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बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप | बाल्यावस्था में शिक्षा की विशेषताएँ

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप एवं बाल्यावस्था में शिक्षा की विशेषताएँ
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप एवं बाल्यावस्था में शिक्षा की विशेषताएँ

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप एवं बाल्यावस्था में शिक्षा की विशेषताएँ

बाल्यावस्था में शिक्षा के स्वरूप के विषय में निम्नलिखित विवरण पर ध्यान देना चाहिए –

1. शिक्षा क्रियाशीलता से पूर्ण होना चाहिए- बालक की जिज्ञासा, विधायकता, खेल, संचय आदि प्रवृत्तियों की ओर होती है। इस दृष्टिकोण से शिक्षा की सामग्री और विधियां ऐसी होनी चाहिए जिसके द्वारा उसको अधिक से अधिक क्रियाशीलता रखा जा सके।

2. बालक की जिज्ञासा प्रवृत्ति का सदुपयोग- इस काल में बालक की जिज्ञासा तीव्र रहती है। अतएव उसे दी जाने वाली शिक्षा द्वारा इस प्रवृत्ति की तुष्टि होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में जीवन की वास्तविकताओं को उचित स्थान मिलना चाहिए। प्रारम्भ से ही पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालक में जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न कर सके।

3. रोचक विषय वस्तु एवं शिक्षण विधियाँ- बाल्यकाल में रूचियों में भिन्नता एवं परिवर्तनशीलता बनी रहती है। अतएव बालक के लिए चुनी जाने वाली विषय सामग्री एवं पाठन विधि में रोचकता एवं भिन्नता होनी चाहिए। संक्षेप में शिक्षा का पूर्ण कार्यक्रम आकर्षक होना चाहिए।

4. भाषा शिक्षा का बल- बाल्यकालीन शिक्षा द्वारा बालक में भाषा योग्यताओं का समुचित विकास किया जाना चाहिए, क्योंकि भाषा ही मानसिक विकास का प्रथम उपकरण है।

5. सामाजिक गुणों का विकास- मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बाल्यावस्था “प्रतिद्वन्द्वात्मक – समाजीकरण” का समय है। बालक की प्रतिद्वन्दिता या स्पर्धा की भावना का शिक्षा में समुचित उपयोग किया जाना चाहिए। विद्यालय में इस प्रकार के खेलकूद, मनोरंजनपूर्ण सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए जिनके द्वारा बालक के जीवन में अच्छी आदतें अनुशासन, आत्मनियंत्रण, सहयोग और सहानुभूति का अधिकतम विकास हो सके तथा वह नागरिक उत्तरदायित्वों को समझ सके और प्रजातन्त्रात्मक जीवन प्रणाली का महत्व जान सके।

6. शिक्षा द्वारा सामूहिक जीवन का विकास- बालक समूह में ही रहना पसन्द करता है। अतएव बाल्यकालीन शिक्षा द्वारा सामूहिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी भी आवश्यक है। स्काउंटिंग को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए। विद्यालय के कार्यक्रमों में सामूहिक खेल, सामूहिक प्रतिद्वन्दियों एवं प्रजातान्त्रिक प्रणाली को अनेक रूपों में स्थान दिया जाना चाहिए।

7. संवेगों का प्रशिक्षण- बाल्यकाल में सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र का विस्तार होने के साथ ही साथ संवेगात्मक विकास भी होता है अतः इस काल में संवेगों के दमन से हानिकारक भावना ग्रन्थियां बन जाती हैं। बालक को संवेगों की अनुभूति, प्रकाशन एवं नियंत्रण का समुचित अवसर मिलना चाहिए।

8. विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था- बालक की विभिन्न योग्यताओं और रूचियों के अनुसार विद्यालय में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था भी होनी चाहिए।

9. शिक्षा प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होनी चाहिए- शारीरिक दण्ड या डॉट फटकार से बालक शिक्षा से विमुख हो जाता है। उसे उपदेश न देकर प्रेम और सहानुभूति से उसके समक्ष आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करना चाहिए। नैतिकता का पाठ भी व्यवहारिक होना चाहिए।

10. संग्रह प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना- बालकों की उस प्रवृत्ति का सदुपयोग शैक्षिक कार्यों के लिए किया जाना चाहिए। विभिन्न देशों के राष्ट्रीय ध्वजों के चित्र, डाक टिकट मानचित्र, पशु पक्षियों के चित्र आदि को व्यवस्थित ढंग से एकत्रित करने का प्रोत्साहन देकर भी उनकी रूचि और बुद्धि का विकास किया जा सकता है।

11. रचनात्मक कार्यों की शिक्षा – बालक रचनात्मक कार्यों में विशेष रूचि लेते हैं। मस्तिष्क की शिक्षा के साथ साथ ही “हाथों की शिक्षा” भी इसी काल में प्रारम्भ हो जाती है। अतएव केवल पुस्तकीय शिक्षा ही पर्याप्त नहीं होती। अपितु उसके साथ ही साथ लड़कियों के लिए सीना- पिरोना, कढ़ाई, भोजन बनाना तथा कलात्मक कार्यों की शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चाहिए। लड़कों को भी हस्त, शिल्प, औजारों का उपयोग, बागवानी आदि की व्यावहारिक शिक्षा दी जानी चाहिए।

