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भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | स्वर्ण युग की विशेषताएँ

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | स्वर्ण युग की विशेषताएँ

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ – भक्तिकाल भले ही निर्गुण और सगुण धाराओं में विभाजित होकर सामने आया हो, किन्तु उसमें कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, ऐसी मान्यताएँ हैं और ऐसे जीवन-मूल्य है जो समान रूप से संतों, सूफियों, रामभक्तों और कृष्णभक्तों में देखने को मिलती हैं। वास्तव में इन्हीं समान बातों के कारण भक्तिकाल का महत्त्व है। कर्मकाण्डों, आडम्बरों और जटिलताओं के इस युग में भक्तिकाल का साहित्य एक नयी प्रकाश-किरण के रूप में दिखाई देता है। यह प्रकाश महलों से लेकर झोंपड़ियों तक और राजपथ सेजनपथ तक सर्वत्र पहुँचा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह टिप्पणी सारगर्भित है कि “जितनी सरलता और सहजता से इस साहित्य ने जन-जीवन का स्पर्श किया, उतनी सहजता से अन्य कोई भी साहित्य नहीं कर सका। इस साहित्यने भ्रमित और हताशजनता को उल्लासमय जीने की प्रेरणा दी, उन्हें एक अलौकिक संतोष प्रदान किया। वास्तव में यह समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला है। इसी का नाम भक्ति-साहित्य है और यह एक नयी दुनिया है।”

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

भक्तियुग में जो धाराएं विकसित हुई हैं, वे अलग-अलग भले ही हों, किन्तु उनके सिद्धान्तों में पर्याप्त समानता है। यह समानता ही समूचे भक्तिकाल को विशिष्ट बनाए हुए हैं और इसी समानता के बल पर भक्तिकाल की कुछ सामान्य विशेषताएँ उभरकर सामने आती हैं, जो निम्नांकित हैं-

  1. भक्तिभावना की प्रधानता
  2. नामस्मरण की महिमा
  3. गुरु का महत्त्व
  4. प्रेम तत्त्व का महत्त्व
  5. सत्संगति की महिमा
  6. अहंकार का त्याग
  7. बहुदेववाद का विरोध
  8. अनुभूतिपरक अनुभव या ज्ञान का महत्व
  9. वर्गभेद का विरोध
  10. रूढ़िवादी विचारधारा का खंडन
  11. शृंगार वर्णन
  12. समन्वयात्मकता
  13. लोक संग्रह की  भावना
  14. नारी-विषयक दृष्टिकोण

भक्तिकाल की विशेषताएँ-

1. भक्तिभावना की प्रधानता-

समूचे भक्तिकाल में भक्ति-भावना की प्रधानता दिखाई देती है। यह भक्ति भावना मोक्ष-प्राप्ति के एकमात्र साधन के रूप में सम्पूर्ण भक्तिकाल में प्रवाहित है। चाहे संत हों, सूफ़ी अथवा सगुणोपासक भक्त हों, सभी इस अनुभूति से गहराई तक प्रभावित हैं।

2. नामस्मरण की महिमा-

भक्तिकाल की सभी अंतर्धाराओं में नाम स्कीमरण महिमा कागुणगान समान रूप से दिखलाई देता है। निर्गुण और सगुण दोनों ही कवियों ने नाम की महत्ता को एक स्वर से स्वीकार किया है। यदि कबीर यह कहते हैं कि “नाम स्मरण के समान उत्तम अन्य कोई मार्ग नहीं है” तो सूर भी ईश्वर के नाम पर ही विश्वास करके आगे बढ़ते है। तुलसी ने भी राम के नाम को राम से अधिक महत्त्व दिया है।

3. गुरु का महत्त्व-

भक्तिकाल के सभी कवियों ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता पर सर्वाधिक बल दिया है। सभी कवि यह मानकर चले हैं कि गुरु के बिना कोई भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। गुरु ही अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर अपने शिष्य को परम तत्त्व पर पहुँच सहायक होता है। कबीर ने यह कहकर गुरु की महत्ता बतलाई है कि-

गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय॥”

जायसी ने भी गुरु की महिमा का मुक्तकंठ से गुणगान किया है-

चिर उर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल बुधि पद्मिनि चीन्हा॥
गुरु सूआ जेइ पन्थ दिखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥”

