महात्मा गांधी के आर्थिक विचार
राजनीति के समान ही अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में गांधीजी का विचार था कि सच्चा अर्थशास्त्र नैतिकता के महान् नियमों के प्रतिकूल हो ही नहीं सकता है। सच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय चाहता है। वह प्रत्येक व्यक्ति का, यहां तक कि दुर्बल व्यक्ति का भी सामाजिक हित चाहता है और अच्छे जीवन के लिए यह आवश्यक है। गांधीजी के प्रमुख आर्थिक विचार इस प्रकार हैं
(i) औद्योगीकरण का विरोध
गांधी जी के द्वारा औद्योगिक क्रान्ति और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था का विरोध किया गया है। बड़े उद्योगों की स्थापना के लिए कच्चे माल और बहुत बड़ी मात्रा में निर्मित पदार्थों के विक्रय के लिए बड़े बाजारों की आवश्यकता होती है तथा कच्चे माल और बड़े बाजारों की खोज की यह प्रवृत्ति साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को जन्म देती है, जो कि नैतिकता के विरुद्ध है।
गांधी जी बड़ी मशीनों को मानव जाति के लिए अभिशाप मानते थे और उनका विचार था कि समाज में घृणा, द्वेष और स्वार्थ मे जो वृद्धि दिखायी देती है वह सब मशीनों का ही फल है। मशीनों के प्रयोग के परिणामस्वरूप ही मानव का शारीरिक एवं नैतिक पतन हुआ है। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप उत्पादन थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित हो जाता है और बहुसंख्यक वर्ग को अत्यधिक निर्धनता में अपना जीवन व्यतीत करना होता है। इस प्रकार औद्योगीकरण से शोषण को प्रोत्साहन मिलता है। औद्योगीकरण से बेकारी भी बढ़ती है, क्योंकि मानवीय श्रम का स्थान मशीनें ले लेती हैं। औद्योगीकरण का एक दोष यह भी है कि केन्द्रीकृत उत्पादन के परिणामस्वरूप राजनीतिक शक्ति का भी केन्द्रीकरण हो जाता है जो लोकतन्त्र और मानवीय स्वतन्त्रता दोनों का ही शत्रु है।
पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि गांधीजी सभी प्रकार की मशीनों के प्रयोग के पूर्णतया विरुद्ध थे। मशीनों के प्रयोग के सम्बन्ध में उनका साधारण सिद्धान्त यह था कि जो मशीनें सर्वसाधारण के हित साधन में प्रयोग आती हैं उनका प्रयोग उचित है। उदाहरण के लिए, वे रेल, जहाज, सिलाई की मशीन और चरखा, आदि के समर्थक थे, किन्तु उनका विचार था कि विनाशकारी और मानव शोषण को प्रोत्साहित करने वाली मशीनों का प्रयोग सर्वदा त्याज्य समझा जाना चाहिए।
(ii) कुटीर उद्योगों का समर्थन
गांधीजी के द्वारा औद्योगीकरण का विरोध करते हुए, कुटीर उद्योग-धन्धों पर आधारित एक ऐसी विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया गया, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक गांव एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करेगा। वे खादी को भारत की राजनीति एवं आर्थिक समस्याओं का अमोघ हल मानते थे और उनके द्वारा आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी के विचार का प्रतिपादन किया गया। गांधीजी का विचार था कि प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था, वहां की जलवायु, भूमि तथा वहां के निवासियों के स्वभाव को ध्यान में रखते हुये निश्चित की जानी चाहिए और इन बातों के आधार पर जहां तक भारत का सम्बन्ध है भारत के लिए कुटीर उद्योग-धन्धों की व्यवस्था ही सर्वोत्तम है।
(iii) अपरिग्रह का सिद्धान्त
आर्थिक अन्याय और असमानता को दूर करने के लिए गांधी जी का एक अन्य विचार यह है कि जीवन में अपरिग्रह के सिद्धान्त को अपनाया जाना चाहिए। गांधी जी का मत था कि प्रकृति स्वयं उतना उत्पादन करती है, जितना सृष्टि के लिए आवश्यक है इसलिए वितरण का प्राकृतिक नियम यह है कि प्रत्येक केवल अपनी आवश्यकता भर के लिए प्राप्त करे और अनावश्यक संग्रह न करे। गांधीजी के शब्दों में, “धनवानों के पास संग्रह करने के लिए अत्यधिक सामग्री है जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं है जबकि लाखों लोग अवश्यकता के कारण भूखे मर जाते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल आवश्यक वस्तु का ही संग्रह करे तो कोई भी जरूरतमन्द नहीं होगा तब फिर सब सन्तुष्ट रह सकेंगे।
(iv) वर्ग सहयोग की धारणा
