, नर्मदा आदि। गंगा में हरिद्वार से कलकत्ता तक के रास्ते में औद्योगिक कारखानों के व्यर्थ रसायन, अधजले मृत मानव शरीर, पेस्टीसाइड्स आदि मिलते रहते हैं जो प्रदूषण को बढ़ाते हैं। दिल्ली के निकट यमुना में मिलने वाले औद्योगिक कारखानों के विषैले रसायन, कूड़ा कचरा आदि के कारण जल बहुत अधिक प्रदूषित हैं। जल सिंचाई के लिए उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार का जल यदि पीने व नहाने आदि के लिए उपयोग में लाया जाये तो अनेकों रोग होने की सम्भावना रहती है।

जनजीवन पर जल प्रदूषण का प्रभाव

इस शताब्दी में जनसंख्या में तेजी से वृद्धि तथा औद्योगीकीकरण से नदी, झीलों व सागरों के जल में धीरे-धीरे ऐसे पदार्थों की मात्रा बढ़ती जा रही है जिनसे मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति पर घातक प्रभाव पड़ता है। ये पदार्थ मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से हानिकारक होते हैं। पिछली दो या तीन शताब्दियों में कितने ही जीव-जन्तु लुप्त हो गये हैं।

(1) नगरों में मकानों से निकला मल-मूत्र व कूड़ा-करकट भूमिगत नालियों द्वारा नदियों व झीलों आदि में गिराया जाता है। इसी प्रकार कारखानों द्वारा उत्पन्न विसर्जित पदार्थ भी नदियों के जल में मिलते रहते हैं। इस प्रकार नदियों का जल दूषित हो जाता है। मूत्र में यूरिया होता है जिसके अपघटन से अमोनिया उत्पन्न होती है। अन्य कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से नाइट्रोजिनस पदार्थ बनते हैं। इससे जल दूषित हो जाता है और पीने के योग्य नहीं रह पाता। इस जल को पीने या उसमें नहाने-धोने से अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं।

वाहित मल में कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होते हैं। जीवाणुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के विघटन के लिए ऑक्सीजन की माँग बढ़ जाती है। अतः जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता मात्रा है। घरों से निकले गन्दे पदार्थों वाले जल को बी ओ डी 200 400 पी पी एम जलाशय में डाला जाता है तो जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। इसका कारण यह है कि जीवाणु वाहित मल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण करते हैं जिसमें ऑक्सीजन उपयोग होती है और जल में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। इससे संक्रामक रोग फैलने की सम्भावना भी बढ़ जाती है|

(2) ताप व आण्विक बिजलीघर में उपकरणों को ठण्डा करने के लिए पानी की बहुत अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। इस पानी के नदियों में वापस पहुँचने पर वहाँ का ताप बढ़ जाता है। जिससे जलीय पौधे व जन्तुओं की वृद्धि रुक जाती है और कभी-कभी उनकी मृत्यु तक हो जाती है। हमें 70 प्रतिशत से अधिक ऑक्सीजन सागरों में उगने वाले पादप-प्लवकों से प्राप्त होती है। सागरों में पादप-प्लवकों का विपुल भण्डार है। इनके द्वारा निर्मित ऑक्सीजन पर ही सागर में रहने वाली मछलियाँ व अन्य जीव-जन्तु जीवित रहते हैं। नदियों का प्रदूषित जल तेजी से सागरों को भी प्रदूषित कर रहा है। समुद्र में बड़े-बड़े तेल वाहक चलते हैं। कभी-कभी इनसे तेल बहकर मीलों तक समुद्र की सतह पर फैल जाता है। इससे सागर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिससे समुद्री जीव नष्ट हो जाते हैं। समुद्र के प्रदूषण के कारण अब तक लगभग 1000 प्रकार के जीव-जन्तु लुप्त हो चुके हैं।

