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गांधी जी के संरक्षकता सिद्धान्त | वर्तमान समय में संरक्षकता सिद्धान्त का महत्त्व

गांधी जी के संरक्षकता सिद्धान्त
गांधी जी के संरक्षकता सिद्धान्त

गांधी जी के संरक्षकता सिद्धान्त का वर्णन कीजिए

गाँधीजी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्धन और अमीरों के बीच समरसता की प्रक्रिया द्वारा संघर्ष को टालकर व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। इसके लिए गाँधी जी ने ‘संरक्षकता’ सिद्धान्त अपनाया। इसके सम्बन्ध में गाँधीजी ने कहा है— “आज के धनवानों को वर्ग संघर्ष के और स्वेच्छा से धन के ट्रस्टी बनने को दो मार्गों में से एक को चुनना है। उन्हें अपनी मिलकियत की रक्षा का अधिकार होगा, उन्हें यह भी अधिकार होगा कि वे अपने स्वार्थ के लिए नहीं वरन् देश के हित के लिए दूसरों का शोषण न करके धन बढ़ाने में अपनी बुद्धि का सदुपयोग करें।” गाँधीजी के संरक्षकता का सिद्धान्त को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

(1) सत्य और अहिंसा पर आधारित सिद्धान्त

गाँधी जी आर्थिक विषमताओं का अन्त करने के लिए साम्यवादी ढंग से आपत्ति जताते हैं। धनिकों से उनका धन बलपूर्वक छीनकर उसका सार्वजनिक हित में प्रयोग करने का साम्यवादी तरीका हिंसात्मक है। पूँजीपति वर्ग को पूर्णतया ना करने में समाज उनकी सेवाओं से वंचित रह जायेगा। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का विचार था कि यदि सत्य और अहिंसा के आधार पर सार्वजनिक हित के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति ली जा सके तो ऐसा अवश्य ही किया जाना चाहिए।

(2) अपरिग्रह पर आधारित सिद्धान्त

इसका अर्थ यह है कि धनी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अधिक जमीन, जायदाद, कारखानें तथा विविध प्रकार की सम्पत्ति का अपने को स्वामी न समझे अपितु इसे समाज की अमानता जाने और उसका उपयोग अपने लाभ के लिए नहीं अपितु समाज के कल्याण के लिए करें। गाँधी जी का यह सिद्धान्त अपरिग्रह के विचार पर आधरित है जिसका अर्थ है मनुष्य को अपने जीवन की आवश्यकताओं से अधिक किसी वस्तु का संग्रह नहीं करना चाहिए यदि किसी के पास अधिक सम्पत्ति हो गई है तो इसको अपनी न समझकर ईश्वर की तथा समाज की समझनी चाहिए। संसार की सभी वस्तुओं पर ईश्वर का स्वामित्व है। मनुष्य को अपने परिश्रम और आवश्यकतानुसार इसमें से अपना हिस्सा लेने का अधिकार है। अतः वह किसी भी प्रकार की सम्पत्ति का स्वामी नहीं अपितु संरक्षक मात्र है।

(3) सार्वजनिक हित की वृद्धि पर आधारित सिद्धान्त 

धनी लोगों को स्वेच्छापूर्वक यह समझना चाहिए कि उनके पास जो धन है, वह समाज की धरोहर है ओर वे उसमें से केवल अपने निर्वाह के लिए आवश्यक धनराशि ही ले सकते हैं। शेष सारी धनराशि उन्हें समाज की दृष्टि से हितकर कार्यों में लगा देनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि धनी अपने जीवन निर्वाह से बची हुई सम्पत्ति को निर्धन व्यक्तियों में बाँट दें। ऐसा करने पर तो यह सम्पत्ति उपभोग में आकर शीघ्र नष्ट हो जायेगी। अतः धनिक वर्ग अपनी फालतू सम्पत्ति को ऐसे उद्योग-धन्धों में लगाएँ जिनसे साधारण जनता को रोजगार मिल सके। उन्हें दूसरों को काम देकर तथा उत्पादन बढ़ाकर अपनी पूँजी का सदुपयोग सार्वजनिक हित एवं वृद्धि के लिए करना चाहिए। वे तालाब, विद्यालय, चिकित्सालय आदि बनाने के जनकल्याणकारी, कार्यों में भी लगा सकते हैं। जमींदार अपनी फालतू जमीन भूमिहीन निर्धन व्यक्तियों को जोतने-बोने के लिए दे सकते हैं।

वर्तमान समय में इस सिद्धान्त का महत्त्व

व्यक्ति के जीवन में आर्थिक पक्ष उसके जीवन का विशेष पक्ष है। गाँधीजी ने सामाजिक न्याय की प्राप्ति और आर्थिक विषमता उन्मूलन के एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था की कल्पना की जिसमें सबकी आवश्यकताएँ सीमित हों। आज भी, अपरिग्रह, असंयम आदि प्रवृत्तियों को अपना कर समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं और शोषण को दूर किया जा सकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि संरक्षकता सिद्धान्त मनुष्य की प्रकृति में सुधार का सिद्धान्त है जिसका वर्तमान समय में भी उतना ही महत्त्व है जितना पहले रहा है।

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