बाल्यावस्था की विशेषताएं

1. मिथ्या परिपक्वता का समय- “रॉस” के अनुसार बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता का समय है। 6 या 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के सामान्य विकास की गति कुछ समय के लिए धीमी पड़ जाती है ताकि उसकी शारिरीक और मानसिक शक्तियों में दृढ़ता आ सके। परिपक्वता के कारण वह वयस्क दिखलाई पड़ता है। उसकी यह वयस्कता मिथ्या और अस्थायी होती है परन्तु इसके तुरन्त बाद ही विकास, वृद्धि और परिपक्वता का नया चक्र आरम्भ हो जाता है।

2. कुछ मूल प्रवृत्तियों का प्रबल प्रकाशन- सभी मूल प्रवृत्तियाँ जीवन में एक साथ प्रकाशित नहीं होती है। बाल्यकाल में जिज्ञासा, विधायकता, सामाजिकता और संग्रह की प्रवृत्तियों तीव्र हो जाती हैं। शिशु जिज्ञासावश यह जानना चाहता है कि यह वस्तु क्या है? किन्तु केवल क्या से सन्तुष्ट नहीं होता वह इसके अतिरिक्त क्यों? भी जानना चाहता है। वह प्रत्येक वस्तु और घटना के विषय में प्रश्न पूछता है, जैसे ऐसा क्यों हुआ ? अथवा ऐसा क्यों किया जाता है ? इत्यादि।

शिक्षा की विधायकता का प्रकाशन ध्वंसात्मक क्रियाओं में होता है। किन्तु बाल्यकाल में वह रचानात्मक कार्यों में भी विशेष आनन्द लेने लगता है। लड़के और लड़कियाँ अपनी-अपनी रूचि के अनुसार कार्य करने के लिए लालायित रहते हैं।

बालक की बढ़ती हुई क्रियाशीलता और जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने में जिज्ञासा, विधायकता और संग्रह, ये तीनों जन्मजात प्रवृत्तियाँ में अपूर्व सहयोग करती हैं। बालक एक वैज्ञानिक की भाँति बहुत सी बातों को स्वयं करके देखना चाहता है और अपने प्रयोगों के आधार पर मौलिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

3. भ्रमण तथा साहसिक कार्य करने की प्रवृत्ति- ‘सिरिलबर्ट’ के अनुसार 3 वर्ष के बालक में निरूदेश्य भ्रमण की प्रवृत्ति तीव्र रहती है। यही प्रवृत्ति कभी कभी उसे विद्यालय से भागने के लिए प्रेरित करती है। जब भी उसे अवसर मिलता है, वह अपने गाँव के आसपास के स्थानों को भ्रमण द्वारा देखता है। बाल्यावस्था में भ्रमण व साहसिक यात्राओं के द्वारा एक अति विशाल संसार का चित्र अपने मन में बनाता है। वह अपने आस-पास के अति विशाल संसार के बारे में शीघ्र अतिशीघ्र जानकारी प्राप्त करना चाहता है। इस मनोवैज्ञानिक बाल्यकाल को वास्तविक जगत में प्रवेश करने का समय मानते हैं। बालक र्निभिकता से मौलिक ज्ञान जुटाना चाहता है।

4. साहसिक कार्यों और खेलों में रूचि – बालक 6, 7, 8, वर्ष की आयु में छोटे ये समूहों में खेलता या विचरण करता है। तदुपरान्त 10, 11, 12, वर्ष की आयु में ये लघु समूह ही दल रूप में परिणत हो जाते हैं। वह दस वर्ष की आयु तक अपने आस पास के वातावरण में खेले जाने वाले सभी से भली भाँति परिचित हो जाता है। खेल की क्रिया में आत्माभिमान, संघर्ष, अनुकरण, संचय तथा निर्माण आदि प्रवृत्तियों का प्रकाशन होता है और इस प्रकार खेल की क्रिया में उसकी अनेक मूल प्रवृत्तियों का व्यवस्थापन और शोधन हो जाता है। वह समूह की बातों को अधिक मान्यता प्रदान करता है और यदा कदा परिवार के लोगों से अपने समूह की बातें छिपाने लगता है। समूह में सहयोग, विरोध, सहानुभूति, आज्ञापालन, सहनशीलता आदि सामाजिक गुणों का के समूह के साथ मिलने का स्थान और समय निश्चित होता है, विकास एवं प्रकाशन होता है। बालक का खेल जहाँ समूह के सदस्य नियमित रूप से मिलते और खेल खेलते हैं। वह अनुकरण द्वारा नवीन आदतें ग्रहण करता तथा इसी के द्वारा ही समूह की क्रियाओं विचारों और भावनाओं को स्वयं भी अपना लेता है।

5. मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि – बालक शिशु की अपेक्षा अधिक समय – तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियों और मस्तिष्क अधिक तीक्ष्णतापूर्वक कार्य करते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप उसमें प्रत्यक्षीकरण की शक्ति बढ़ जाती है। शिशु की अपेक्षा बालक का प्रत्यक्ष ज्ञान भी अधिक स्पष्ट और अर्थपूर्ण हो जाता है। बालक अपने स्वभाव और ज्ञान के अनुसार तर्क करता है और छोटी छोटी समस्याओं पर विचार भी व्यक्त करता है। स्मरण शक्ति के आधार पर वह पूर्व अनुभवों का अपने तर्क और विचारों में प्रयोग करता है।

6. व्यक्तित्व का व्यापक विकास- शैशवकालीन व्यवहार अन्तर्मुखी होता है। इसके विपरीत बाल्यकाल में उसके व्यवहार, अनुभव और सामाजिक परिचय का क्षेत्र व्यापक हो जाता है। इस प्रकार बाल्यकाल में उसका व्यक्तित्व में अनेक नवीन गुण दिखलाई पड़ते हैं। उसमें अनेक नवीन रूचियों का भी विकास होता है। चरित्र की नींव भी इसी काल में पड़ती है।

7. संवेगात्मक नैतिक विकास- शिशु के संवेग अनियिन्त्रित रहते हैं किन्तु बाल्यावस्था – में बालक बालिकाओं के संवेग प्रकाशन के ढंग में भी काफी परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। वह – संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख लेता है और बुरी समझी जाने वाली भावनाओं को स्वयं दबा सकता है। उसमें अच्छे बुरे तथा उचित अनुचित का भाव जाग्रत होता है। 6 से 8 वर्ष का – बालक न्याय अन्याय, ईमानदारी बेईमानी, आदि सामाजिक मूल्यों तथा नैतिक भावनाओं का समझने लगता है।

8. बालक में काम प्रवृत्ति की न्यूनता – बाल्यावस्था में शारिरीक क्रियाशीलता और खेलकूद में वृद्धि हो जाने के कारण शैशवकालीन काम चेष्टाएं जैसे (स्तनपान, जननेन्द्रियों का स्पर्श आदि) लुप्त हो जाती है। फ्रायड के अनुसार बाल्यकाल काम की प्रसुप्तावस्था है। बालक काम सम्बन्धी भावना को शीघ्रता से दमन करता है। इस काल में चरित्र और नैतिक आत्म की नीव पड़ती है। काम के प्रति से उसका ध्यान हटने का दूसरा कारण अन्य रूचियों का तीव्र विकास भी है। 6 से 12 वर्ष तक की आयु में बालक की रूचि तीव्र गति से परिवर्तित होती रहती है।

9. प्रतिस्पर्धा की प्रबल भावना- परिवार में वह अपने भाई बहनों से प्रत्येक कार्य में प्रतिस्पर्धा करने लगता है। माता पिता बच्चों में होड़ उत्पन्न करके इसका उपयोग अच्छे कार्यों के लिए कर सकते हैं जैसे- प्रातः कालीन पहले कौन उठता है, किसके दाँत अधिक चमकते हैं, परीक्षा में कौन अधिक अंक प्राप्त करता है, किसके कपड़े गन्दे नहीं होते तथा किसकी किताबें नहीं खोती हैं, आदि।

लड़के खेलकूद तथा भागदौड़ आदि कार्यों में चुनौती शीघ्र स्वीकार कर लेते हैं। उनका रचनात्मक कार्यों में भी प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है। विद्यालय में इसका सदुपयोग किया जाना चाहिए। लड़कियों में प्रतिपर्धा का प्रकाशन नृत्य, गायन एवं परिधान आदि से सम्बन्धित कार्यों में होता है।

10. स्थूल एवं कार्यसाधक कल्पना का विकास बाल्यावस्था में वास्तविक जगत में बालक की रूचि बढ़ जाती है। वह अपने आस पास की वस्तुओं जैसे पेड़, पौधों, पशु पक्षियों, यातायात के साधनों, रेडियो एवं कैमरा आदि उपकरणों का सूक्ष्म निरीक्षण करता है। कुम्हार द्वारा मिट्टी के बर्तन बनाना, पतंग बनाना और उठाना, बढ़ई और लुहार को काम करते देखना, कलई वाले को कलई करते देखना आदि कार्य उसे बहुत अच्छे लगते हैं। वह स्वयं भी स्थूल वस्तुओं की सहायता से कुछ वस्तुएं बनाने का प्रयत्न करता है। वह स्थूल वस्तुओं को पात्र मानकर खाना व चाय आदि बनाता है। बाल्यकालीन खेलों और कार्यों में उसकी विधायकता सृजनात्मक कल्पना का प्रकाशन होता है। वह स्वतन्त्र रूप से कार्य करता हुआ अनेक नवीन कौशल सीखता है।

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