भूमण्डलीय तापन (वैश्विक तापन)
विगत वर्षों में वन-विनाश तथा औद्योगिक क्रियाएँ तेजी से बढ़ी हैं। औद्योगिक मानव-जनित कारणों से वायुमण्डल एवं पृथ्वी के जीवमण्डल के तापमान में वृद्धि हो रही है। इसी को भूमण्डलीय तापन कहते हैं।
भूमण्डलीय तापन कैसे होता है ?
भूमण्डलीय तापन पृथ्वी पर वायुमण्डल है जिसमें विभिन्न प्रकार की गैसें पायी जाती हैं। वे गैसें एक शीशे के आवरण जैसा कार्य करती हैं अर्थात् वायुमण्डल की गैसें सूर्य के विकिरण को पृथ्वी तक तो आने देती हैं परन्तु वापस लौट रही विकिरण की लम्बी तरंगदैर्ध्य को रोक देती हैं, जिससे गैसों का एक आवरण-सा बन जाता है, जो एक प्राकृतिक ग्रीन हाउस का कार्य करता है तथा ताप में वृद्धि होती है। पृथ्वी का औसत माध्य तापमान 15 से.ग्रे. रहता है। इस प्राकृतिक स्थिति में तेजी से परिवर्तन विभिन्न कारणों जैसे-भूभाग उपयोग में बदलाव, वनों का विनाश, ओजोन परत क्षीणता, खनिज तेल का अति प्रयोग आदि से हो रहा है। फलस्वरूप पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO), मीथेन (CH,), क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs), की भारी वृद्धि हो रही है। इन्हीं गैसों की हो रही वृद्धि के कारण भूमण्डलीय ताप में बढ़ोत्तरी हो रही है।
भूमण्डलीय तापन के कारण
(1) कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) – के उत्सर्जन को भूमण्डलीय तापन का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की सान्द्रता वायुमण्डल में औद्योगिकीकरण के पूर्व 280 ppm थी जो वर्ष 2000 में बढ़कर 368 ppm हो चुकी है। इस अवधि में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की सान्द्रता में कुल 31 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है। ज्ञात हो कि CO2 की वायुमण्डलीय आयु 5 वर्ष से 200 वर्ष तक होती है।
कार्बन डाइऑक्साइड गैस की बढ़ोत्तरी के मूल कारण निम्नवत् हैं-
- वन उन्मूलन।
- भूमि उपयोग में परिवर्तन।
- खनिज जैव-ईंधन का अति प्रयोग।
- औद्योगिकीकरण तथा नगरीकरण।
(2) मीथेन (CH4) – भूमण्डलीय तापन को प्रभावित करने वाली दूसरी प्रमुख गैस मीथेन है। मीथेन दलदली भूमि एवं अपूर्ण रूप से जैविक ईंधन के जलने से पैदा होती है। दीमक, धान के खेत, कच्छ के क्षेत्र में भी मीथेन का उत्सर्जन होता है। एक आकलन के अनुसार औद्योगिकीकरण के पहले जहाँ मीथेन 700ppmv थी, वहीं वर्ष 2000 में बढ़कर 17590 ppmv हो गयी है।
- समुद्र तल – एक अनुमान के अनुसार समुद्र तल में प्रतिवर्ष लगभग 1.5 mm की वृद्धि हो रही है तथा भूमण्डलीय तापन से जब पर्वत शिखरों की हिमखण्ड, ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ में पिघलने की क्रिया में बढ़ोत्तरी होगी, तो समुद्र तल में और बढ़ोत्तरी हो सकती है। परिणामस्वरूप समुद्रतटीय भागों पर जहाँ विश्व की 60 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, पर आवासीय, खेती-बारी, रहन-सहन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
- कृषि उत्पादन- भूमण्डलीय तापन से उत्पादकों में श्वसन, वाष्पोत्सर्जन की क्रियाओं में बढ़ोत्तरी होती है जिससे उनकी ऊर्जाक्षय दर बढ़ती है जिसके कारण उनमें प्रतिरोधक क्षमता कम होती है एवं रोग-व्याधि के प्रभाव बढ़ते हैं। परिणामस्वरूप कुल कृषि उत्पादन में तापमान बढ़ने से ह्रास की दर विभिन्न जलवायु में भिन्न-भिन्न हो सकती है। बढ़ती जनसंख्या में जहाँ प्रतिवर्ष अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होती है, वहाँ कृषि उत्पादों में भूमण्डलीय तापन से हुई कमी से पारिस्थितिक तंत्र के स्थायित्व एवं सन्तुलन में प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
- क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) – एक खतरनाक अविषाक्त, अञ्चलनीय गैस है जो फ्रिज, रेफ्रिजेरेटर, सुपरसोनिक वायुयान आदि से उत्सर्जित होती है तथा कार्बन से बनती है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) का सान्द्रण औद्योगिकीकरण के पूर्व बिल्कुल कम था वहीं आज 280 से अधिक हो चुका है। यह गैस वातावरण में लगभग 45-60 वर्ष तक रहती है तथा भूमण्डलीय तापन में 14 प्रतिशत का योगदान करती है। नाइट्स ऑक्साइड भी बड़ी मात्रा में बढ़ रही है जिससे भूमण्डलीय तापन में 6 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हो रही है।
- भूमण्डलीय तापन के प्रभाव – जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी के औतस तापमान में लगभग 0.6 डिग्री सेग्रे. की बढ़ोत्तरी हुई है तथा वर्ष 2100 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 1.4 डिग्री सेग्रे. से 5.8 डिग्री सेग्रे. तक वृद्धि का अनुमान है। बढ़ते तापमान के कारण प्राकृतिक पारिस्थितिकी में और अधिक असंतुलन बढ़ेगा। फलत: प्राकृतिक आपदा; जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात, भूस्खलन की घटनाओं में और वृद्धि हो सकती है। बदले जलवायु से कृषि, स्वास्थ्य, पर्यावरण प्रभावित हो सकते हैं।
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