तुलसी ने ‘रामचरित मानस’ के प्रारम्भ में ही गुरु की महिमा का गुणगान कर दिया है-

बन्दौ गुरु-पद-कंज, कृपा-सिंधु नर रूप धरि।
महामोह तम-पुंज, जासुवचन रवि कर निकरि॥

4. प्रेम तत्त्व का महत्त्व-

भक्तिकालीन कवियों ने प्रेम के महत्त्व को मुक्तकंठसे स्वीकार किया है । निर्गुण हों या सगुण, संत हों या सूफ़ी, रामभक्त हों या कृष्णभक्त, सभी प्रेम की महिमा और सत्ता को स्वीकार करके चले हैं। संत कवियों ने भक्ति के मार्ग को प्रेम का ही मार्ग माना है और इस पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान बतलाया है। सगुण कवियों ने भी प्रेम की पीड़ा को पर्याप्त महत्त्व दिया है। ये कवि यह मानकर चले हैं कि प्रेम मानव-मन की कोमलतम भावना है। इनका मत था कि भगवान के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् धीरे-धीरे भक्त के हृदय में क्रमश: प्रेम और श्रद्धा जैसी भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं।

5. सत्संगति की महिमा-

भक्ति काव्यमें सत्संगति की महिमा का भी गुणगान किया गया है । भक्त कवियों का विचार था कि सत्संगति मानव-मन के दोषों को दूर कर अच्छे गुणों एवं सद्भावनाओं का विकास करती है। यही कारण है कि इन्होंने सत्संगति का समर्थन एवं प्रचार किया। निर्गुण एवं सगुण मतों को मानने वाले संतों ने दोनों ही प्रकार के कवियों को महत्त्व दिया है। संतकवि कबीर लिखते हैं-

कबिरा संगति साधु की हरे और की व्याधि।
संगति बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि॥

अर्थात् सत्संगति दूसरों के कष्टों का हरण कर उन्हें शांतमना बनाती हैं जबकि कुसंगति में रहने वालों को दिन-रात उलाहने मिलते हैं। कुछ इसी बात पर जोर देते हुए सगुण भक्त कवि सूरदास ने भी अपने मन से प्रभु-विरोधी अर्थात् बुरे लोगों का साथ त्यागने की प्रार्थना की है-

“तजो रे मन हरि विमुखनि को संग।”

इसी प्रकार तुलसीदासने भी अपने अमर-काव्य रामचरितमानस’ में सत्संगति की महिमा का पर्याप्त बखान किया है।

6. अहंकार का त्याग-

भक्तिकाल के सभी कवियों ने अहंकार के त्याग की आवश्यकता पर बल दिया है। ये सभी कवि यह मानकर चले हैं कि अहंकार के त्याग के बिना सच्ची भक्ति सम्भव ही नहीं है। समर्पण के मार्गपर चलने के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है क्योंकि बिना समर्पण के भक्ति सम्भव नहीं है।

7. बहुदेववाद का विरोध-

भक्तिकाल के सभी कवियों ने बहुदेववाद का विरोध किया है और एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना की है। ये कवि यह मानकर चले हैं कि ईश्वर एक है और सम्पूर्ण सृष्टि में उसी की कांति चमकती दिखाई देती है। निर्गुण और सगुण दोनों ही कवियों ने बहुदेववाद का विरोध किया है। निर्गुण कवियों ने अवतारवाद स्वीकार नहीं किया है जबकि सगुण कवियों ने अवतारवाद को तो स्वीकार किया है, किन्तुबहुत से देवी-देवताओं की उपासना व्यर्थ बतलाया है। वे तो स्पष्ट रूप से यह मानकर चले हैं कि विभिन्न देवताओं के नाम एक ही परम तत्त्व के विविध रूप हैं। तुलसीने मानस में कहा है कि जो शिव का विरोध करके मेरी भक्ति करता है, उस भक्त को मैं स्वपन में भी नहीं देखता हूँ।

“शिवद्रोही मम ‘कहावा।
सौ नर मोहि हूँ नहीं भावा॥”