(3) आजकल घरों व मकानों की सफाई एवं रसोई के बर्तन साफ करने तथा नहाने-धोने में अपमार्जकों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। इनमें विम, अनेक प्रकार के साबुन इत्यादि शामिल हैं। ये पदार्थ नालियों द्वारा नदियों, तालाबों व झीलों इत्यादि में जाकर उनके पानी को दूषित कर रहे हैं। इसके फलस्वरूप एल्किल बेंजीन सल्फोनेट, फॉस्फेट, नाइट्रेट आदि पदार्थ जल में एकत्रित हो जाते हैं। एल्किन बेंजीन सल्फोनेट का निम्नीकरण नहीं होता तथा जल में इसकी अधिक मात्रा होने पर यह जीवधारियों को प्रभावित करता है।

फॉस्फोरस और नाइट्रोजन की अधिक मात्रा से शैवालों की अत्यधिक वृद्धि होती है और ये पानी की सतह पर फैल जाते हैं। इसको वॉटर ब्लूम कहते हैं। इन शैवालों की मृत्यु होने पर कार्बनिक पदार्थों का अपघटन होता है जिससे ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। इसके फलस्वरूप जलीय प्राणियों की मृत्यु होने लगती है। इस प्रकार जलाशय में कार्बनिक पदार्थ अधिक और जल कम होता रहता है। इसे सुपोषण कहते हैं।

(4) पारा क्लोरीन-कॉस्टिक सोडा के कारखानों से जल में आता है और जलीय प्राणियों से खाद्य श्रृंखला के द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुँचता है। इसके कारण तंत्रिका में विकार विकसित हो जाते हैं और पागलपन उत्पन्न हो जाता है।

(5) लेड प्राणियों के ऊतकों में एकत्रित होकर उन्हें हानि पहुँचाता है। कापर और जिंक मौलस्का वर्ग के प्राणियों में होकर उनकी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। कैडिमियन व क्रोमियम समुद्री प्राणियों के शरीर में पहुँचकर उनकी मृत्यु का कारण बनते हैं।

(6) डब्ल्यू. एच. ओ. द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में कीटनाशी पदार्थों के प्रयोग करने से प्रतिवर्ष लगभग 50,000 मनुष्य प्रभावित होते हैं जिनमें से 5,000 की मृत्यु हो जाती है। भारत में प्रतिवर्ष 35,000-40,000 टन कीटनाशी पदार्थों का प्रयोग होता है।

(7) मुम्बई, दिल्ली, लखनऊ, पूना, बंगलौर, चेन्नई एवं कोलकाता आदि नगरों में फलों, सब्जी, दूध एवं अण्डों के सेम्पलों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि इनमें DDT, dieldrin, aldrin आदि की मात्रा मनुष्य की सहनीय क्षमता से कहीं अधिक है।

(8) 3 दिसम्बर, 1984 के दिन भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड के कीटनाशी रसायन बनाने के कारखाने में काम आने वाली मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसने से लगभग 2500 व्यक्तियों की तुरन्त मृत्यु हो गई। इस गैस का प्रभाव वहाँ के लोगों के श्वसन तन्त्र, फेफड़ों तथा आँखों पर अभी तक देखा जा सकता है।

(9) कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थ नालों व नदियों के बहते जल में छोड़ दिये जाते हैं। इनमें धूल, कोयला, विभिन्न प्रकार के अम्ल, क्षार, फेनोल, साइनाइड्स, पारा, लेड, कॉपर व जिंक सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त फॉस्फेट्स, सल्फाइड, सल्फेट व फैरस लवण भी कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थों में होते हैं। कागज, चीनी, रबड़, रेयान, चर्मशोधक व तेल शोधक कारखानों से निकलने वाले असंख्य पदार्थ आदि से नदियों का जल इतना अधिक संदूषित हो जाता है कि यह न तो पीने के उपयुक्त रहता है और न ही खेती के। ऐसे जल में उगने वाले पौधे और जन्तु मर जाते हैं।

(10) कीटनाशी पदार्थों के उपयोग से भी पानी प्रदूषित हो जाता है। वर्षा के पानी में घुलकर ये पदार्थ नदियों, झीलों व तालाबों के पानी में पहुँच जाते हैं जिससे हर प्रकार के जीवों पर इनका घातक प्रभाव पड़ता है। मुम्बई में जल प्रदूषण के कारण हर चौथा व्यक्ति पोलियो, हैजा या इओसिनोफिलिया से ग्रस्त है।

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