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स्थानीय स्तर पर शिक्षा का भार किन निकायों पर है?

स्थानीय स्तर पर शिक्षा का भार किन निकायों पर है?
स्थानीय स्तर पर शिक्षा का भार किन निकायों पर है?

स्थानीय स्तर पर शिक्षा का भार किन निकायों पर है? वर्णन कीजिए।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत ने लोकतंत्र को अपनाने के लिए साथ-साथ लोकतंत्रीय-विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को भी अपनाया। इस सिद्धान्त के अनुसार स्थानीय संस्थाओं को बहुत-से अधिकार एवं उत्तरदायित्त्व प्रदान किये गये। भारत के अधिकांश राज्यों में स्थानीय संस्थाओं को प्राथमिक शिक्षा के लिए पूर्णतः उत्तरदायी ठहराया गया है। तृतीय पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत कुछ राज्यों में पंचायती राज्य को क्रियान्वित किया गया है, जो प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। इस स्तर के प्रशासकीय ढाँचे का रेखाचित्र निम्न है-

स्थानीय संस्थाएँ
जिला परिषद् या जिला बोर्ड नगरपालिकाएँ
परिषद् की शिक्षा समिति अधिकृत नगरपालिकाएँ अनाधिकृत नगरपालिकाएँ
ब्लॉक पंचायत समिति अध्यक्ष नगरपालिका
ग्राम पंचायत शिक्षा समिति
शिक्षा अधीक्षक शिक्षा अधीक्षिका
उपस्थिति अधिकारी (पुरुष) उपस्थिति अधिकारी (महिला)

नगरपालिकाएँ तथा शिक्षा–भारत में दो प्रकार की नगरपालिकाएँ पायी जाती हैं- अधिकृत तथा अनाधिकृत।  अधिकृत नगरपालिकाएँ वे हैं, जो प्राथमिक शिक्षा पर एक लाख रुपये की वार्षिक धनराशि से कम व्यय नहीं करती हैं।

अनाधिकृत नगरपालिकाओं की कोटि में वे सब आती हैं, जो इस धनराशि से कम व्यय करती हैं। अधिकृत नगरपालिकाओं को अपनी शिक्षा-समिति या विद्यालय बोर्ड बनाने का अधिकार है। शिक्षा के प्रशासन में उनको बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। वे अपने विद्यालयों का निरीक्षण स्वयं के द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा करती हैं।

जिला परिषद् या जिला-बोर्ड शिक्षा-ग्रामीण क्षेत्र की प्राथमिक शिक्षा के लिए जिला-बोर्डों को उत्तरदायी ठहराया गया है। कुछ राज्यों में जिला-बोर्डो के स्थान पर इसका नाम जिला परिषद् कर दिया गया था, उदाहरणार्थ-उत्तर प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश आदि। अब जिला-बोर्डों को जिला पंचायतों के नाम से पुकारा जाने लगा है। कुछ जिला-बोर्ड माध्यमिक विद्यालयों का भी संचालन कर रहे थे। उत्तर प्रदेश, चेन्नई, पंजाब आदि में 30 प्रतिशत से अधिक माध्यमिक विद्यालय का संचालन इनके द्वारा किया जा रहा था। राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा के प्रशासन के लिए दो प्रणालियाँ अपनायी जा रही हैं। कुछ राज्यों में जिला-बोर्ड तथा ग्राम पंचायतें इसका प्रबन्ध कर रही हैं, जैसे—गुजरात, महाराष्ट्र, चेन्नई, पश्चिमी बंगाल आदि। कुछ राज्यों में जिला-परिषद्, पंचायत समिति तथा ग्राम पंचायतों के द्वारा शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है, जैसे—आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि।

स्थानीय निकायों का कार्य-क्षेत्र

यद्यपि राज्य सरकारों ने प्राथमिक शिक्षा का दायित्त्व स्थानीय निकायों को सौंपा है, परन्तु उनको सीमित अधिकार प्रदान किये गये हैं। स्थानीय निकायों को प्राथामिक शिक्षा के सम्बन्ध में जो अधिकार प्रदान किये गये है, उनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-

(1) शिक्षकों की नियुक्ति–स्थानीय निकायों को शिक्षकों की नियुक्ति कार्य सौंपा गया है,परन्तु राज्य सरकार ने इस सम्बन्ध में यह प्रावधान कर दिया है कि इनकी नियुक्ति ‘चयन समिति’ के द्वारा होगी, जिसमें राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व रहेगा। प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक निकायों के कर्मचारी माने जायेंगे।

(2) सेवा-दशाएँ–शिक्षकों की सेवा-दशाओं का निर्धारण स्थानीय संस्थाओं द्वारा ही होगा, परन्तु उन्हें राज्य सरकार से इनमे सम्बन्ध में स्वीकृति प्राप्त करनी होगी।

