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आधुनिक हिन्दी कविता का विकास | आधुनिक हिन्दी कविता प्रवृत्तियां/विशेषताएं

आधुनिक हिन्दी कविता का विकास
आधुनिक हिन्दी कविता का विकास

धुनिक हिन्दी कविता का विकास | आधुनिक हिन्दी कविता प्रवृत्तियां/विशेषताएं | आधुनिक हिन्दी कविता में प्रमुख कवियों का योगदान

‘आधुनिक’ शब्द समसामयिक, समकालीन एवं वर्तमान का द्योतक है, किन्तु आज जो मुख्य साहित्यिक समसामयिक समकालीन है, कालान्तर में वही अतीत का स्वरूप धारण कर लेता है। अस्तु, इस दृष्टि से ‘आधुनिक शब्द भ्रामक भी कहा जा सकता हैं फिर भी विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का विभाजन अपनी-अपनी दृष्टि से किया है। काल-विभाजन के द्वारा उक्त ‘आधुनिक’ शब्द का अर्थ खोजने वालों में प्रामि वर्ग उन विद्वानों का है जिन्होंने सन् 1857 से आज तक के लिखे गये काव्य को भाषा की दृष्टि से आधुनिक कहा है। द्वितीय मत यह है कि नयी प्रवृत्ति की दृष्टि से भी भारतेन्दु युग से उनके परवर्ती समस्त काल को आधुनिक कहना समीचीन होगा। इस प्रकार भाषा तथा प्रवृत्ति दोनों आधारों को लेकर सन् 1857 से आज तक के काव्य को आधुनिक कहा जाना उचित होगा। कुछ अन्य विद्वानों की मान्यता है कि निःसन्देह, गद्य की दृष्टि से भारतेन्दु युग के गद्य को आधुनिक गद्य’ कहा जा सकता है, पर भारतेन्दु युग के काव्य में ब्रजभाषा प्रयोग का देखकर इसे आधुनिक कविता कैसे कहा जा सकता है? इस तर्क पर विचार करते हुए यह समाधान हो सकता है कि खड़ी बोली की कविता के प्रारम्भ से ही आधुनिक कविता का प्रारम्भ माना जाय।

आधुनिक काल की सर्वाधिक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है-खड़ी बोली का आगमन तथा पद्य समकक्ष गद्य का विकास। इससमय पद्य के लिए ब्रजभाषा ही उपयुक्त समझी जाती थी, जिसका मोह आधुनिक गद्य-संस्थापक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से भी नहीं छूटा। परन्तु इस युग की घटनाएँ हैं-1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, 1900 ई. में नागरी को शासकीय मान्यता प्राप्त होना, 1900 ई. में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन तथा ‘जय हिन्दी जय नागरी’ की प्रतिष्ठा होना। इसलिए भाषा के आधार पर भी उसका नामकरण हो सकता है। यथा-खड़ी बोली (हिन्दी) का उद्भव काल, खड़ी बोली का सुधार काल, खड़ी बोली का लाक्षणिक काल, खड़ी बोली का नव्य अर्थकाल तथा खड़ी बोली के अर्थ की अर्थवत्ता का अकाल। परन्तु काव्य की प्रवृत्तियों के परिचय के लिए इसे हम राष्ट्रीय धारा, छायावादी धारा तथा छायावादोत्तर काव्य धाराएँ कह सकते हैं-

1. राष्ट्रीय काव्य धारा (सन् 1857 से 1920 तक)

इस काव्य धारा के अन्तर्गत भारतेन्दु युग तथा द्विवेदी युग दोनों को एक साथ सम्बद्ध किया जा सकता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में युगीन कवियों ने काव्य के बहिरंग तथा अन्तरंग दोनों में परिवर्तन किया। काव्य विषय की दृष्टि से रीतिकाली शृंगारिकता की मोहासक्ति में न्यूनता आई तथा राष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि समस्याओं को काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। बंगला और अंग्रेजी के सम्पर्क के कारण हिन्दी कवियों के विषयों में विविधता और व्यापकता का पदार्पण हुआ। यहाँ एक ओर कवि विक्टोरिया की वन्दना लिखता है-‘

पूरी अमी की कटोरिया-सी
चिरंजीवी रहो विक्टोरिया रानी (अम्बिका दत्त व्यास)

प्रमुख कवि-

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, अम्बिका दत्त व्यास, राधाकृष्ण दास, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी, जगमोहन सिंह, नवनीत लाल चतुर्वेदी आदि हैं। इस पुरानी धारा के द्वितीय उत्थान के उल्लेख्य कवि हैं-अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, सत्यनारायण कवि रत्न, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वचनेश, वियोगी हरि आदि।

भारतेन्दु के पश्चात् हिन्दी-साहित्य का नेतृत्त्व आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथों में आया। आपने ‘सरस्वती’ का भार ग्रहण कर हिन्दी को व्याकरण सम्मत बनाया। आपके प्रयास से खड़ी बोली प्रतिष्ठित हुई। द्विवेदी जी नीतिवादिता से शृंगार का उच्छृखल स्वरूप समाप्त कवियों हो गया। यह इतिवृत्तात्मक’ काव्य युग रहा है। इसमें अधिकांश कवियों की दृष्टि वस्तु के बाद अंग पर जाकर ही रुक गयी। वह उसके साथ तादात्म्य स्थापित न कर सकी। इस युग ने पौराणिक और ऐतिहासिक आख्यानों को लेकर काव्य रचना की। प्रिय प्रवास’ इस युगका मुख्य रचना है। ‘साकेत’ का प्रारम्भ भी इसी युग में हुआ। द्विवेदी जी के निर्देशन में धार्मिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, देशभक्ति आदि विभिन्न प्रवृत्तियाँ विविध रूपों में प्रकट हुईं।