8. अनुभूतिपरक अनुभव या ज्ञान का महत्व-

भक्तिकालीन कवियों ने शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्त्व नहीं दिया है। इन्होंने शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा निजी अनुभव से प्राप्त अनुभव या ज्ञान को ही महत्त्व दिया है। निर्गुणवादी कबीर यदि यह कहते हैं कि-

-पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय॥”

तो तुलसीदास भी वाक्य को व्यर्थ बतलाते हैं और यह कहते हैं कि-

“वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावै कोई।”

सुर की गोपियों ने भी ज्ञान की गठरी की तुलना में प्रेम के निजी अनुभवों को ही अधिक महत्त्व दिया है।

9. वर्गभेद का विरोध-

भक्तिकाल में या कहें कि समूचे मध्यकालीन समाज में तरह-तरह के मिथ्या बंधन थे जिनमें सभी लोग जकडे हुए थे| जाति-पाँति, छुआ-छूत और ऊँच-नीच की भावनाएँ समाज के प्रत्येक वर्ग में व्याप्त थीं। यही कारण था कि समाज भीतर ही भीतर कई टुकड़ों में बँट चुका था। शूद्रों के लिए धार्मिक कार्य निषिद्ध थे और वे अस्पृश्य माने जाते थे। ब्राह्मण वर्ग ही विशिष्ट माना जाता था। इन स्थितियों को भक्तिकाल के कवियों ने बुरी दृष्टि से देखा है। उन्होंने जाति व्यवस्था और छुआ-छूत का खुले शब्दों में विरोध किया है। कबीर ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि-

“जाति-पाँति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई।”

सगुण भक्त कवियों ने भी ऐसे मिथ्या बंधनों को विरोध की पैनी धार से नकारने का सफल प्रयास किया है । तुलसीदास वर्ण व्यवस्था को तो स्वीकार करते थे, किन्तु जाति-व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पाये । यही कारण था कि उन्होंने ‘रामचरितमानस’ में निम्नवर्गीय निषाद को राम से गले मिलते हुए तथा राम को सबरी के झूठे बेर खाते हुए दिखलाया है। सूरदास के कृष्ण भी वालों के साथ माखन की छीना-झपटी करते हुए दिखाये गये हैं । इस प्रकार भक्त कवियों ने यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर के लिए न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है, सभी समान हैं।

10. रूढ़िवादी विचारधारा का खंडन-

भक्तिकालीन समाजरूढ़ियों और आडम्बरों में इस प्रकार जकड़ा हुआ था कि उसकी मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं दिखाई दे रही थी। संत कवियों ने मूर्तिपूजा, बलि प्रथा, तीर्थ यात्रा, रोजा, व्रत, नमाज और हज आदि समस्त आडम्बरों का खुलकर विरोध किया है। सगुण भक्त कवियों ने भी रूढ़ियों और आडम्बरों की भर्त्सना की है। ऐसा लगता है कि भक्तिकाल के सभी कवि एक समान मानवता के पक्षधर थे। वे सद्भाव, सहजता, शालीनता और समता जैसे मूल्यों महत्त्व देते थे और उनकी दृष्टि में प्रेम, मानव-प्रेम सर्वोपरि था। ये जीवन-मूल्य सम्पूर्ण भक्तिकाल में दिखाई देते हैं।

11. शृंगार वर्णन-

भक्तिकालीन काव्य में एक समान प्रवृत्ति यह भी देखने को मिलती है कि बावजूद भक्ति भावना के शृंगार को सभी ने अपनाया है। प्रेम का सम्बन्ध शृंगार से है और तो और, निर्गुण संत जो ईश्वर को निराकार मानते है वे भी शृंगार-वर्णन करने में पीछे नहीं रहे हैं। हाँ, यह अवश्य है कि इनके काव्य में संयोग की अपेक्षा वियोग का स्वर अधिक मुखरित हुआ है। विरह की तीन स्थितियाँ उनके यहाँ देखने को मिलती हैं-विरह की प्रथम अवस्था में जब आत्मा को परमात्मा के दिव्यदर्शन होते हैं, तब आत्मा या कहें कि जीवात्मा परमात्मा के अलौकिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता है। परमात्मा के मिलन के लिए व्याकुल होकर जो विरह की भावना जगती है, उसकी सजीव अभिव्यक्ति निर्गुण संतों में देखने को मिलती है। तीसरी स्थिति मिलन की है। प्रिय केआगमन की बेला जब निकट आती है, तब कबीर स्वयं को सुहागिन स्त्री मानकर यहाँ तक लिख जाते हैं-

