निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिये
- विद्यालय एवं समुदाय
- विद्यालय और समुदाय के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के उपाय
- अभिभावक के गुण
(i) विद्यालय एक सामुदायिक संस्था के रूप में-
भारतीय शिक्षा आयोग 1964-66 ने अनुभव किया “भारत के भाग्य का निर्माण इस समय उसकी कक्षाओं में हो रहा है। विज्ञान और शिल्पविज्ञान पर आधारित शिक्षा ही लोगों की खुशहाली, कल्याण और सुरक्षा के स्तर का निर्धारण करती है। हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलने वाले विद्यार्थियों को योग्यता और संख्या पर ही समुदाय का विकास निर्भर हैं। जो बातें महत्वपूर्ण हैं, उनका दर्पण ही स्कूल को बनना चाहिए।”
समुदाय विद्यालयों का निर्माता- समाज अपने जीवन के लिए विद्यालय का निर्माण करता है। समुदाय अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए शिक्षा व्यवस्था का निर्माण तथा संचालन करता है, जिनका उद्देश्य होता है समुदाय के आदर्शों का संरक्षण।
विद्यालय समुदाय का निर्माता- विद्यालय समुदाय की एक महत्वपूर्ण संस्था है। इस संस्था द्वारा ही समुदाय उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। विद्यालय एक ऐसा दर्पण है जिससे समुदाय के ठीक स्वरूप का पता चलता है। विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहाँ पर कल के नागरिक जिनके कन्धों पर समुदाय का भावी सार है, शिक्षा प्राप्त करते हैं। विद्यालय बच्चों के लिये इस प्रकार के वातावरण की सृष्टि करता है जिसमें पलकर वे अच्छे नागरिक बन सकें, अपने तथा समुदाय के जीवन को सुखमय बना सकें। विद्यालय बच्चों के आचार-विचार तथा चरित्र पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।
विद्यालय को सामुदायिक जीवन का ‘सुन्दर सार’ कहा जाता है, क्योंकि इसमें समुदाय का प्रत्येक अंग, जिसमें समुदाय बनता है, सम्मिलित है। वास्तव में विद्यालय समुदाय का एक ‘ऐसा छोटा किन्तु आदर्श अंग’ है, जिसमें समुदाय के काम बच्चों की योग्यतानुसार उनके सामने रखे जाते हैं।
विद्यालय का वातावरण शुद्ध, पवित्र तथा कपटरहित होना चाहिये ताकि बच्चों में सद्गुणों की सृष्टि तथा विकास हो सके। सदा इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि बच्चे आपस में प्रेमपूर्वक रहें।
परम्परागत विद्यालय- परम्परागत विद्यालय केवल ज्ञान प्राप्ति का स्थान मात्र माना जाता था। वह ज्ञान किताबी ज्ञान-मात्र होता था उसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर कोई बल नहीं दिया जाता था। बच्चों की रुचि तथा आवश्यकता के महत्व की उपेक्षा की जाती थी। रटने पर ही अधिक जोर दिया जाता था। डण्डे के बल पर बच्चों को शिक्षा दी जाती थी। भय का वातावरण विद्यालय में छाया रहता था। शिक्षक की तुलना पुलिस के सिपाही से की जाती थी। सहपाठीय कार्यक्रम का शिक्षा में कोई स्थान नहीं था।
आधुनिक विद्यालयों का कार्यक्रम- स्वतन्त्रता के पश्चात् आधुनिक विद्यालयों में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। हमारा देश एक प्रजातन्त्र है। प्रजातन्त्र वहां के नागरिकों पर अनेक प्रकार की जिम्मेदारियां डालता है। प्रजातन्त्र प्रेम, सहयोग, सहनशीलता, उदार हृदयता, सभ्यता आदि पर आधारित है। शिक्षा व्यक्ति में इस प्रकार के गुणों का विकास करे जिससे वह अपने समाज में प्रभावपूर्ण रूप से भाग ले सके। शिक्षा सामाजिक कार्यों के लिए आवश्यक है।
आधुनिक विद्यालय बच्चे की मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, चारित्रिक तथा सौन्दर्य-सम्बधी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
(ii) विद्यालय और समुदाय के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के उपाय
विद्यालय और समुदाय के बीच परस्पर अटूट सम्बन्ध स्थापित करने के लिए नीचे लिखे उपाय लाभदायक सिद्ध होगे-
1. पाठ्यक्रम–विद्यालय का पाठ्यक्रम समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर बनाया जाये। पाठ्यक्रम छात्रों को इस योग्य बनाए कि विद्यालय छोड़ने पर वे सामुदायिक क्रियाओं में कुशलता के साथ भाग ले सकें।
2. जीविका उपार्जन–पाठ्यक्रम में ऐसे विषय अवश्य रखे जाए जो छात्रों को जीविकोपार्जन की क्षमता प्रदान कर सकें ।