प्रमुख कवि-

मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसादशुक्ल ‘सनेही’, रामचरित उपाध्याय, लाला भगवानदीन, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाण्डेय, लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।

2. छायावादी काव्यधारा (सन् 1920 से 1935 ई. तक)

द्विवेदी युग के नैतिक बुद्धिवाद और इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में सूक्ष्म ने स्थूल के प्रति विद्रोह किया और छायावाद ने जन्म लिया। इस काव्यधारा पर अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावाद तथा बंगला साहित्य का प्रभाव है। उपनिषद् साहित्य का रहस्यवाद भी इसमें अन्तर्निहित है। इस काव्यधारा ने हिन्दी को एक नवीन भावलोक तथा नवीन अभिव्यंजना दी। अब कविता बहिरंग से अंतरंग हो गयी। इस काव्यधारा की अग्र प्रवृत्तियाँ निर्धारित की गयी हैं-

(1) सौन्दर्य भावना, (2) आत्माभिव्यक्ति, (3) करुणा, वेदना की निवृत्ति, (4) प्रकृति- प्रेम, (5) रहस्यवाद, (6) राष्ट्रीय भावना, (7) मानवतावाद की प्रतिष्ठा, (8) नयी अभिव्यंजना शैली-प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता वक्रता तथा चित्रात्मकता।

प्रमुख कवि-

जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, डॉ. रामकुमार वर्मा।

छायावादोत्तर काव्य चार धाराओं में विभक्त होता हुआ दिखाई देता है-(अ) राष्ट्रीय काव्यधारा, (ब) प्रगीत काव्यधारा, (स) प्रगतिवादी काव्यधारा, (द) प्रयोगवादी काव्यधारा (कालान्तर में नयी कविता, अकविता, साठोत्तरी कविता आदि)

(अ) राष्ट्रीय काव्यधारा- यह धारा भारतेन्दु काल से ही चली आ रही है। इसमें जिन कवियों ने योगदान किया उनके नाम हैं-अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, माखर लाल चतुर्वेदी, मैथिली शरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तथा ‘राष्ट्रीय आत्मा’। इसे अक्षुण्ण धारा भी कहा जाता है।

(ब) प्रगीत काव्यधारा- छायावाद की अतिशय काल्पनिकता के फलस्वरूप गीत की नयी अन्विति लेकर इसका प्रादुर्भाव हुआ और इसमें हरिवंशराय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के हस्ताक्षर उभर कर आये। कालान्तर में यही धारा यथार्थ आग्रही और नये उपमानों की लालसा से पोषित होती गई और इसने ‘नवगीत’ की अमिधा स्वीकार की। इस धारा के प्रमुख कवि हैं-गोपालसिंह नैपाली ‘नीरज’, बाल स्वरूप ‘राही’, शिवबहादुर सिंह भदौरिया आदि।

(स) प्रगतिवादी काव्यधारा-छायावाद की अतिशय रोमांस बहुलता, कल्पनाप्रियता तथा मार्क्स के दर्शन की व्यापकता के कारण इस धारा का आविर्भाव हुआ। इसकी मूल उपलब्धि है-काव्य क्र प्रति यथार्थ दृष्टि। प्रगतिवादी काव्य ने मजदूर-किसान वर्ग के चित्र प्रस्तुत किए तथा समाज में वर्ग-भेद की संरचना गाढ़ी की। समाज में किसान, मजदूर, उनके घरों की बहू-बेटियों की समस्या, मार्क्स का यथार्थवादी दृष्टिकोण, उपादानों में हँसिया, हथौड़ा, लाल सेना चीन के उपकरण धर्मा प्रयोग ही इसके उपकरण हुए, जिसकी दृष्टि अंतरंगी न होकर बहिरंगी हैं इन कविताओं में अनुभूति की गहराई का अभाव है। प्रमुख कवि-पन्त, निराला, दिनकर, नवीन, नागार्जुन, केदार, ‘सुमन’, गजानन माधव मुक्तिबोध’, शमशेर, त्रिलोचन, भवानी प्रसाद मिश्र, धूमिल, भारत भूषण अग्रवाल आदि।

(द) प्रयोगवाद- प्रयोगवाद का जन्म छायावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसमें भदेसपन का आग्रह है। छायावादी भाव-तत्त्व से असन्तुष्ट होकर प्रगतिवाद ने एक निश्चित सामाजिक-राजनीतिक जीवन पद्धति को स्वीकार किया तो प्रयोगवाद ने काव्य वस्तु और शैली-शिल्प के नवीन प्रयोगों द्वारा अनेक रूप और अस्थिर जीवन को उपयुक्त बनाने की ओर ध्यान दिया। पुनः जीवन में नये मूल्यों के प्रतिष्ठित होने पर भाव-बोध को नये सिरे से व्यवस्थित करने की आवश्यकता थी। प्रयोगवादी कवियों में जीवन, समाज, धर्म, राजनीति, काव्यवस्तु, शैली, छन्द, तुक, कवि के दायित्व आदि को लेकर मतभेद हैं। हमारे जगत के सर्वमान्य और स्वयं सिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे नहीं स्वीकार करते; जैसे-लोकतन्त्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यान्त्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा कानन बाला और सहगल के गानों की उत्कृष्टता आदि। इन कवियों के प्रयोगशीलता के परिणामस्वरूप जो प्रवृत्तियाँ उभरीं, वे इस प्रकार हैं-(1) अति यथार्थ का आग्रह, (2) बौद्धिकता, (3) भदेस का चित्रण, (4) घोर वैयक्तिता, (5) अतृप्ति एवं विद्रोह के स्वर, (6) मध्यम वर्ग की कुण्ठा की विवृत्ति, (7) यौन वर्जनाओं का चित्रण।

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