राज्य शासन क्या है?
“संविधान द्वारा या उसके अन्तर्गत जिस सीमा तक राज्यपाल अपने विवेक के अन्तर्गत कार्य करना होता है, उसके अतिरिक्त उसके कार्यों में सहायता व परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान मुख्यमंन्त्री होगा।”- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार-
“राज्यपाल संवैधानिक व्यवस्था का प्रहरी है और वह एक ऐसी कड़ी है जो राज्य को केन्द्र से जोड़कर भारत की संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने में योग देता है।” के. एम. मुन्शी
“राज्यपाल मन्त्रिमण्डल का सूक्ष-बूक्ष वाला परामर्श होता है, जो राज्य की अशान्त राजनीति में शान्त वातावरण पैदा कर सकता है।” – एम. वी. पायली
भारतीय संविधान द्वारा जिस प्रकार केन्द्र में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की गई है, उसी प्रकार उसमें सभी राज्यों में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की है। इसीलिए समस्त राज्य सरकारों का शासन संघीय शासन व्यवस्था की भाँति ही संचालित होती है। राज्यों का प्रशासन एक ही संविधान द्वारा संचालित होता है। समस्त राज्यों में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 की व्यवस्था के अनुसार, “राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इस शक्ति का प्रयोग संविधान के अनुसार या तो स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करेगा।” इस प्रकार संवैधानिक व्यवस्था के आधार पर राज्यपाल, संघीय सरकार में राष्ट्रपति की भाँति कार्यपालिका का केवल संवैधानिक प्रमुख है, क्योंकि व्यवहार में राज्य का प्रशासन मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही संचालित होता है। मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होकर कार्य करती हैं। परन्तु कुछ सीमा तक राज्यपाल को स्वविवेक से कार्य करने की शक्तियाँ भी प्राप्त हैं।
राज्यपाल की नियुक्ति
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार, – “राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा।” परन्तु व्यवहार में राज्यपाल की नियुक्ति, संघीय मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ही राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं। दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल की नियुक्ति भी की जा सकती है। असम, नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर आदि राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल नियुक्त है।
राज्यपाल का पद सम्मान और प्रतिष्ठा का पद है। भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केन्द्र तथा राज्य सरकार के मध्य कड़ी के रूप में कार्य करता है। राज्य के प्रशासन में उसकी एक निर्णायक भूमिका होती है। वह राज्य की प्रशासनिक एवं राजनैतिक गतिविधियों से संघीय सरकार को अवगत कराता है। राज्य प्रशासन में उसकी विवादास्पद भूमिका के कारण ही वर्तमान में उसकी स्थिति विवादास्पद बन गयी है। अब यह प्रश्न उठने लगा है कि भार के राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल का भी निर्वाचन क्यों नहीं होता।
राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत ही क्यों होता है? परन्तु भारत की संघीय व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्यपाल को मनोनीत किया जाना ही सर्वथा उचित है। इसका कारण है कि राज्यपाल का यदि जनता द्वारा निर्वाचन होता तो मन्त्रिपरिषद् तथा राज्यपाल के मध्य टकराव की, राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के मध्य टकराव तथा राज्यपाल के राजनीतिक दलों का खिलौना बनने की प्रबल सम्भावना होती हैं। इसके अतिरिक्त इसमें धन और समय का अपव्यय और देश की संघीय व्यवस्था के लिए खतरा बढ़ जाता। इस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यपाल अनेक संकुचित भावनाओं से ऊपर उठकर संघीय हितों को प्रथामिकता प्रदान करते हुए एक निष्पक्ष और गौरवपूर्ण संवैधानिक प्रधान के रूप में कार्य करता हैं। इसीलिए यदि राज्यपाल का निर्वाचन किया जाता है तो यह उसकी गरिमा को कम करना होता। अतः इस आधार पर राज्यपाल को मनोनीत करने सम्बन्ध संविधान सभा का विवेकपूर्ण निर्णय राष्ट्रीय हित के अनुकूल था।
राज्यपाल पद के लिए योग्यताएँ
राज्यपाल पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होना आवश्यक है।
(1) वह भारत का नागरिक होना चाहिए।
(2) वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
(3) वह संघ तथा राज्य विधानमण्डल का सदस्य न हो।
(4) वह संघ अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्यरत न हो
राज्यपाल द्वारा शपथ ग्रहण
संविधान के अनुच्छेद 159 की व्यवस्था के अनुसार, अपना पद ग्रहण करने से पूर्व राज्यपाल को उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित शपथ लेनी पड़ती है :
“मै…अमुक….. ईश्वर की शपथ लेता हूँ कि मैं सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ …निष्ठापूर्वक …(राज्य का नाम) ….. के राज्यपाल पद का कार्य पालन करूंगा अथव राज्यपाल के कार्यों को करूंगा और अपनी पूरी योग्यता से संविधान की परिरक्षा, सुरक्षा व प्रतिरक्षा करूंगा और मैं (राज्य का नाम) कह जनता की सेवा और कल्याण में निरन्तन्त करूंगा।”
राज्यपाल का कार्यकाल
राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष होता है परन्तु संविधान के अनुच्छेद 156 (1) में कहा गया है, “राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त ही राज्यपाल का पद धारण करेगा।” इस प्रकार राज्यपाल उसी समय तक अपने पद पर रह सकता है, जब तक राष्ट्रपति को उसका विश्वास प्राप्त रहता है। अविश्वास की स्थिति में राष्ट्रपति उसके कार्यकाल पूर्ण होने से पूर्व भी पद से हटा सकता है। इसके अतिरिक्त वह त्याग-पत्र देकर भी अपने पद से मुक्त हो सकता है। कार्यकाल पूर्ण होने पर भी वह उस समय तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक कोई अन्य व्यक्ति नियुक्त होकर उसका कार्यभार ग्रहण नहीं कर लेता है।
राज्यपाल के वेतन-भत्ते एवं अन्य सुविधायें
सितम्बर, 2008 को संसद द्वारा स्वीकृत अधिनियम के अनुसार अब राज्यपाल का वेतन 1.10 लाख रूपये मासिक कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त राज्यपाल को रहने के लिए निःशुल्क सरकारी भवन मिलता है तथा आने-जाने, चिकित्सा एवं अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती है।
राज्यपाल का वेतन भारत की संचित निधि से दिये जाने के कारण मत निरपेक्ष होता है। उसके कार्यकाल में उसके वेतन भत्तों में कमी नहीं की जा सकती। पद पर रहते हुए अपने पद के अनुकूल कार्य करने के लिए उसके विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इसके अतिरिक्त राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति भी होता है।
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