आर्थिक क्षेत्र में गांधीजी का एक अन्य विचार वर्ग सहयोग की धारणा है। गांधीवाद साम्यवादी दर्शन की वर्ग संघर्ष की धारणा में विश्वास नहीं करता। गांधीजी का विचार था कि श्रमिक और पूंजीपति के हित परस्पर विरोधी नहीं होते वरन् एक ही होते हैं और उनके द्वारा सामूहिक प्रयत्नों के आधार पर उद्योग के विकास का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में गांधीवाद वर्ग सहयोग की धारणा का प्रतिपादन करता है। गांधीजी का विचार था की पूंजीपति वर्ग को समाप्त करने के बजाय उसकी शक्ति को सीमित करना ही उपयोगी होगा और यह कार्य श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध तथा व्यवस्था में भागीदार बनाकर ही किया जा सकता है।
(v) संरक्षकता का सिद्धान्त (Theory of Trusteeship)
महात्मा गांधी आर्थिक विषमताओं का अन्त करने के पक्ष में थे, लेकिन वे आर्थिक समानता स्थापित करने के साम्यवादी ढंग से सहमत नहीं थे, जिसके अन्तर्गत धनिकों से उनका धन बलपूर्वक छीनकर उसका सार्वजनिक हित में प्रयोग करने की बात कही जाती हैं। गांधी जी का विचार था कि हिंसात्मक होने के कारण साम्यवादी पद्धति उपयोगी नहीं हो सकती और पूंजीपति वर्ग को पूर्णतया नष्ट कर देने से समाज उनकी सेवाओं से वंचित रह जायेगा। इस सम्बन्ध में गाँधी जी का विचार था कि यदि सत्य और अहिंसा के आधार पर हित के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति ली जा सके तो ऐसा अवश्य ही किया जाना चाहिए।
इस सम्बन्ध में गांधीजी ने ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसका यह मतलब है कि धनी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अधिक जमीन, जायदाद, कारखाने तथा विविध प्रकार की सम्पत्ति का अपने को स्वामी न समझे अपितु इसे समाज की अमानत या धरोहर (Trust) माने, उसका उपयोग अपने लाभ के लिए नहीं अपितु समाज के कल्याण के लिए करे। गांधीजी का यह सिद्धान्त अपरिग्रह के विचार पर आधारित है। अपरिग्रह का अर्थ है कि मनुष्य को अपने जीवन की आवश्यकताओं से अधिक किसी वस्तु का संग्रह नहीं करना चाहिए। यदि किसी के पास अधिक सम्पत्ति हो गयी है तो उसे इसको अपनी न समझकर ईश्वर की तथा समाज की समझनी चाहिए। संसार की सभी वस्तुओं पर ईश्वर का स्वामित्व है, मनुष्य को अपने परिश्रम और आवश्यकतानुसार इसमें से अपना हिस्सा लेने का अधिकार है। अतः वह किसी भी प्रकार की सम्पत्ति का स्वामी नहीं अपितु उसका संरक्षक मात्र है।
गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धान्त के अनुसार धनी लोगों को स्वेच्छापूर्वक यह समझना चाहिए कि उनके पास जो धन है, वह समाज की धरोहर है, वे उसमें से केवल अपने निर्वाह के लिए आवश्यक धनराशि ही ले सकते हैं। शेष सारी धनराशि उन्हें समाज की दृष्टि से हितकर कार्यों में लगा देनी चाहिए। इसका यह मतलब नहीं है कि धनी अपने जीवन निर्वाह से बची हुई सम्पत्ति को निर्धन व्यक्तियों में बांट दे। ऐसा करने पर तो यह सम्पत्ति उपभोग में आकर शीघ्र नष्ट हो जायेगी। अतः धनिक वर्ग अपनी फालतू सम्पत्ति की ऐसे उद्योग-धन्धों में लगाये, जिनसे साधारण जनता को रोजगार मिल सके। उन्हें दूसरों को काम देकर तथा उत्पादन बढ़ाकर अपनी पूंजी का सदुपयोग सार्वजनिक हित के कल्याण एवं वृद्धि के लिए करना चाहिए। वे इसे तालाब, विद्यालय, चिकित्सालय, आदि बनाने के जनकल्याणकारी कार्यों में भी लगा सकते हैं। जमींदार अपनी फालतू जमीन भूमिहीन निर्धन व्यक्तियों को जोतने, बोने के लिए दे सकते हैं।
गांधीजी के आर्थिक विचारों की आलोचना
गांधीजी के आर्थिक विचारों की कई आधारों पर आलोचना की जाती है— सर्वप्रथम, गांधीजी के द्वारा औद्योगीकरण का जो विरोध और कुटीर उद्योग धन्धों का जो समर्थन किया गया है, आलोचक उसे युग के नितान्त विपरीत और अव्यावहारिक बतलाते हैं। आलोचकों के अनुसार वर्तमान समय में औद्योगीकरण को अस्वीकार करना ‘रचनात्मकता के नियमों को ही अस्वीकार करना है।’ द्वितीय, गांधीजी द्वारा आर्थिक समानता स्थापित करने के लिए जिस ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है आलोचक उसे नितान्त अव्यावहारिक बतलाकर उसकी आलोचना करते हैं। गांधीजी के आलोचकों को यह दृष्टिकोण मिथ्या आशावाद प्रतीत होता है कि धनी लोग स्वोच्छापूर्वक अपनी सम्पत्ति को छोड़ने तथा अपने को उसका ट्रस्टी समझने के लिए तैयार हो जायेंगे। ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त तो जनसामान्य के आर्थिक हितों की रक्षा साधन बनने के बजाय पूंजीपतियों का ‘रक्षाकवच’ बनकर ही रह जाता है। आलोचकों के अनुसार ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का प्रतिपादन पूंजीवाद की रक्षा करने के लिए ही किया गया और गांधीवादी दर्शन पूंजीवाद का अभिन्न अंग है।
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