(3) अन्य कर्मचारी-राज्य सरकार प्राथमिक विद्यालयों के अन्य कर्मचारियों, क्लर्क, चपरासी आदि की नियुक्ति, उनके वेतनमानों आदि के सम्बन्ध में स्थानीय निकायों के लिए कोई विनियमन नहीं करेगी, अर्थात् इस क्षेत्र में स्थानीय निकाय पूर्णतः स्वतंत्र हैं। ये संस्थाएँ आवश्यकतानुसार इन कर्मचारियों की संख्या का निर्धारण, उनके वेतनमान एवं दशाएँ निर्धारित करने की अधिकारिणी होंगी।

(4) पाठ्य-पुस्तकें-पाठ्य-पुस्तक निर्धारित करने का अधिकार राज्य सरकार को है। परन्तु यदि सरकार किसी भी विषय में एक से अधिक पाठ्य-पुस्तकों निर्धारित करती है, तो स्थानीय निकायों को उनमें से किसी एक पाठ्य-पुस्तक का चयन करने का पूर्ण अधिकार होगा। स्थानीय निकाय प्रस्तावित पाठ्य-पुस्तकों में से अपने विद्यालयों के लिए पाठ्य-पुस्तक चुनने के लिए स्वतंत्र होंगे।

(5) विद्यालय दिवस तथा छुट्टियाँ-राज्य सरकारें केवल यह निर्धारित करेंगी कि वर्ष में कितने दिन विद्यालय खुलेगा, परन्तु छुट्टियों के निर्धारण का अधिकार स्थानीय निकायों को प्रदान किया गया। वे आवश्यकतानुसार छुट्टियों का निर्धारण कर सकती हैं।

स्थानीय स्तर पर शिक्षा के प्रशासन में सुधार लाने के लिए कोठारी कमीशन ने यह सिफारिश की है कि प्रत्येक जिले में एक विद्यालय बोर्ड की स्थापना की जाये, जिसमें निम्नलिखित व्यक्तियों को सदस्यता प्रदान की जाये-

(i) जिला-परिषद् के प्रतिनिधि
(ii) जिले की नगरपालिकाओं के प्रतिनिधि
(iii) राज्य सरकार द्वारा मनोनीत शिक्षा-मर्मज्ञ
(iv) अपदेन सदस्य, जैसे—शिक्षा, कृषि, उद्योग या अन्य विभागों के अधिकारीगण।

कोठारी कमीशन ने यह भी सुझाव दिया है कि जिला-परिषद् तथा नगरपालिकाएँ अपने प्रतिनिधियों को अपने सदस्यों में से निर्वाचित कर भेजें। जो नगरपालिकाएँ स्वयं अपनी पृथक् विद्यालय परिषद् स्थापित करती वे इस परिषद् के लिए सदस्य नहीं भेजेंगी। अभी तक इन सुझावों को क्रियान्वित नहीं किया गया।

सन् 1986 की शिक्षा-नीति में इस बात पर बल दिया गया है कि उच्चतर माध्यमिक स्तर तक शिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जिला शिक्षा बोर्ड स्थापित किये जायें। इनकी स्थापना के लिये राज्य सरकारें यथाशीघ्र कदम उठायें। शैक्षिक विकास के विभिन्न स्तरों पर आयोजन, समन्वयन, मॉनीटरिंग तथा मूल्यांकन में केन्द्रीय, राज्य, जिला तथा स्थानीय की एजेंसियाँ सहभागिता निभायें।

सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति को लागू करने के लिए पंचायतीराज निकायों को प्राथमिक तथा माध्यमिक स्कूलों सहित शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा तथा गैर-औपचारिक शिक्षा, पुस्तकालय तथा सांस्कृतिक कार्यकलाप सौंपने का प्रावधान किया गया। प्रत्येक पंचायत एक ग्राम शिक्षा समिति का गठन करेगी जो ग्राम स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में निर्धारित कार्यक्रमों के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होगी। जिला स्तर पर जिला निकाय गठित किया जायेगा, जो गैर-औपचारिक तथा प्रौढ़ शिक्षा, उच्चतर माध्यमिक स्तर तक स्कूल शिक्षा सहित सभी शैक्षिक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार होगा। इस निकाय में शिक्षाविदों, महिलाओं, युवकों, अभिभावकों, अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों तथ जिले की उपयुक्त संस्थाओं के प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व होगा। जिला निकाय जिला स्तर पर प्रारम्भिक शिक्षा, गैर-औपचारिक शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा के सभी कार्यक्रमों में पर्याप्त पाठ्यचर्या एवं शैक्षिक निवेशों के लिए जिला शिक्षा तथा प्रशिक्षण संस्थान और अन्य संस्थाओं की विशेषज्ञता प्राप्त करेगा।

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