3. भ्रमण यात्राएं – छात्रों को इस प्रकार के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए कि वे अपने समीप के वातावरण को अच्छी तरह समझ सकें। उन्हें काम करते हुए किसान, बढ़ई, लोहार, कुम्हार आदि के कार्यों से भी परिचित कराया जाए।
छात्रों को नदी, कुएँ, तालाब, बांध, बाग, कारखाने आदि की भी यात्रा करवाई जाए।
4. समुदाय सेवा सम्बन्धी कार्य-प्रौढ़ शिक्षा के लिए, गली-मुहल्ले की सफाई के लिए तथा मेलों आदि में सेवा करने के लिए छात्रों को उत्साहित किया जाए। ऐसा करने से छात्रों को अपने समुदाय की समस्यायें समझने के उचित अवसर मिलेंगे। उन्हें इस बात का अनुभव होगा कि उन्हें भी अपने आपको समुदाय का एक सच्चा व्यक्ति बनाना है। पाठ्यक्रम में आई हुई बातों का व्यावहारिक ज्ञान उन्हें प्राप्त होगा। विद्यालय तथा समुदाय के अच्छे सम्बन्ध स्थापित होने में सहायता मिलेगी।
5. शिक्षालय समारोह में संरक्षकों को आमन्त्रित करना- शिक्षालय में होने वाले समारोह, नाटक आदि कार्यक्रमों में समुदाय के सदस्यों को भी भाग लेने का अवसर दिया जाए।
6. उत्सवों का मनाना–विद्यालयों में सामाजिक, सामयिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दिवस अवश्य मनाये जाने जिससे संरक्षक विद्यालय के समीप आये और छात्रों का समाज सम्बन्धी ज्ञान भी बढ़े।
7. विद्यालय का प्रौढ़ पुस्तकालय-विद्यालय पुस्तकालय में प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी पुस्तकें हों और पुस्तकें उन्हें पढ़ने के लिए दो जायें।
8. अभिभावकों के अनुभवों से लाभ- समुदाय के समझदार अथवा अनुभवी व्यक्ति जो विभिन्न कार्यों में कुशल हैं, स्कूल में बुलाए जाने चाहिये और उनसे उनके काम के बारे में भाषण आदि कराए जायें।
9. अभिभावक-शिक्षक संघ- अभिभावक शिक्षक सम्पर्क होना इस क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण है।
10. समुदायिक वातावरण- समुदाय का वातावरण छात्रों के लिए शिक्षाप्रद हो और उसमें शिक्षा के प्रति उत्साह और उमंग पैदा करने वाला हो।
(iii) अभिभावक के गुण-
अभिभावकता का तात्पर्य बच्चों की देखभाल करने से है। समाज का प्रत्येक सदस्य चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, जीवन की किसी न किसी अवस्था में अपनी क्षमतानुसार बच्चों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है। प्रारम्भ में यह भूमिका बड़े भाई-बहन के रूप में हो सकती है। यह भूमिका मौसी, बुआ, चाचा, मामा के रूप में हो सकती है। वयस्क होने पर व्यक्ति माता-पिता बनकर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध में यह भूमिका दादा-दादी, नाना-नानी के रूप में हो सकती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अभिभावकता जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। बच्चे की देखभाल व पालन-पोषण के लिये शरीर का परिपक्व होना आवश्यक है, अभिभावकता का भाव विकसित होना चाहिये व उत्तरदायित्व की भावना होनी चाहिये ।
वास्तव में देखा जाए तो अभिभावक एक आम व्यक्ति होता है फिर भी उसमें निम्नलिखित गुण होने चाहिये-
(i) अभिभावकों के व्यवहार में लचीलापन होना चाहिए जिससे वे समझ सकेंगे कि उनके दृष्टिकोण के अलावा अन्य दृष्टिकोण भी हो सकते हैं। बालकों को अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता देनी चाहिए। वे अभिभावक जिनके व्यवहार में लचीलापन नहीं होता है उनका व्यवहार तानाशाहीपूर्ण होता है। तानाशाहीपूर्ण व्यवहार बालकों पर बुरा प्रभाव डालते हैं।
(ii) अभिभावकों को सहनशील होना चाहिये जिससे वे बालकों में भी सकारात्मक अभिवृत्ति विकसित कर पायेंगे।
(iii) अभिभावकों की सोच सकारात्मक होनी चाहिये जिससे वे बालकों में भी सकारात्मक अभिवृत्ति विकसित कर पायेंगे।
(iv) अभिभावकों का व्यवहार मित्रतापूर्ण होना चाहिये। माता-पिता का आपस में व्यवहार मित्रतापूर्ण होना चाहिये तथा माता-पिता का अपने बालकों के साथ व्यवहार भी मित्रतापूर्ण होना चाहिये।
(v) अभिभावकों को चाहिये कि वह बालकों को स्वयं कार्य करने के लिये तथा सही कार्य करने के लिए प्रेरित करें।
(vi) ऐसे अभिभावक जिनका बालकों के साथ सहयोगी जैसा व्यवहार होता है, उनके अपने बच्चों के साथ अच्छे सम्बन्ध पाये जाते हैं।
(vii) अभिभावकों को बालकों की भावनाओं को समझना चाहिए।
(viii) माता-पिता को बालकों को समय-समय पर प्रशंसा व पुरूस्कार प्रदान करना चाहिए।
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