सूफ़ी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के अंतर्गत आने वाले सूफी काव्य की कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जिनका उल्लेख पृथक् रूप से आवश्यक है। सूफ़ी काव्यधारा के विशिष्ट कवि तो जायसी ही हैं, किन्तु अन्य कवि भी उपेक्षणीय नहीं हैं। संक्षेप में सूफ़ी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नांकित हैं-
सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएं/ प्रवृत्तियां
1.लौकिक प्रेम के ध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना
2. प्रबन्ध-कल्पना
3.चरित्रांकन
4.लोक पक्ष का चित्रण
5. नारी प्रेम साधना की साध्य
6. रस वर्णन
7 मण्डनात्यकता
8 भाषा-शैली और अलंकार
सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएं
1.लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना-
सूफी काव्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह मिलती है कि इनमें लौकिक प्रेम कही गयी हैं। सभी लौकिक प्रेम कहानियाँ अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना करती हैं। प्रबन्ध काव्यों की शैली को अपनाकर प्रेम कहानियों को विस्तार भी दिया गया है और प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। सूफ़ी काव्यों में वर्णित प्रेम क्रमश: लौकिक से अलौकिक की ओर बढ़ता हुआ शारीरिक भूमिका को पार करता हुआ प्रेम के आध्यात्मिक शिखरों को छूता दिखाई देता है। प्रेम के मधुर स्वरूप और उसके मार्ग में पड़ने वाली बाधाओं के साथ-साथ विरह की तीव्रता सर्वत्र चित्रित हुई है।
2. प्रबन्ध-कल्पना-
सूफ़ी काव्यों की दूसरी प्रवृत्ति प्रबन्ध कल्पना से सम्बंधित है । सूफियों ने प्रबन्ध काव्य लिखे हैं। इन काव्यों के कथानक पूरी तरह संगठित, सुसम्बद्ध, व्यवस्थित, रोचक और आकर्षक घटनाओं से युक्त हैं। इन प्रबन्ध काव्यों में जिन प्रेमी-प्रेमिकाओं का वर्णन हुआ है, वे अपने व्यवहार, कर्म दोनों ही दृष्टियों से सदाचारी दिखाये गये हैं। प्रबन्ध काव्यों में वर्णित लगभग सभी कहानियाँ एक जैसी हैं। सभी में प्रेम का कारण स्वप्न- -दर्शन, चित्र-दर्शन, गुण-श्रवण या प्रत्यक्ष दर्शन ही रहा है। सभी प्रबन्ध काव्यों के नायक अपनी प्रिया को प्राप्त करने के लिए गृह-त्याग करके चल पड़े हैं और अंतत: अपनी प्रियाओं को प्राप्त करने में सफल हुए हैं। इन प्रबन्ध काव्यों में वर्णनात्मकता पर्यास मात्रा में है।
प्राय: सभी प्रेमाख्यानों में प्रकृति-वर्णन, सरोवर-वर्णन, महल-वर्णन, रूप-सौन्दर्यवर्णन आदि पर्याप्त मात्रामें देखने को मिलते हैं। सभी सूफी कवियों ने अपने प्रबन्धों का विधान इस रूप में किया है कि वे भाव, कल्पना, वर्णन और रहस्यात्मक अनुभूतियों के मिले-जुले रूप प्रतीत होते हैं।
3.चरित्रांकन-
सूफ़ी काव्यों में जो नायक नायिका व अन्य पाव चित्रित हुए हैं, वे प्रेमी अधिक हैं । कवियों ने नायक- नायिकाओं के सम्पूर्ण जीवन का चित्र प्रस्तुत न करके उनके प्रेम प्रधान पक्ष कोही अधिक महत्त्व दिया है। प्रेम के विविधप्रसंग और व्यापार इन सभी सूफीकाव्यों में देखने को मिलते हैं। डॉ. शिवकुमार शर्मा का यह कथन समीचीन प्रतीत होता है कि “सूफ़ी कवियों की नायिकाएं हासोन्मुख संस्कृत साहित्य की नायिकाओं के समान एक हीसांचे में ढली हुई हैं। उनमें जीवन के विविधघात-प्रतिघातों का अभाव है। नायक का स्वरूपभी प्राय: पूर्व निश्चित-सा प्रतीत होता है।”
4.लोक पक्ष का चित्रण-
सूफ़ी प्रेमाख्यानों में जीवन के लोकपक्ष एवं हिन्दूसंस्कृति का वर्णन गहराई से किया गया है। सर्वसाधारण के अंधविश्वास, मनौतियाँ, जादू-टोना, लोकोत्सव, लोकव्यवहार, तीर्थ, व्रत, सांस्कृतिक वातावरण और हिन्दू जीवन के विविध पक्षों का चित्रण सभी काव्यों में सफलतापूर्वक किया गया है। हिन्दू प्रेम कहानियों को लेकर सूफ़ी कवियों ने जो काव्य रचे हैं, उनमें न केवल हिन्दूघरों या परिवारों के रहन-सहन, आचार-विचार व व्यवहार का साँगोपाँग चित्रण देखने को मिलता है, बल्कि हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों, विश्वासों और मान्यताओं का वर्णन भी पूरी कुशलता से किया गया दिखाई देता है।