“दुलहनी गावहु मंगलाचार।
हमारे घर आये हौं राजा राम भरतार।
तन रत करि मैं मन रत करिहू
रामदेव मोरे पाहुनै आये मैं जौबन मैं माती॥”

सगुणोपासक कवियों में सूरदास ने भी शृंगार को अपनाया है ,बल्कि कहें कि उनका श्रृंगार अत्यन्त स्पष्ट और सरस है। संयोग और वियोग दोनों को ही उन्होंने समान महत्त्व दिया है और कृष्ण के प्रसंग इसके उदाहरण हैं।

12. समन्वयात्मकता-

समन्वयात्मक भक्ति-साहित्य की एक अनुपम विशेषता है। विरोधों और पारस्परिक संघर्षों के उस युगको समन्वय की सर्वाधिक आवश्यकता थी। अन्यथा भारत देश और भारतीय संस्कृति के पतन और विघटन के मार्ग खुले हुए थे। धार्मिक संघर्षों को समाप्त करने के लिए भक्तिकालीन कवियों ने सगुण और निर्गुण तथा ज्ञानयोग और भक्तियोग में समन्वय स्थापित किया था। तुलसी ने “अगुनहिं नहिं कछुभेदा, जानिहिं भक्ति हिं नहिं कछु भेदा” कहकर इसी समन्वय की ओर संकेत किया है। संत कवियों ने धर्म और समाज सभी क्षेत्रों में समन्वय करने की सफल चेष्टा की है। सगुण भक्त कवि तुलसी का तो समूचा काव्य ही ‘सा की विराट चेष्टा है।

13. लोक संग्रह की  भावना-

भक्तिकाल के समस्त कवि पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाले थे। वे योगी नहीं थे। यही कारण है कि उनके काव्य में जीवनानुभवों का समग्र चित्र प्रस्तुत किया गया है। उसमें लोक-संग्रह की भावना विद्यमान है। भक्तिकालीन कवियों की समाज से हटकर कोई अलग दुनिया नहीं थी, वे तो उसी समाज के सदस्य थे जिसमें वे रहते थे। यदि ध्यान से देखें तो स्पष्ट होता है कि संतों ने वैयक्तिक साधना-पद्धति की अपेक्षा सामाजिक साधना-पद्धति पर अधिक बल दिया है। आत्मशुद्धि को भी उन्होंने सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही देखा है। रामभक्त तुलसी का समस्त काव्य भले ही राम के चरित्र को आधार बनाकर लिखा गया हो, किन्तु फिर भीवे महाराज दशरथ के राजमहल के साथ-साथ समाज के प्रत्येक वर्ग को साथ लेकर चले हैं। यह सब लोक संग्रह की भावना को व्यक्त करता है।

14. नारी-विषयक दृष्टिकोण-

भक्तिकालीन सभी कवियों ने अपने नारी-विषयक दृष्टिकोण को सहजता से अभिव्यक्ति दी है। सभी भक्त कवि पतिव्रता स्त्री की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं और कुटिला स्त्री की निंदा करने में कोई चूक नहीं करते । ऐसा प्रतीत होता है कि नारी के सत्स्वरूप पर इनकी आदरमयी दृष्टि थी और असत् स्वरूप पर क्रूर एवं निंदापरक दृष्टि थी।

“पतिव्रता मैली भली, काली कुंचित कुरुप।
पतिव्रता के रूप पर, वारौं कोटि सरूप॥”

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण दोनों ही धाराओं के कवियों ने कुछ बातों में समान दृष्टिकोण अपनाया है। समूचा भक्तिकाल जीवन-मूल्यों का और भारतीय संस्कृति का उद्घोषक काव्य प्रतीत होता है। अत: सभी विशेषताएँ समूचे भक्तिकाल के अंतर्गत समान भाव से प्रवाहित होती रही हैं।

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