5. नारी प्रेम साधना की साध्य-
सूफ़ी काव्यों को यदि ध्यान से देखें तो स्पष्ट होता है कि इन सभी काव्यों की आलम्बन नारी बनी हुई है। नारी को इन कवियों ने सामान्य नारी न मानकर ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप माना है और इसी कारण इसे आलम्बन बनाकर काव्य-सृजन किया है। परमात्माका प्रतीक बनी हुई येनारिय भावनाकालक्ष्य प्रतीत होती हैं। स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि जैसे कोई साधक ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना करता है, उसी प्रकार सूफी काव्यों के नायक साधक बनकर परमात्मा की प्रतीक बनी हुई नारियों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नरत दिखलाये गये हैं| श्री परशुराम चतुर्वेदी ने इस सम्बन्ध में उचित टिप्पणी की है कि “सूफ़ी कवियों ने नारी को यहाँ अपनी प्रेम-साधना के साध्य रूप में स्वीकार किया है। इसके कारण वह इनके यहाँ किसी प्रेमी के लौकिक जीवन की भोग्य वस्तुमात्र नहीं रह गयी है।” स्पष्ट शब्दों में नारी भोग्या न होकर एक शक्ति के रूप में चित्रित हुई है।
6. रस वर्णन-
सूफी काव्यों में शृंगार रस को प्रमुखता मिली है। संयोग और वियोग के सरस मार्मिक चित्र सभी सूफ़ी काव्यों में देखने को मिलते हैं। इन कवियों द्वारा किये गये विरह वर्णन में रसात्मकता, अनुभूतिपरकता, सूक्ष्मता और ऐसी प्रभावी शक्ति निहित है कि पाठक ऐसे अंशों को पढ़ते समय उसी में निमग्न हो जाता है। कहीं-कहीं अश्लीलता भी आगयी है, किन्तु यह अश्लीलता ऐसी नहीं है जिसे पढ़कर हम नाक-भौं सिकोडने लगे। इस अश्लीलता ने रसाभाव को भी काव्य में नहीं आने दिया है। शृंगार रस के अतिरिक्त अधिक महत्त्व करुण और शान्त को मिला है, किन्तु अन्य रस जैसे वीर, वीभत्स आदि भी यत्र-तत्र देखने को मिल जाते हैं।
7 मण्डनात्यकता-
सूफ़ी काव्यों की एक उल्लेखनीय विशेषता मण्डनात्मकता की प्रवृत्ति है।सभी सूफ़ी कवियों ने हिन्दू मुस्लिम जातियों में धार्मिक एकता का श्रीगणेश किया था और खंडनात्मक पक्ष को छोड़कर लोकहितकारी और मण्डनात्मक पक्ष को ग्रहण किया था। यही कारण है कि सूफ़ी काव्यों में खंडन नहीं है, निर्गुण कवियों की भांति वहाँ विरोध का भाव कहीं नहीं है। वहाँ तो लोक-हितकारक स्थितियाँ ही चित्रित हुई हैं। आचार्य शुक्ल का यह कथन उचित ही है कि ‘प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने रखकर सूफ़ी कवियों ने हिन्दू और मुसलमानों को मनुष्य के समान रूप में दिखलाया है तथा प्रेमभाव को महत्त्व देकर भेद-बुद्धि को हटाने का सफल प्रयास किया है।’
8 भाषा-शैली और अलंकार-
सूफीकाव्य के सभी रचयिताओं ने प्राय: अवधी भाषा को अपनाया है। यह बात अलग है कि कहीं-कहीं अन्य क्षेत्रीय बोलियों के शब्द भी इन काव्यों में देखने को मिलते हैं। बीच-बीच में मुहावरों के प्रयोग से भाषा प्रौढ़ और अभिव्यक्ति अधिक सक्षम रूपलेकर सामने आयी है। प्रमुख रूप से दोहा और चौपाई को अपनाया गया है। अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा का प्रयोग बहुतायत से मिलता है, किन्तु अन्योक्ति, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, रूपकातिशयोक्ति तथा सदेह और भ्रम जैसे अलंकार भी आवश्यकतानुसार प्रयुक्त किए गये हैं।
निष्कर्ष
संक्षेप में कह सकते हैं कि सूफी काव्य भक्तिकाल का एक ऐसा काव्य है जिसमें प्रेम को महत्त्व देकर उसके उदात्त व अलौकिक पक्ष को उद्घाटित करते हुए सांस्कृतिक वैभव को भी अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है।
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